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यजुर्वेद अध्याय - 30

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  • यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 22
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - राजेश्वरौ देवते छन्दः - निचृत्कृतिः स्वरः - निषादः
    4

    अथै॒तान॒ष्टौ विरू॑पा॒ना ल॑भ॒तेऽति॑दीर्घं॒ चाति॑ह्रस्वं॒ चाति॑स्थूलं॒ चाति॑कृशं॒ चाति॑शुक्लं॒ चाति॑कृष्णं॒ चाति॑कुल्वं॒ चाति॑लोमशं च। अशू॑द्रा॒ऽअब्रा॑ह्मणा॒स्ते प्रा॑जाप॒त्याः। मा॒ग॒धः पुँ॑श्च॒ली कि॑त॒वः क्ली॒बोऽशू॑द्रा॑ऽअब्रा॑ह्मणा॒स्ते प्रा॑जाप॒त्याः॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अथ॑। ए॒तान्। अ॒ष्टौ। विरू॑पानिति॒ विऽरू॑पान्। आ। ल॒भ॒ते॒। अति॑दीर्घ॒मित्यति॑ऽदीर्घम्। च॒। अति॑ह्रस्व॒मित्यति॑ऽह्रस्वम्। च॒। अति॑स्थूल॒मित्यति॑ऽस्थूलम्। च॒। अति॑कृश॒मित्यति॑ऽकृशम्। च॒। अति॑शुक्ल॒मित्यति॑ऽशुक्लम्। च॒। अति॑कृष्ण॒मित्यति॑ऽकृष्णम्। च॒। अति॑कुल्व॒मित्यति॑ऽकुल्वम्। च॒। अति॑लोमश॒मित्यति॑ऽलोमशम्। च॒। अशू॑द्राः। अब्रा॑ह्मणाः। ते। प्रा॒जा॒प॒त्या इति॑ प्राजाऽप॒त्याः। मा॒ग॒धः। पुँ॒श्च॒ली। कि॒त॒वः। क्लीबः॒। अशू॑द्राः। अब्रा॑ह्मणाः। ते। प्रा॒जा॒प॒त्या इति॑ प्राजाऽप॒त्याः ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अथैतानष्टौ विरूपानालभतेतिदीर्घञ्चातिह््रस्वञ्चातिस्थूलञ्चातिकृशञ्चातिशुक्लञ्चातिकृष्णञ्चातिकुल्वञ्चातिलोमशञ्च । अशूद्राऽअब्राह्मणास्ते प्राजापत्याः । मागधः पुँश्चली कितवः क्लीबो शूद्राऽअब्राह्मणास्ते प्राजापत्याः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अथ। एतान्। अष्टौ। विरूपानिति विऽरूपान्। आ। लभते। अतिदीर्घमित्यतिऽदीर्घम्। च। अतिह्रस्वमित्यतिऽह्रस्वम्। च। अतिस्थूलमित्यतिऽस्थूलम्। च। अतिकृशमित्यतिऽकृशम्। च। अतिशुक्लामित्यतिऽशुक्लम्। च। अतिकृष्णमित्यतिऽकृष्णम्। च। अतिकुल्वमित्यतिऽकुल्वम्। च। अतिलोमशमित्यतिऽलोमशम्। च। अशूद्राः। अब्राह्मणाः। ते। प्राजापत्या इति प्राजाऽपत्याः। मागधः। पुँश्चली। कितवः। क्लीबः। अशूद्राः। अब्राह्मणाः। ते। प्राजापत्या इति प्राजाऽपत्याः॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 30; मन्त्र » 22
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे राजानो! यथा विद्वानतिदीर्घं चातिह्रस्वं चातिस्थूलं चातिकृशं चातिशुक्लं चातिकृष्णं चातिकुल्वं चातिलोमशं चैतान् विरूपानष्टावालभते, तथा यूयमप्यालभध्वम्। अथ येऽशूद्रा अब्राह्मणः प्राजापत्याः सन्ति, तेऽप्यालभेरन्। यो मागधो या पुंश्चली कितवः क्लीबोऽशूद्रा अब्राह्मणास्ते दूरे वासनीयाः। ये प्राजापत्यास्ते समीपे निवासनीयाः॥२२॥

