यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 10
ऋषिः - नारायण ऋषिः
देवता - विद्वान् देवता
छन्दः - भुरिगत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
3
उ॒त्सा॒देभ्यः॑ कु॒ब्जं प्र॒मुदे॑ वाम॒नं द्वा॒र्भ्यः स्रा॒म स्वप्ना॑या॒न्धमध॑र्माय बधि॒रं प॒वित्रा॑य भि॒षजं॑ प्र॒ज्ञाना॑य नक्षत्रद॒र्शमा॑शि॒क्षायै॑ प्र॒श्निन॑मुपशि॒क्षाया॑ऽअभिप्र॒श्निनं॑ म॒र्यादा॑यै प्रश्नविवा॒कम्॥१०॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त्सा॒देभ्य॒ इत्यु॑त्ऽसा॒देभ्यः॑। कु॒ब्जम्। प्र॒मुद॒ इति॑ प्र॒ऽमुदे॑। वा॒म॒नम्। द्वा॒र्भ्य इति॑ द्वाः॒ऽभ्यः। स्रा॒मम्। स्वप्ना॑य। अ॒न्धम्। अध॑र्माय। ब॒धि॒रम्। प॒वित्रा॑य। भि॒षज॑म्। प्र॒ज्ञाना॒येति॑ प्र॒ऽज्ञाना॑य। न॒क्ष॒त्र॒द॒र्शमिति॑ नक्षत्रऽद॒र्शम्। आ॒शि॒क्षाया॒ इत्या॑ऽशि॒क्षायै॑। प्र॒श्निन॑म्। उ॒प॒शि॒क्षाया॒ इत्यु॑पऽशि॒क्षायै॑। अ॒भि॒प्र॒श्निन॒मित्य॑भिऽप्रश्निन॑म्। म॒र्यादा॑यै। प्र॒श्न॒वि॒वा॒कमिति॑ प्रश्नऽविवा॒कम् ॥१० ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्सादेभ्यः कुब्जम्प्रमुदे वामनन्द्वार्भ्यः स्रामँ स्वप्नायान्धमर्धमाय बधिरम्पवित्राय भिषजञ्प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शमाशिक्षायै प्रश्निनमुपशिक्षायाऽअभिप्रश्निनम्मर्यादायै प्रश्नविवाकम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
उत्सादेभ्य इत्युत्ऽसादेभ्यः। कुब्जम्। प्रमुद इति प्रऽमुदे। वामनम्। द्वार्भ्य इति द्वाःऽभ्यः। स्रामम्। स्वप्नाय। अन्धम्। अधर्माय। बधिरम्। पवित्राय। भिषजम्। प्रज्ञानायेति प्रऽज्ञानाय। नक्षत्रदर्शमिति नक्षत्रऽदर्शम्। आशिक्षाया इत्याऽशिक्षायै। प्रश्निनम्। उपशिक्षाया इत्युपऽशिक्षायै। अभिप्रश्निनमित्यभिऽप्रश्निनम्। मर्यादायै। प्रश्नविवाकमिति प्रश्नऽविवाकम्॥१०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषमाह॥
अन्वयः
हे परमेश्वर राजन् वा! त्वमुत्सादेभ्यः कुब्जं प्रमुदे वामनं द्वार्भ्यः स्रामं स्वप्नायाऽन्धमधर्माय बधिरं परासुव। पवित्राय भिषजं प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शमाशिक्षायै प्रश्निनमुपशिक्षाया अभिप्रश्निनं मर्यादायै प्रश्नविवाकमासुव॥१०॥
पदार्थः
(उत्सादेभ्यः) नाशेभ्यः प्रवृत्तम् (कुब्जम्) वक्राङ्गम् (प्रमुदे) प्रकृष्टानन्दाय (वामनम्) ह्रस्वाङ्गम् (द्वार्भ्यः) सवर्णेभ्य आच्छादनेभ्यः प्रवृत्तम् (स्रामम्) सततं प्रस्रवितजलनेत्रम् (स्वप्नाय) निद्रायै (अन्धम्) (अधर्माय) धर्माचरणरहिताय (बधिरम्) श्रोत्रविकलम् (पवित्राय) रोगनिवारणेन शुद्धिकरणाय (भिषजम्) वैद्यम् (प्रज्ञानाय) प्रकृष्टज्ञानवर्धनाय (नक्षत्रदर्शम्) यो नक्षत्राणि पश्यत्येतैर्दर्शयति वा तम् (आशिक्षायै) समन्ताद् विद्योपादानाय (प्रश्निनम्) प्रशस्ताः प्रश्ना विद्यन्ते यस्य (उपशिक्षायै) उपवेदादिविद्योपादानाय (अभिप्रश्निनम्) अभितः बहवः प्रश्ना विद्यन्ते यस्य तम् (मर्यादायै) न्यायाऽन्यायव्यवस्थायै (प्रश्नविवाकम्) यः प्रश्नान् विवेचयति तम्॥१०॥
