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यजुर्वेद अध्याय - 30

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  • यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
    4

    वि॒भ॒क्तार॑ꣳ हवामहे॒ वसो॑श्चि॒त्रस्य॒ राध॑सः। स॒वि॒तारं॑ नृ॒चक्ष॑सम्॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒भ॒क्तार॒मिति॑ विऽभ॒क्तार॑म्। ह॒वा॒म॒हे॒। वसोः॑। चि॒त्रस्य॑। राध॑सः। स॒वि॒तार॑म्। नृ॒चक्ष॑स॒मिति॑ नृ॒ऽचक्ष॑सम् ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विभक्तारँ हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः । सवितारन्नृचक्षसम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विभक्तारमिति विऽभक्तारम्। हवामहे। वसोः। चित्रस्य। राधसः। सवितारम्। नृचक्षसमिति नृऽचक्षसम्॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 30; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यं वसोश्चित्रस्य राधसो विभक्तारं सवितारं नृचक्षसं वयं हवामहे, तं यूयमप्याह्वयत॥४॥

    पदार्थः

    (विभक्तारम्) विभाजयितारम् (हवामहे) प्रशंसेम (वसोः) सुखानां वासहेतोः (चित्रस्य) अद्भुतस्य (राधसः) धनस्य (सवितारम्) जनयितारम् (नृचक्षसम्) नृणां द्रष्टारं परमात्मानम्॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन्! यथा परमेश्वरः स्वस्वकर्मानुकूलं सर्वजीवेभ्यः फलं ददाति, तथा भवानपि ददातु। यथा जगदीश्वरो यादृशं यस्य कर्म पापं पुण्यं यावच्चाऽस्ति, तावदेव तादृशं तस्मै ददाति, तथा त्वमपि। यस्य यावद्वस्तु यादृशं कर्म च तावत्तादृशं च तस्मै देहि। यथा परमेश्वरः पक्षपातं विहाय सर्वेषु जीवेषु वर्त्तते, तथा त्वमपि भव॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जिस (वसोः) सुखों के निवास के हेतु (चित्रस्य) आश्चर्यस्वरूप (राधसः) धन का (विभक्तारम्) विभाग करने हारे (सवितारम्) सब के उत्पादक (नृचक्षसम्) सब मनुष्यों के अन्तर्यामि स्वरूप से सब कामों के देखनेहारे परमात्मा की हम लोग (हवामहे) प्रशंसा करें, उसकी तुम लोग भी प्रशंसा करो॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन्! जैसे परमेश्वर अपने-अपने कर्मों के अनुकूल सब जीवों को फल देता है, वैसे आप भी देओ। जैसे जगदीश्वर जैसा जिस का पाप व पुण्यरूप जितना कर्म है, उतना वैसा फल उस के लिए देता, वैसे आप भी। जिसका जैसा वस्तु वा जितना कर्म है, उस को वैसा वा उतना फल दीजिए। जैसे परमेश्वर पक्षपात को छोड़ के सब जीवों में वर्त्तता है, वैसे आप भी हूजिए॥४॥

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    विषय

    अद्भुत ऐश्वर्य के विभाजक परमेश्वर और सर्वशासक राजा की स्तुति ।

    भावार्थ

    ( चित्रस्य) विचित्र, (वसोः) इस पृथ्वी पर बसने वाले चरा- चर जीव संसार के बसाने वाले प्रभु के ( राधसः) धन के ( विभक्तारम् ) विभाग करने वाले, उनको नाना वर्गों, श्रेणियों और कर्मों में विभक्त करने वाले, (नृचक्षसम् ) सब मनुष्यों के द्रष्टा, सर्वसाक्षी, ( सवितारम् ) सर्वोत्पादक, परमेश्वर और सर्वप्रेरक 'सविता' नाम विद्वान् और परमेश्वरकी (हवामहे) हम स्तुति करते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिर्ऋषिः । सविता देवता । गायत्री । षड्जः ॥

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    विषय

    वसु-विभाग [Distribution of Wealth ]