    पदार्थः

    (अथ) आनन्तर्य्ये (एतान्) पूर्वोक्तान् (अष्टौ) (विरूपान्) विविधस्वरूपान् (आ) समन्तात् (लभते) प्राप्नोति (अतिदीर्घम्) अतिशयेन दीर्घम् (च) (अतिह्रस्वम्) अतिशयेन ह्रस्वम् (च) (अतिस्थूलम्) (च) (अतिकृशम्) (च) (अतिशुक्लम्) (च) (अतिकृष्णम्) (च) (अतिकुल्वम्) लोमरहितम् (च) (अतिलोमशम्) अतिशयेन लोमयुक्तम् (च) (अशूद्राः) न शूद्रा अशूद्राः (अब्राह्मणाः) न ब्राह्मणाः अब्राह्मणाः (ते) (प्राजापत्याः) प्रजापतिदेवताकाः (मागधः) नृशंसः (पुँश्चली) या पुँभिश्चलितचित्ता व्यभिचारिणी (कितवः) द्यूतशीलः (क्लीबः) नपुंसकः (अशूद्राः) अविद्यामानः शूद्रो येषान्ते (अब्राह्मणाः) अविद्यमानो ब्राह्मणो येषान्ते (ते) (प्राजापत्याः) प्रजापतेरिमे ते॥२२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः! यथा विद्वांसः सूक्ष्ममहत्पदार्थान् विज्ञाय यथायोग्यं व्यवहारं साध्नुवन्ति, तथाऽन्येऽपि साध्नुवन्तु। सर्वैः प्रजापतेरीश्वरस्योपासना नित्यं कर्त्तव्या इति॥२२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे राजा लोगो! जैसे विद्वान् (अतिदीर्घम्) बहुत बड़े (च) और (अतिह्रस्वम्) बहुत छोटे (च) और (अतिस्थूलम्) बहुत मोटे (च) और (अतिकृशम्) बहुत पतले (च) और (अतिशुक्लम्) अतिश्वेत (च) और (अतिकृष्णम्) बहुत काले (च) और (अतिकुल्वम्) लोमरहित (च) और (अतिलोमशम्) बहुत लोमों वाले की (च) भी (एतान्) इन (विरूपान्) अनेक प्रकार के रूपों वाले (अष्टौ) आठों को (आ, लभते) अच्छे प्रकार प्राप्त होता है, वैसे तुम लोग भी प्राप्त होओ। (अथ) इस के अनन्तर जो (अशूद्राः) शूद्रभिन्न (अब्राह्मणाः) तथा ब्राह्मणभिन्न (प्राजापत्याः) प्रजापति देवता वाले हैं (ते) वे भी प्राप्त हों। जो (मागधः) मनुष्यों में निन्दित, जो (पुंश्चली) व्यभिचारिणी (कितवः) जुआरी (क्लीबः) नपुंसक (अशूद्राः) जिनमें शूद्र और (अब्राह्मणाः) ब्राह्मण नहीं, उनको दूर वसाना चाहिए और जो (प्राजापत्याः) राजा वा ईश्वर के सम्बन्धी हैं, (ते) वे समीप में वसाने चाहियें॥२२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे विद्वान् लोग छोटे-बड़े पदार्थों को जान के यथायोग्य व्यवहार को सिद्ध करते हैं, वैसे और लोग भी करें। सब लोगों को चाहिये कि प्रजा के रक्षक ईश्वर और राजा की आज्ञा सेवन तथा उपासना नित्य किया करें॥२२॥