भावार्थः
हे राजन्! यथेश्वरः पापाचरणफलप्रदानेन कुब्जवामनस्रवितजलनेत्रान्धबधिरान् मनुष्यादीन् करोति, भिषग्ज्योतिर्विदध्यापकपरीक्षकप्रश्नोत्तरविवेचकेभ्यः श्रेष्ठकर्मफलदानेन पवित्रता प्रज्ञाविद्याग्रहणध्यापन-परीक्षाप्रश्नोत्तरकरणसामर्थ्यञ्च ददाति, तथैव त्वं येन येनाङ्गेन नरा विचेष्टन्ते, तस्य तस्याङ्गस्योपरि दण्डनिपातनेन वैद्यादीनां प्रतिष्ठाकरणेन च राजधर्मं सततमुन्नय॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे परमेश्वर वा राजन्! आप (उत्सादेभ्यः) नाश करने को प्रवृत्त हुए (कुब्जम्) कुबड़े को (प्रमुदे) प्रबल कामादि के आनन्द के लिए (वामनम्) छोटे मनुष्य को (द्वार्भ्यः) आच्छादन के अर्थ (स्रामम्) जिस के नेत्रों से निरन्तर जल निकले उस को (स्वप्नाय) सोने के लिए (अन्धम्) अन्धे को और (अधर्माय) धर्माचरण से रहित के लिए (बधिरम्) बहिरे को पृथक् कीजिए और (पवित्राय) रोग की निवृत्ति करने के अर्थ (भिषजम्) वैद्य को (प्रज्ञानाय) उत्तम ज्ञान बढ़ाने के अर्थ (नक्षत्रदर्शम्) नक्षत्रों को देखने वा इनसे उत्तम विषयों को दिखानेहारे गणितज्ञ ज्योतिषी को (आशिक्षायै) अच्छे प्रकार विद्या ग्रहण के लिए (प्रश्निनम्) प्रशंसित प्रश्नकर्त्ता को (उपशिक्षायै) उपवेदादि विद्या के ग्रहण के लिए (अभि, प्रश्निनम्) सब ओर से बहुत प्रश्न करने वाले को और (मर्यादायै) न्याय-अन्याय की व्यवस्था के लिए (प्रश्नविवाकम्) प्रश्नों के विवेचन कर उत्तर देने वाले को उत्पन्न कीजिए॥१०॥
भावार्थ
हे राजन्! जैसे ईश्वर पापाचरण के फल देने से लूले, लंगड़े, बौने, चिपड़े, अंधे, बहिरे मनुष्यादि को करता और वैद्य, ज्योतिषी, अध्यापक, परीक्षक तथा प्रश्नोत्तरों के विवेचकों के अर्थ श्रेष्ठ कर्मों के फल देने से पवित्रता, बुद्धि, विद्या के ग्रहण, पढ़ने, परीक्षा लेने और प्रश्नोत्तर करने का सामर्थ्य देता है, वैसे ही आप भी जिस-जिस अंग से मनुष्य विरुद्ध करते हैं, उस-उस अंग पर दण्ड मारने और वैद्यादि की प्रतिष्ठा करने से राजधर्म की निरन्तर उन्नति कीजिए॥१०॥
विषय
ब्रह्मज्ञान, क्षात्रबल, मरुद् ( वैश्य ) विज्ञान आदि नाना ग्राह्य शिल्प पदार्थों की वृद्धि और उसके लिये ब्राह्मण, क्षत्रियादि उन-उन पदार्थों के योग्य पुरुषों की राष्ट्ररक्षा के लिये नियुक्ति । त्याज्य कार्यों के लिये उनके कर्त्ताओं को दण्ड का विधान ।
भावार्थ
