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यजुर्वेद अध्याय - 35

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  • यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 1
    ऋषिः - आदित्या देवा ऋषयः देवता - पितरो देवताः छन्दः - पिपीलिकामध्या निचृदगायत्री, प्राजापत्या बृहती स्वरः - षड्जः
    10

    अपे॒तो य॑न्तु प॒णयोऽसु॑म्ना देवपी॒ययवः॑।अ॒स्य लो॒कः सु॒ताव॑तःद्युभि॒रहो॑भिर॒क्तुभि॒र्व्यक्तं य॒मो द॑दात्वव॒सान॑मस्मै॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑। इ॒तः। य॒न्तु॒। प॒णयः॑। असु॑म्ना। दे॒व॒पी॒यव॒ इति॑ दे॑वऽपी॒यवः॑। अ॒स्य। लो॒कः। सु॒ताव॑तः। सु॒तव॑त॒ इति॑ सु॒तऽव॑तः ॥ द्युभि॒रिति॒ द्युभिः॑। अहो॑भि॒रित्यहः॑ऽभिः। अ॒क्तुभि॒रित्य॒क्तुऽभिः॑। व्य᳖क्त॒मिति॒ विऽअ॑क्तम्। य॒मः। द॒दा॒तु॒। अ॒व॒सान॒मित्य॑व॒ऽसान॑म्। अ॒स्मै॒ ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपेतो यन्तु पणयो सुम्ना देवपीयवः । अस्य लोकः सुतावतः । द्युभिरहोभिरक्तुभिर्व्यक्तँयमो ददात्ववसानमस्मै ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अप। इतः। यन्तु। पणयः। असुम्ना। देवपीयव इति देवऽपीयवः। अस्य। लोकः। सुतावतः। सुतवत इति सुतऽवतः॥ द्युभिरिति द्युभिः। अहोभिरित्यहःऽभिः। अक्तुभिरित्यक्तुऽभिः। व्यक्तमिति विऽअक्तम्। यमः। ददातु। अवसानमित्यवऽसानम्। अस्मै॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 35; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ व्यवहारजीवयोर्गतिमाह॥

    अन्वयः

    ये देवपीयवः पणयोऽसुम्नाऽन्येभ्यो ददति, त इतोऽपयन्तु लोको यमो द्युभिरहोभिरक्तुभिरस्य सुतावतो जनस्य सम्बन्धिनेऽस्मै व्यक्तमवसानं ददातु॥१॥

    पदार्थः

    (अप) दूरीकरणे (इतः) अस्मात् (यन्तु) गच्छतु (पणयः) व्यवहारिणः (असुम्नाः) असुखानि दुःखानि। सुम्नमिति सुखनामसु पठितम्॥ (निघं॰३।६) (देवपीयवः) ये देवानां द्वेष्टारः (अस्य) (लोकः) दर्शनीयः (सुतावतः) प्रशस्तानि सुतानि वेदविद्वत्प्रेरितानि कर्माणि यस्य तस्य (द्युभिः) प्रकाशमानैः (अहोभिः) दिनैः (अक्तुभिः) रात्रिभिः (व्यक्तम्) प्रसिद्धम् (यमः) यन्ता (ददातु) (अवसानम्) अवकाशम् (अस्मै)॥१॥

    भावार्थः

    य आप्तान् विदुषो द्विषन्ति, ते सद्यो दुःखमाप्नुवन्ति। ये जीवाः शरीरं त्यक्त्वा गच्छन्ति तेभ्यो यथायोग्यमवकाशं दत्त्वा परमेश्वरस्तेषां कर्मानुसारेण सुखदुःखानि ददति॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब व्यवहार और जीव की गति विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    जो (देवपीयवः) विद्वानों के द्वेषी (पणयः) व्यवहारी लोग दूसरों के लिये (असुम्नाः) दुःखों को देते हैं, वे (इतः) यहां से (अप, यन्तु) दूर जावें (लोकः) देखने योग्य (यमः) सबका नियन्ता परमात्मा (द्युभिः) प्रकाशमान (अहोभिः) दिन (अक्तुभिः) और रात्रियों के साथ (अस्य) इस (सुतावतः) वेद वा विद्वानों से प्रेरित प्रशस्त कर्मों वाले जनों के सम्बन्धी (अस्मै) इस मनुष्य के लिये (व्यक्तम्) प्रसिद्ध (अवसानम्) अवकाश को (ददातु) देवे॥१॥