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    विषय

    अति विचित्र, विकृत पुरुषों की विशेष व्यवस्था ।

    भावार्थ

    ( अथ) और ( एतान् ) इन (अष्टौ ) आठ ( विरूपान् ) विकृत रूप वाले पुरुषों को (आलभते) राजा अपने अधीन रक्खे | (अतिदीर्घम् ) बहुत अधिक लम्बा, ( अतिह्नस्वं च ) बहुत छोटा, बौना, (अतिकृशं च) बहुत दुबला, पतला, (अतिशुक्कुं च) बहुत श्वेत, अति गौर, ( अतिकृष्णं च ) बहुत ही काला (अति लोमशं च) बहुत अधिक लोम गला । ये आठ विचित्र होने से संग्रह करने योग्य हैं । यदि ये (अशूद्राः) शूद्र कर्म करने वाले न हों और (अब्राह्मणाः) ब्राह्मण के काम करने वाले विद्वान् भी न हों तो (ते) वे ( प्राजापत्याः) प्रजापालक राजा के ही अधीन उसकी सम्पत्ति एवं भरण-पोषण योग्य जीव समझे जायं । इसी प्रकार (अशूद्राः अब्राह्मणाः) शूद्र और ब्राह्मण के काम के अयोग्य (मागधः) स्तुति पाठक या नृशस, घोर लोभी (पुंश्चली) पुरुषों के भीतर व्यभिचार का जीवन बिताने वाली, चञ्चल नारी, (कितबः) जुआखोर और (क्लीब: ) नपुंसक (ते) ये चारों भी ( प्राजापत्याः) प्रजापालक राजा के ही अधीन रहें । अर्थात् यदि ये ब्राह्मणोचित्त ज्ञान, सदाचार का जीवन और शूद्रवत् श्रम का जीवन बिता सकें तो राजा इनको अपने अधीन न ले । ये क्षत्रियों में रह नहीं सकते क्योंकि स्तुतिपाठक, खुशामदी जुआचोर, व्यभिचारी पुरुषों से क्षात्र कर्म नहीं हो सकता। किसी व्यापार में ये लग नहीं सकते । व्यभिचारी, जुआखोरी से असत्य व्यवहार और दुराचार बढ़ता है, इसलिये ऐसों को राजा अपने नियन्त्रण में रक्खे । मागध को बन्दी बनाकर स्तुतिपाठ के लिये रक्खे । 'कितव' को क्रीड़ा के लिये, पुंश्चली की सेवा के लिये, क्लीब को अन्तःपुर की भृत्यता के लिये रखे । इस प्रकार उनको भी योग्य कामों में लगाये रखे जिससे वे जीवन बुरे कर्मों में व्यय न करें । अथवा, ऐसे व्यक्तियों को अलग कैद में रक्खे जिससे ये चारादि में न फैला सकें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    राजेश्वरौ । निचृत् कृतिः । निषादः ॥