(५१) ( उत्सादेभ्यः) विनाशकारी कार्यों के लिये (कुब्जम् ) कुत्सित मार्ग से चलने वाले पुरुष को दण्डित कर (५२) (प्रमुदे) विनोदकारी कार्यों के लिये (वामनम् ) बौने पुरुष को नियुक्त करो । ( ५३ ) (द्वार्म्य:) द्वारों की रक्षा के लिये (स्रामम् ) जिसकी आंखों से सदा जल बहता हो ऐसे चक्षु दोष के रोगी पुरुष को मत रक्खो । द्वारों की रक्षा के लिये तीव्र दृष्टि और प्रभावजनक चक्षु वाला चाहिये । (५४) (स्वप्नाय) सुखपूर्वक शयन करने के लिये ( अन्धम् ) अन्धे, नेत्रहीन पुरुष को मत नियुक्त करो । प्रत्युत अच्छे देखने वाले को पहरेदार बनाओ। जैसे अंधे को रूप ज्ञान न होने से उसे रूप के स्वप्न नहीं आते इसी प्रकार स्वप्नदोष से बचने के लिये लोचनहीन पुरुष का अनुकरण करो । बुरे पदार्थों और व्यसनों के प्रति अन्धे के समान बने रहो, उनकी तरफ दृष्टि न करो । (५५) (अधर्माय बधिरम् ) अधर्म के कार्यों के लिये बधिर, बहरे, से न सुनने वाले का अनुकरण करो । अर्थात् अधर्म की बात पर कान मत दो । अथवा, अधर्माचरण के लिये अपराधी को बहरा कर दो । (५६) ( पवित्राय भिषजम् ) शरीरऔर राष्ट्र को पवित्र करने व रोग और मलों से रहित करने के लिये 'भिषग' अर्थात् रोग निवारक, वैद्य, डाक्टर पुरुष को नियुक्त कर । अर्थात् पदार्थों को स्वच्छ पवित्र रखने के लिये वैद्य या भिषग को स्वास्थ्य विभाग का अध्यक्ष नियत करो । ( ५७ ) (प्रज्ञानाय ) दूर के पदार्थों का ज्ञान करने के लिये ( नक्षत्रदर्शम् ) नक्षत्रों को देखने वाले या नक्षत्रों को दिखा देने वाले दूरवीक्षण यन्त्र के समान दूरदर्शी विद्वान् को नियुक्त करो ( ५८ ) ( आशिक्षायै ) सब प्रकार की विस्तृत शिक्षा के लिये ( प्रश्निनम् ) प्रश्न करने वाले शिष्य व अध्यापक को नियुक्त करो । जितने ही प्रश्न प्रतिप्रश्न उठाए जायेंगे उतना ही विस्तृत ज्ञान प्राप्त होगा । ( ५९ ) ( उपशिक्षायै अभिप्रचिनम ) समीप स्थित विद्यार्थियों की शिक्षा या अति सूक्ष्म विषयों की शिक्षा के लिये उनके सम्मुख नाना प्रश्नों का समाधान करने वाले विद्वान् को नियुक्त करो । (६०) ( मर्यादायै) मर्यादा, न्याय अन्याय की व्यवस्था के निर्णय के लिये (प्रश्नविवाकम् ) प्रश्नों का विविध प्रकार से समाधान कहने वाले विवेचक पुरुष न्यायाधीश को नियुक्त करो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
निचृदत्यष्टिः । गान्धारः ॥
विषय
विनाश कार्यों के लिए
पदार्थ
५१. (उत्सादेभ्यः) = विनाशकारी कार्यों के लिए (कुब्जम्) = कुबड़े को नियत करे। इन लोगों की बुद्धि निर्माण की अपेक्षा विनाश में अधिक चलती है। कुब्ज का शब्दार्थ है- 'कुत्सितं उब्जति ' = बुरे ढंग से दबाव [ Subdue] में रखता है ५२. (प्रमुदे वामनम्) = विनोदकारी कार्यों के लिए बौने पुरुष को प्राप्त करे। बौने पुरुष को देखकर ही कुछ अजीब-सा प्रतीत होने लगता है। इनमें अपने कद की कमी को