    भावार्थ

    जो लोग आप्त सत्यवादी धर्मात्मा विद्वानों से द्वेष करते, वे शीघ्र ही दुःख को प्राप्त होते हैं। जो जीव शरीर छोड़ के जाते हैं, उनके लिये यथायोग्य अवकाश देकर उनके कर्मानुसार परमेश्वर सुख-दुःख फल देता है॥१॥

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    विषय

    राजा का प्रजा के प्रति कर्तव्य । पक्षान्तर में परमेश्वर की व्यवस्था । किरणों द्वारा जीवों की लोकलोकान्तर में गति।

    भावार्थ

    ( असुम्नाः ) दूसरों को सुख न देने वाले, दुःखदायक, (देवपीयवः) विद्वानों, उत्तम पुरुषों और उत्तम गुणों के नाशक (पणयः) दूसरों के द्रव्य से व्यवहार करने वाले, धूर्त्त पुरुष (इतः) इस राष्ट्र (अप यन्तु) दूर चले जांय । यह (लोकः) लोक, प्रजाजन (सुतावतः) अभिषेक को प्राप्त वा पुत्रादि प्रजा के स्वामी (अस्य) इस राजा के अधीन है । वह ही (यमः) सब राष्ट्र का नियन्ता होकर (द्धुभिः) प्रकाश से युक्त, (अहोभिः अक्तुभिः) दिन और रातों से (व्यक्तम् ) प्रकाशित (अवसानम् ) स्थान (अस्मै ) इस बसने वाले लोक समूह को ( ददातु ) प्रदान करे । परमेश्वर के पक्ष में — दुष्ट पुरुष दूर हों । उत्तम कर्म करने वाले का यह लोक है । सर्वनियन्ता परमेश्वर इस जीव को दिन रात सूर्य चन्द्र नक्षत्रादि से प्रकाशित लोक प्रदान करता है ।

    टिप्पणी

    अथ पितृमेधसम्बन्धिनो मन्त्राः ॥ १ अपेतो । २ द्युभिर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अ० ३५, आदित्या देवाः वा ऋषयः । पितरो देवताः ॥पितरः । १ पिपीलिकामध्या गायत्री । षड्जः ॥ २ प्रजापत्या बृहती । मध्यमः ॥

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    विषय

    सुतावान् का लोक

    पदार्थ

    १. (इतः) = यहाँ से (पणयः) = केवल व्यवहार व व्यापार का ध्यान करनेवाले वणिक् वृत्ति के लोग, जिनका धन ही सब कुछ है, वे (अपयन्तु) = दूर हों। ये लोग (असुम्ना) = [सुम्न=Hymn] प्रभु के स्तवन से रहित होते हैं, [सुम्न - Sacrifice] इनके जीवन में त्याग की वृत्ति नहीं होती। परिणामतः ये (देवपीयवः) = दिव्य गुणों की हिंसा करनेवाले होते हैं। देवत्व का मूल 'देवो दानात्' दान है, दान से पृथक् होकर ये देवत्व की समाप्ति कर डालते हैं। परिणामत: सब आनन्द व सुरक्षा [ सुम्न=Joy, protection] की समाप्ति हो जाती है। यह लोक अयज्ञिय पुरुष के लिए नहीं है यह (लोक:) = लोक तो (अस्य सुतावतः) = इस यज्ञशील पुरुष का है, [सुत: यज्ञ] उस पुरुष का है जो वणिक् वृत्ति का नहीं बनता, जो ('असुम्ना') = प्रभुस्तवन से दूर नहीं हो जाता, त्याग की वृत्ति को नष्ट नहीं कर देता, (देवपीयु) = दिव्यगुणों की समाप्ति कर देनेवाला नहीं हो जाता। जब लोग 'परिग्रह को छोड़कर प्रभुप्रवण, त्यागशील बनकर देवत्व की वृद्धि करते हुए यज्ञमय जीवन बनाएँगे तभी यह लोक उनके लिए समृद्ध हो पाएगा। २. (अस्मै) = इस यज्ञशील पुरुष के लिए (यमः) = वे सर्वनियन्ता प्रभु (अवसानम्) = [Residence = जगह, अवकाश] घर को (ददातु) = दें। जो घर (द्युभिः) = प्रकाशमय (अहोभिः) = दिनों तथा (अक्तुभिः) = रात्रियों से (व्यक्तम्) = विशेषरूप से कान्तिमय हो। जिस घर में दिन शास्त्रों के स्वध्याय से प्रारम्भ होने के कारण प्रकाशमय हो तथा रात्रि भी इतिहास व महापुरुषों के जीवन चरित्रों के श्रवण से ज्योतिर्मय हो, अर्थात् प्रातः शास्त्रीय अध्ययन और सायं इतिहास- श्रवण इस घर की शोभा को बढ़ानेवाला हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- जो व्यक्ति [क] पणिवृत्ति से दूर रहते हैं, [ख] प्रभु-स्तवन को अपनाते हैं, [ग] देवत्व की वृद्धि के लिए प्रयत्नशील होते हैं, [घ] जो दिन व रात्रि को स्वाध्याय से ज्योतिर्मय बनाये रखते हैं, ये लोग उत्तमताओं का निरन्तर आदान करते हुए 'आदित्य' कहलाते है और देवत्व की वृद्धि करने से 'देव' होते हैं। ये 'आदित्या देवाः' ही इन मन्त्रों के (१ से ६ तक) ऋषि हैं। इनके घर कैसे हों।' इस विषय को अगले मन्त्र में देखिए।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे लोक आप्त, सत्यवादी, धर्मात्मा, विद्वानांचा द्वेष करतात. ते लवकरच दुःखी होतात. जे जीव शरीर सोडून जातात. त्यांना परमेश्वर त्यााच्या कमानुसार सुख दुःखाचे यथायोग्य फळ देतो.