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    विषय

    विरूप पुरुष

    पदार्थ

    १. (अथ) = अब विविध स्थानों पर उपर्युक्त पुरुषों की नियुक्ति के बाद (एतान्) = इन (अष्टौ) = आठ (विरूपान्) = परस्पर विरुद्ध रूपवाले व विकृत रूपवाले पुरुषों को आलभते प्राप्त करता है। [क] (अतिदीर्घम्) = बड़े लम्बे कदवाले, [ख] (च) = और (अतिह्रस्वम्) = बहुत छोटे कदवाले= बौने को, [ग] (च अतिस्थूलम्) = और अत्यन्त स्थूलकाय को [घ] (च) = तथा (अतिकृशम्) = अत्यन्त दुर्बल शरीरवाले को [ङ] (च) = और (अतिशुक्लम्) = एकदम गौरवर्णवाले को (च) = तथा [च] (अतिकृष्णम्) = अत्यन्त काले रूपवाले को [छ] (च) = और (अतिकुल्वम्) = एकदम बालों से रहित को (च) = तथा [ज] (अतिलोमशम्) = सर्वत्र बालों से व्याप्त अङ्गवाले को । २. (अशूद्राः अब्राह्मणाः) = यदि ये विरूप पुरुष शूद्र व ब्राह्मण न हों तो (प्राजापत्या:) = प्रजापति के ही समीप रहने योग्य हैं। शूद्र तो श्रम में लगा रहकर लोगों की कृपा का ही पात्र रहेगा, और ब्राह्मण ज्ञान के कारण आदर का पात्र बनेगा, परन्तु ये आठ विरूप वैश्य व क्षत्रिय तमाशे का, लोगों की उत्सुकता का कारण बनेंगे और सामान्य कार्यक्रम में पर्याप्त विघ्न के कारण हो जाएँगे। ३. इसी प्रकार (मागधः) = भाट, (पुंश्चली) = असंयत जीवनवाली स्त्री (कितवः) = जुआरी (क्लीबः) = कमज़ोर - ये चारों भी (अशूद्रा:) = शूद्र नहीं होते, शूद्र में मागध बनने की योग्यता नहीं होती, काम में लगे रहने व सादा भोजन मिलने से इनका जीवन असंयमवाला नहीं होता, जुए के लिए अवकाश व धन नहीं जुटा पाते, श्रम के कारण शक्तिसम्पन्न होते हैं। इसी प्रकार ये (अब्राह्मणः) = ब्राह्मण भी नहीं होते। ज्ञानी होने तथा निर्लोभता के कारण व्यर्थ स्तुति करने की इनमें भावना नहीं होती, संयमी होते हैं, जुए से दूर रहते हैं और संयम के कारण निर्भीक व सशक्त होते हैं। ते अशूद्र व अब्राह्मण मागध, पुंश्चली, कितव व क्लीब भी (प्राजापत्याः) = राजा के समीप रहने चाहिएँ । राजा को चाहिए कि इन्हें प्रजा में मिश्रित न होने दे। प्रजा में इन्हें मिश्रित होने का अवसर मिलेगा तो ये प्रजा पतन का ही कारण बनेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ-आठ विरूप पुरुषों को तथा मागध आदि चार को राजा प्रजा से दूर ही रखे,जिससे राष्ट्र का कार्य सुचारुरूपेण चलता रहे। न प्रजा तमाशा देखने में लग जाए और न ही आचरण से गिर जाए।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्याप्रमाणे विद्वान लोक मोठ्या व लहान पदार्थांचे ज्ञान प्राप्त करतात व त्यानुसार यथायोग्य व्यवहार करतात त्याप्रमाणे इतरानीही वागावे. सर्व लोकांनी प्रजेचा रक्षक ईश्वर व राजा यांच्या आज्ञेचे पालन करावे व सदैव परमेश्वराची उपासना करावी.