प्रतितुलित करने के लिए हास्य आदि की शक्ति अधिक होती है । ५३. (द्वार्थ्य:) = द्वारों की रक्षा के लिए (स्स्रामम्) = जल से क्लिन्न आँखोंवाले को प्राप्त करे। द्वारपाल के स्थान पर नाम की नियुक्ति करे न कि स्नेहशून्य आँखोंवाले की। ५४. (स्वप्नाय) = नींद के लिए (अन्धम्) = लोचनहीन को नियुक्त करें, अर्थात् जिस जगह केवल सोने का कार्य हो वहाँ नेत्रहीन पुरुष की नियुक्ति कर दे, चूँकि यह सोने के कार्य को सम्यक् पूर्ण कर सकेगा । ५५. (अधर्माय) = अधर्म के लिए (बधिरम्) = बहिरे को प्राप्त करे। जो बड़ों की प्रेरणा को नहीं सुनता [Turns a deaf ear to them] वह अधर्म के मार्ग की ओर चला ही जाता है। शास्त्रश्रवण करनेवाला व्यक्ति ही धर्म के मार्ग पर चल पाता है । ५६. (पवित्राय भिषजम्) = पवित्रता के लिए वैद्य को नियत करे। इसका कार्य जहाँ सफाई का ध्यान करना होगा, वहाँ बीमारियों को न फैलने देने तथा मानस पवित्रता उत्पन्न करने का भी ध्यान करना होगा । ५७. (प्रज्ञानाय) = प्रकृष्ट ज्ञान के लिए (नक्षत्रदर्शम्) = नक्षत्रों का दर्शन करनेवाले को, अर्थात् गणित ज्योतिष के पण्डित को नियुक्त करे। यह उन तारों की गति में भी प्रभु की महिमा को देखता है, इसे तारे प्रभु का स्तवन करते प्रतीत होते हैं। यह इन नक्षत्रों की विद्या का अध्ययन करता हुआ प्रभु का ज्ञान प्राप्त करता है । ५८. (आशिक्षायै प्रश्निनम्) = सब विषयों का ज्ञान देने के लिए विविध प्रश्न करनेवाले अध्यापक को प्राप्त करे। वस्तुतः इस प्रश्नात्मक शैली [ Questioning method] के द्वारा आचार्य विद्यार्थी के अन्दर से ही ज्ञान को बाहर लाने का प्रयत्न करता है। ५९. (उपशिक्षायै) = उपशिक्षा के लिए, अर्थात् Training के लिए (अभिप्रश्निनम्) = नाना प्रकार के प्रश्न पूछनेवाले को नियत करे। उन भावी शिक्षकों को प्रश्न पूछने का प्रकार भी तो सिखाना ही है। ६०. (मर्यादायै) = मर्यादा के लिए (प्रश्नविवाकम्) = न्यायाधीश को नियत करे। यह अपराधियों को उचित दण्ड देते हुए कुप्रवृत्तियों का दमन करता है और इस प्रकार मर्यादा की स्थापना करता है।
भावार्थ
भावार्थ - राजा शिक्षा के प्रसार के लिए ऐसे अध्यापकों को नियत करे जो विद्यार्थियों के ज्ञान को प्रश्नात्मक शैली से निरन्तर बढ़ानेवाले हों ।
मराठी (2)
भावार्थ
हे राजा ! ईश्वर जसा माणसांना त्यांच्या पापाचे फळ म्हणून लुळे, लंगडे, ठेंगणे, चिपडे, आंधळे, बहिरे करतो आणि वैद्य, ज्योतिषी, अध्यापक, परीक्षक व विवेचक बनवून श्रेष्ठ कर्माचे फळ देऊन पवित्रता बुद्धी, विद्याग्रहण, अध्ययन, परीक्षा घेण्याचे व प्रश्नोत्तराचे सामर्थ्य वाढवितो तसे तूही विरोधी कार्य करणाऱ्या माणसाना दंड दे व वैद्य वगैरे लोकांना मानसन्मान दे. याप्रमाणे राजधर्माचे पालन कर.