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में प्रार्थित दुरितों को दूर करने व भद्र के प्रापण का प्रकार यह है कि प्रभु धन का विभाग करते हैं। उस धन के केन्द्रित होने पर ही दोष उत्पन्न होते हैं। मनुष्य भी नासमझी व स्वार्थपरता के कारण धन पर केन्द्रित होने लगता है और सारा सामाजिक शरीर अस्वस्थ हो जाता है। २. अतः मन्त्र में कहते हैं कि हम (वसोः) = निवास के लिए आवश्यक धन के (विभक्तारम्) = विभागपूर्वक देनेवाले प्रभु को (हवामहे) = पुकारते हैं, अर्थात् हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि वे हममें सदा उचित धन-विभाग की व्यवस्था किये रक्खें। हमारे राष्ट्र के राजा आदि को प्रभु की ऐसी प्रेरणा मिले कि वे प्रजा में धन को कहीं केन्द्रित न होने दें । ३. यह धन जहाँ [क] (वसु) = निवास के लिए आवश्यक साधनों का प्रापक है, वहाँ [ख] (चित्रस्य) = [चित्र] यह ज्ञान देनेवाला है, इसके द्वारा हम ज्ञानवर्धक ग्रन्थों का संग्रह कर पाते हैं। इस धन को हम सदा साधन के रूप में देखते हैं। यह साध्य बनकर हमें अभिभूत करके उल्लू नहीं बना देता। साथ ही [ ग ] (राधसः) = [ राध संसिद्धौ ] यह धन हमारे कार्यों का साधक है। यह धन कार्यों में सफलता प्राप्त करानेवाला है। यह स्पष्ट है कि इतना ही धन ठीक है जो 'वसु + चित्र व राधस्' है। ३. हम उस प्रभु को पुकारते हैं जो (सवितारम्) = सकल जगदुत्पादक हैं, वस्तुतः हमें भी उत्पादन करके ही धनार्जन करना चाहिए। ५. (नृचक्षसम्) = वे प्रभु सब मनुष्यों को देखनेवाले हैं [चक्षू = To look after ] हम भी सभी को देखनेवाले बनें, सभी का ध्यान करें। जब हम स्वार्थी बन जाते हैं तभी धन के केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु धन का विभाग करते हैं। यदि धन एक स्थान पर केन्द्रित होने लगता है तो दुरितों की वृद्धि हो जाती है, अतः 'मेधातिथि' समझदारी से चलनेवाला, धन को केन्द्रित नहीं होने देता।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! परमेश्वर जसा सर्व जीवांना आपापल्या कर्मानुसार फळ देतो तसे तूही दे. ज्याचे पाप किंवा पुण्य जितके असेल तितके परमेश्वर त्याला फळ देते एवढेच नव्हे, तर ज्याची वस्तूू किंवा कर्म जेवढे असेल तेवढेच तो त्याला देतो, तसेच तूही कर. परमेश्वर जसा भेदभाव न करता सर्व जीवांशी वागतो तसे तूही वाग.

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    विषय

    पुन्हा, त्याच विषयी-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (वसोः) जो जीवनात सुखांची स्थापना करणारा आहे (चित्रस्य) आश्‍चर्यरूप असून जो (राधसः) धनाचा (विभक्तारम्) विभाग करणारा (सर्वांना ज्याच्या त्याच्या कर्माप्रमाणे धन संपत्ती देणारा) परमेश्‍वर आहे, त्या (सवितारम्) सर्व जगदुत्पादक (नृचक्षसम्) सर्वांचा अंतर्यामी असलेल्या, सर्वांची कर्में पाहणारा जो परमात्मा आहे, त्याची आम्ही (हवामहे) प्रशंसा करतो, स्तुती करतो. लोकहो, आम्हां उपासकांप्रमाणे तुम्हीदेखील त्याची स्तुती करा ॥4॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे राजा, जसा परमेश्‍वर सर्व जीवात्म्यांना ज्याच्या कर्माप्रमाणे फळ देतो, तसे आपणही सर्व प्रजाजनांना यथोचित न्याय द्या. जसा जगदीश्‍वर ज्या त्या जीवाचे पाप अथवा पुण्यकर्म आहे, तेवढेच फळ त्याला देतो, तसे हे राजा, आपणही ज्याचे जसे कर्म वा देय असेल त्याला तसे तेवढेच फळ (पुरस्कार व पदार्थरूपाने) द्या. ज्याप्रमाणे परमेश्‍वर पक्षपात न करता सर्व जीवांशी त्याच्या कर्माप्रमाणे व न्यायाने वागतो, तसे हे राजन्, आपणही व्हा. ॥4॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    We praise God, the Procurer of comforts, the Distributor of wondrous wealth, the Creator, and the Seer of men.

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    Meaning

    We invoke Savita and sing in praise of the ultimate judge and dispenser of the fruits of Karma and giver of the wondrous joys of life, who makes everything possible, who creates all and watches over all (what they are and what they do).

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    Translation

    We invoke the source of light, the divine Creator, bestower of a wonderful home full of wealth and wisdom. (1)

    Notes

    Vibhaktāram, विभज्य दातारं, distributor. Vasoh, of bounty. Rādhasaḥ, of wealth. Citrasya, अद्भुतस्य, of wonderful. Nṛcakṣasam, who observes all men.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যে (বসোঃ) সুখের নিবাস হেতু (চিত্রস্য) আশ্চর্য্যস্বরূপ (রাধসঃ) ধনের (বিভক্তারম্) বিভাগকারী (সবিতারম্) সকলের উৎপাদক (নৃচক্ষসম্) সকল মনুষ্যদিগের অন্তর্য্যামী স্বরূপ হইয়া সকল কর্ম্মকে যিনি দেখেন সেই পরমাত্মার আমরা (হবামহে) প্রশংসা করি, তাহাকে তোমরাও প্রশংসা কর ॥ ৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে রাজন্! যেমন পরমেশ্বর নিজ নিজ কর্ম্মানুযায়ী সকল জীবকে ফল প্রদান করেন তদ্রূপ আপনিও দিন । যেমন জগদীশ্বর যেমন যাহার পাপ বা পুণ্যরূপ যতখানি কর্ম ততখানি তদ্রূপ ফল তাহার জন্য প্রদান করেন সেইরূপ আপনিও যাহার যেমন বস্তু বা যতখানি কর্ম তাহাকে সেইরূপ বা ততখানি ফল দিবেন । যেমন পরমেশ্বর পক্ষপাতিত্ব ত্যাগ করিয়া সকল জীবের সঙ্গে ব্যবহার করেন তদ্রূপ আপনিও হউন ॥ ৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বি॒ভ॒ক্তার॑ꣳ হবামহে॒ বসো॑শ্চি॒ত্রস্য॒ রাধ॑সঃ ।
    স॒বি॒তারং॑ নৃ॒চক্ষ॑সম্ ॥ ৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বিভক্তারমিত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । সবিতা দেবতা । গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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