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    विषय

    पुनश्‍च, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे राजा जनहो, ज्याप्रमाणे एक विद्वान (अतिदीधर्म) अति विशाल (च) आणि (अतिह्नस्वम्) अतिलघु वा लहान (च) तसेच (अतिस्थूलम्) अतिस्थूल शरीराच्या मनुष्याला (च) आणि (अतिकृशम्) अतिदुबळ्या मनुष्याला ( देखील सहाय्य करतो, त्याच्या जवळ जाऊन विचारपूस करतो, तद्वत तुम्हीही करीत जा) (च) आणखी जसा एक विद्वान (अतिशुक्लम्) अति गोरा (च) आणि (असिकृष्णम्) अतिकाळ्या (च) आणि (अतिकुलत्वम्) लोग (शरीरावरील रोम) (लव) नसलेल्या (व) आणि (अतिलोमशम्) अत्यधिक रोम वा लव असलेल्या (च) आणखी (एतान्) अन्यही अनेक (विरूपान्) रूप असलेल्या (अष्टौ) आठ लोकांना (सहाय्य करतो, त्यांना (अलभते) योग्य प्रसंगी प्राप्त होतो, तसे हे राजा, तुम्हीही प्राप्त व्हा. (अथ) यानंतर जे (उत्शूद्राः) शूद्र नसलेले (अब्राह्मणाः) ब्राह्मण नसलेले आणि ( प्राजापत्याः) प्रजापति देवतावान जे लोक आहेत , (ते) त्यांना देखील तुमच्याकडून सहाय्य मिळो. (मागधाः) मनुष्यापैकी जे निन्दनीय जन, जी (पुंश्‍चली) व्यभिचारिणी स्त्री, जो (कितवः) जुगादी, जो क्लीबः) नपुसंक (आहेत, त्यांना दूरच्या ठिकाणी वसविले पाहिजे.) (त्यांची वस्ती दूर वा गावाबाहेर असावी) जे (अशूद्राः) जे शूद्र नाहीत, व जे (अब्राह्मणाः) ब्राह्मण नाहीत म्हणजे क्षत्रिय वा वैश्य आहेत तसेच जे (प्राजापत्याः राजपुरूष वा ईश्‍वर उपासक आहेत (ते) त्याना राजाने गावात वा आपल्याजवळ वसविले पाहिजे ॥22॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे मनुष्यानो, जसे विद्वज्जन लहान-मोठ्या पदार्थाना जाणून घेऊन त्यापासून यथोचित व्यवहार पूर्ण करतात, तसे इतर लोकांनीही केले पाहिजे सर्व लोकांचे कर्तव्य आहे की प्रजारक्षक राजाच्या आणि सर्वरक्षक परमेश्‍वराच्या आज्ञेचे पालन करावे आणि त्यांनी परमेश्‍वराची उपासना नित्य करावी. ॥22॥

    टिप्पणी

    या अध्यायात परमेश्‍वराचे स्वरूप आणि राजाची कर्तव्ये-कर्मे यांचे वर्णन आहे. त्यामुळे या अध्यायाच्या अर्थाची संगती पूर्वीच्या 29 व्या अध्यायाशी आहे, हे जाणावे ॥^यजुर्वेद हिन्दी भाष्याच्या मराठी भाष्यानुवादाचा 30 वा अध्याय समाप्त

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O kings, just as a learned man comes in contact with the eight following variform men ; one too tall, one too short, one too stout, one too thin, one too white, one too black, one too bald, one too hairy, so should ye do. Those connected with the kings, who are neither Shudras nor Brahmanas should also come in their contact. A murderer, a harlot and eunuch, neither of Shudra nor Brahmana caste should be made to dwell at a distance. Loyal subjects and devotees of God should dwell near.

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    Meaning

    The good human being accepts and works with these eight classes of people of different forms and colours: too tall, too short, too fat, too thin, too white, too dark, too hairless, too hairy. Also they are neither Brahmanas nor Shudras (nor the others). They too, all of them, are children of God, Prajapati. Even the bastard and the ‘despicable’, the wanton, the gambler, and the coward and the eunuch, neither Shudras nor Brahmanas (nor the others), they too are children of God, Prajapati, father of all.

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    Translation

    Then one finds eight types of malformed persons; some unusually tall, some unusually small, some unusually fat, some unusually lean and thin, some unusually white, some unusually black, some unusually hairless and some having hairs on bodies. They are neither the brahmanas (intellectuals) nor the sudras (labourers); they are creatures of the Lord. Similarly, a bully, a harlot, a gambler, and an eunuch is neither a brahmana nor a sudra; all of them are creatures of the Lord. (1)