विषय
पुन्हा, त्याच विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे परमेश्वर वा हे राजन्, आपण (उत्सादेभ्यः) विनाश करण्यासाठी उद्युक्त (कुब्जम्) कुबड्या माणसाला आणि (प्रमुदे) प्रबळ अशा काम आदी आनंद उपभोगण्यासाठी (वामनम्) बुटक्या माणसाला (पृथक करा, त्या कार्यापासून परावृत्त करा-कारण कुब्बड असलेला वा अपंग माणूस नाश कसा करणार आणि बुटक्या माणसाला प्रबळ कामाचा उपभोग कसा घेता येईल? म्हणून यांना या कार्यापासून दूर ठेवा) (द्वार्भ्यः) (सुवर्ण लोकांकडून आधार वा आश्रय अपेक्षिणार्या) मनुष्यापासून (स्रामम्) ज्याच्या नेत्रातून सतत जलधार व चिपडे निघत असेल, अशा माणसाला दूर ठेवा (तशा केविलवाण्या दीन-दरिद्रीवर कोण दया करणार?) (स्वप्नाय) झोपण्यासाठी (अन्धम्) आंधळ्याला आणि (अधमयि) अधर्माचरणापासून दूर असलेल्यापासून (बधिरम्) बहिर्या माणसाला (पृथक करा) (पवित्राय) रोगनिवारणाकरिता (भेषजम्) वैद्य आणि (प्रज्ञानाय) उत्तम ज्ञानवृद्धीसाठी (नक्षत्रदर्शम्) नक्षत्र दाखविणारे अथवा नक्षत्र-विषयापासून गणिताप्रमाणे ज्ञान देणारे गणित-ज्योतिषी (आमच्या राज्यात उत्पन्न करावा (आशित्रायै) उत्तमप्रकारे विद्याग्रहण करण्यासाठी (प्रश्निनम्) चांगल्या जिज्ञासू प्रश्नकर्ता आणि (उपशिक्षायै) उपवेद आदी विद्या ग्रहण करण्यासाठी (अभि, प्रश्निनम्) सर्वत, अनेक प्रश्न विचारणारे विद्यार्थी (उत्पन्न करा वा निर्माण करा) आणि मर्यादायै) न्याय व्यवस्थेकडे लक्ष देणारे (प्रश्नविवाम्) प्रश्नांची विवेचनापूर्ण उत्तरें देणारे ( जनतेच्या योग्य त्या तक्रारींचे निवारण करण्यासाठी विधिज्ञ माणसें हे परमेश्वर, आपण उत्पन्न करा अथवा हे राजन्, आपण निर्माण करा. ॥10॥
भावार्थ
भावार्थ - हे राजन्, जसा पाप करणार्यांना परमेश्वर लुळे, पांगळे, बुटके, चिपडे, आंधळे वा बहिरे करतो, तसे तुम्ही माणसे ज्या ज्या अवयवांने दुराचरण करतात, त्या त्या अंगाला दंडित करा. तसेच वैद्य, ज्योतिषी अध्यापक, परीक्षक आणि प्रश्नांची उत्तरे देणार्यांना परमेश्वर त्यांच्या श्रेष्ठ कर्मांचे फळें देतो, त्याना बुद्धी, ग्रहणसामर्थ्य, अध्ययन, परीक्षण आणि प्रश्नोतर करण्याचे सामर्थ्य देतो, त्याप्रमाणे हे राजन्, आपणही त्या वैद्य आदींचा सन्मान करून राजधर्माची निरंतर उन्नती करा. ॥10॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O God keep aside a hunch-back bent on destruction ; a dwarf given to carnal pleasures ; a blear-eyed man as a gate-keeper ; a blind man for sleep; and a deaf man devoid of righteousness. O God create & physician for purifying our body with the eradication of disease ; an astronomer for the advancement of knowledge ; an inquisitive man full of craving for knowledge ; an extra inquisitive man for desire of extra knowledge ; and a question-solver for establishing moral law.
Meaning
Remove the crooked on way to destruction, the small man addicted to gaiety, disease spreading to house doors, the man blind to dreams, and the deaf in love with adharma. Develop medicine for health and purity, help and encourage the astronomer for science, inquisitive learner for education, the seminary for confirmation and application of learning, and analysis and discrimination for the judgement of truth and value.