    Notes

    Atikulvam, too much hairless. Māgadhaḥ, a bully. Puiscali, a harlot; वेश्या । Kitavaḥ, द्यूतव्यसनी, a gambler. Klibaḥ, नपुंसक:, an eunuch. Atiśuklam, very fair-coloured. Atikṛṣṇam, very darkcoloured.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে রাজাগণ! যেমন বিদ্বান্ (অতিদীর্ঘম্) অতি দীর্ঘ (চ) এবং (অতিহ্রস্বম্) অত্যন্ত ছোট (চ) এবং (অতিস্থূলম্) অতি স্থূল (চ) এবং (অতিকৃশম্) অত্যন্ত কৃশ (চ) এবং (অতিশূক্লম্) অত্যন্ত শ্বেত (চ) এবং (অতিকৃষ্ণম্) অত্যন্ত কৃষ্ণ (চ) এবং (অতিকুল্বম্) লোমরহিত (চ) এবং (অতিলোমশম্) অত্যন্ত লোমশদের (চ)(এতান্) এই সব (বিরূপান্) বহু প্রকার রূপ যুক্ত (অষ্টৌ) অষ্টকে (আ, লভতে) উত্তম প্রকার প্রাপ্ত হয় সেইরূপ তোমরাও প্রাপ্ত হও (অথ) ইহার পশ্চাৎ যে (অশূদ্রাঃ) শূদ্রভিন্ন (অব্রাহ্মণাঃ) তথা ব্রাহ্মণ ভিন্ন (প্রাজাপত্যাঃ) প্রজাপতি দেবতা সম্পন্ন (তে) তাহারাও প্রাপ্ত হউক, যে (মাগধঃ) মনুষ্যদিগের মধ্যে নিন্দিত যাহারা (পুংশ্চলী) ব্যভিচারিণী (কিতবঃ) জুয়াড়ি (ক্লীবঃ) নপুংসক (অশূদ্রাঃ) যন্মধ্যে শূত্র ও (অব্রাহ্মণাঃ) ব্রাহ্মণ নয় তাহাদিগকে দূরে নিবাস করিতে দেওয়া দরকার এবং যাহারা (প্রজাপত্যাঃ) রাজা বা ঈশ্বরের সঙ্গে সম্পর্ক রাখে (তে) তাহাদেরকে নিকটে থাকিতে দেওয়া উচিত ॥ ২২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ! যেমন বিদ্বান্গণ ছোট-বড় পদার্থগুলিকে জানিয়া যথাযোগ্য ব্যবহারকে সিদ্ধ করে তদ্রূপ অন্য লোকেরাও করিবে । সকলের উচিত যে, প্রজার রক্ষক ঈশ্বর ও রাজার আজ্ঞা সেবন ও উপাসনা নিত্য করিতে থাকিবে ॥ ২২ ॥
    এই অধ্যায়ে পরমেশ্বরের স্বরূপ এবং রাজার কৃত্যের বর্ণনা হওয়ায় এই অধ্যায়ের অর্থের পূর্ব অধ্যায়ের অর্থ সহ সংগতি জানা উচিত ।
    ইতি শ্রীমৎপরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়াণাং পরমবিদুষাং শ্রীয়ুতবিরজানন্দসরস্বতীস্বামিনাং শিষ্যেণ পরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়েণ শ্রীমদ্দয়ানন্দসরস্বতীস্বামিনা নির্মিতে সুপ্রমাণয়ুক্তে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে
    য়জুর্বেদভাষ্যে ত্রিংশোऽধ্যায়ঃ পূর্ত্তিমগমৎ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অথৈ॒তান॒ষ্টৌ বিরূ॑পা॒না ল॑ভ॒তেऽতি॑দীর্ঘং॒ চাতি॑হ্রস্বং॒ চাতি॑স্থূলং॒ চাতি॑কৃশং॒ চাতি॑শুক্লং॒ চাতি॑কৃষ্ণং॒ চাতি॑কুল্বং॒ চাতি॑লোমশং চ । অশূ॑দ্রা॒ऽঅব্রা॑হ্মণা॒স্তে প্রা॑জাপ॒ত্যাঃ । মা॒গ॒ধঃ পুঁ॑শ্চ॒লী কি॑ত॒বঃ ক্লী॒বোऽশূ॑দ্রা॒ऽঅব্রা॑হ্মণা॒স্তে প্রা॑জাপ॒ত্যাঃ ॥ ২২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অথৈতানিত্যস্য নারায়ণ ঋষিঃ । রাজেশ্বরৌ দেবতে । নিচৃৎকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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