Translation
(One should find) a hunchback for creating disturbances. (1) A dwarf for amusement. (2) A blear-eyed man for door-keeping. (3) A blind man for sleeping. (4) A deaf man for unrighteous actions. (5) A physician for cleaning. (6) For observation an astronomer. (7) An inquisitive student for thorough education. (8) A cross examiner for thorough inquiry. (9) A judge of issues for dispensing justice. (10)
Notes
Utsāda, disturbance. Dvārbhyah, for door-keeping, Prajñāna, insight. Āśikṣāyai, for thorough education. Abhipraśninam, cross-examiner. Praśnavivāka, judge.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষমাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে পরমেশ্বর বা রাজন! আপনি (উৎসাদেভ্যঃ) নাশ করিতে প্রবৃত্ত (কুব্জম্) কুব্জকে (প্রমুদে) প্রবল কামাদির আনন্দের জন্য (বামনম্) লঘু মনুষ্যকে (দ্বাভ্যৌঃ) আচ্ছাদন হেতু (স্রামম্) যাহার নেত্র হইতে নিরন্তর জল বাহির হয় তাহাকে (স্বপ্নায়) শয়নের জন্য (অন্ধম্) অন্ধকে এবং (অধর্মায়) ধর্মাচরণ হইতে রহিত হইবার জন্য (বধিরম্) বধির ব্যক্তিকে পৃথক করুন এবং (পবিত্রায়) রোগের নিবৃত্তি হেতু (ভিষজম্) বৈদ্যকে (প্রজ্ঞানায়) উত্তম জ্ঞান বৃদ্ধি করিবার জন্য (নত্রক্ষদর্শনম্) নক্ষত্রগুলিকে দর্শন বা ইহা দ্বারা উত্তম বিষয়গুলিকে প্রদর্শনকারী গণিতজ্ঞ জ্যোতিষীকে (অশিক্ষায়ৈ) উত্তম প্রকার বিদ্যাগ্রহণের জন্য (প্রশ্নিনম্) প্রশংসিত প্রশ্নকর্ত্তাকে (উপশিক্ষায়ৈ) উপবেদাদি বিদ্যা গ্রহণের জন্য (অভিপ্রশ্নিনম্) সব দিক দিয়া বহু প্রশ্নকারীকে এবং (মর্যাদায়ৈ) ন্যায়-অন্যায়ের ব্যবস্থা হেতু (প্রশ্নবিবাকম্) প্রশ্নের বিবেচনা করিয়া উত্তর দানকারীকে উৎপন্ন করুন ॥ ১০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–হে রাজন্! যেমন ঈশ্বর পাপাচরণের ফল প্রদান করিবার ফলে খঞ্জ, বধির, কুব্জ, বামন, অন্ধ ইত্যাদি মনুষ্যাদি করেন এবং বৈদ্য, জ্যোতিষী, অধ্যাপক, পরীক্ষক তথা প্রশ্নোত্তরাদির বিবেচকদের জন্য শ্রেষ্ঠ কর্ম্মের ফল দেওয়ায় পবিত্রতা, বুদ্ধি, বিদ্যার গ্রহণ, পঠন, পরীক্ষা নেওয়া এবং প্রশ্নোত্তর করার সামর্থ্য প্রদান করে । সেইরূপ আপনিও যে যে অঙ্গ দ্বারা মনুষ্যগণ বিরুদ্ধ কর্ম্ম করে সেই সেই অঙ্গের উপর দন্ড মারিতে এবং বৈদ্যাদির প্রতিষ্ঠা করিতে রাজধর্মের নিরন্তর উন্নতি করুন ॥ ১০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
উ॒ৎসা॒দেভ্যঃ॑ কু॒ব্জং প্র॒মুদে॑ বাম॒নং দ্বা॒র্ভ্যঃ স্রা॒মᳬं স্বপ্না॑য়া॒ন্ধমধ॑র্মায় বধি॒রং প॒বিত্রা॑য় ভি॒ষজং॑ প্র॒জ্ঞানা॑য় নক্ষত্রদ॒র্শমা॑শি॒ক্ষায়ৈ॑ প্র॒শ্নিন॑মুপশি॒ক্ষায়া॑ऽ অভিপ্র॒শ্নিনং॑ ম॒র্য়াদা॑য়ৈ প্রশ্নবিবা॒কম্ ॥ ১০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
উৎসাদেভ্য ইত্যস্য নারায়ণ ঋষিঃ । বিদ্বান্ দেবতা । ভুরিগত্যষ্টিশ্ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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