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    विषय

    आता पस्तीसाव्या अध्यायाचा आरंभ होत आहे.^या पुढील मंत्रात व्यवहार आणि जीव यांच्या विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (देवपीयवः) विद्वानांचा द्वेष करणारे असे (पणयः) जे अति व्यावहारिक (म्हणजे स्वार्थी) लोक (असुम्ना) (विद्वानांना व सज्जनांना) दुःख देतात, (पीडित वा भयभीत करतात) ते (इतः) इथून (या आमच्या सज्जन स्थानापासून) (अप, यन्तु) दूर जावेत. (लोकः) दर्शनीय वा उपासनीय (यमः) सर्व नियन्ता परमेश्‍वरानें (द्युभिः) प्रकाशमान वा निर्भय अशा (अहोभिः) दिनांसह आणि (अस्तुभिः) रात्रींसह (सुतासतः) वेदांविषयी कार्य करणार्‍या अथवा विद्वानांची सेवा यासारख्या श्रेष्ठ कर्में करणार्‍या (अस्य) या मनुष्यासाठी (व्यक्तम्) प्रकट रूपेण (अवसानम्) अवकाश वा (निर्भय) वातावरण आणि शांत परिस्थिती) (ददातु) द्यावी (अशी आम्ही प्रार्थना करीत आहोत)॥1॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे लोक आप्त, सत्यवादी, धर्मात्मा विद्वानांचा द्वेष करतात, ते लवकरच दुःखात सापडतात. तसेच जे जीवाला शरीराचा त्याग करून जातात, त्यांना यथोचित अवकाश वा अवधी देऊन परमेश्‍वर त्या जीवात्म्याच्या कर्मांप्रमाणे त्याना सुख वा दुःख देतो॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Businessmen who torment others, and are inimical to the learned, should get away from here. May the Beautiful God, grant this soul, the singer of vedic hymns, full opportunity for work with the lustre of knowledge during all the days and nights of life.

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    Meaning

    Go off from here the niggards, the malevolent and the revellers of Divinity. This is the beauteous place of the generous and inspired yajamana. May Yama, the leading light and controller of the world, grant him a place of rest and freedom blest by the lights of heaven and by days and nights.

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    Translation

    May the evil bargainers, mischievous and jealous of' the enlightened ones, go away hence. This place belongs to him, who has enjoyed devotional bliss. (1) May the ordainer Lord grant rest to this person in all the seasons day and night. (2)

    Notes

    Paṇiḥ, a trader; a bargainer; later, Vanik; perhaps Phoenicians. Asumnāḥ,असुखकरा:, mischievous. Devapiyavaḥ, jealous of devas (the enlightened ones). Sutāvataḥ, one who has pressed out Soma; also, one who enjoys devotional bliss. Yamaḥ, the ordainer Lord; the controller Lord. Ahobhiḥ aktubhiḥ, by day and by night. A prayer to get rid of evil spirits or neighbours.

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    बंगाली (1)

    विषय

    ॥ ও৩ম্ ॥
    ॥ অথ পঞ্চত্রিংশাধ্যায়ারম্ভঃ ॥
    ওং বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥
    অথ ব্যবহারজীবয়োর্গতিমাহ ॥
    এখন ব্যবহারও জীবের গতি বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যে সব (দেবপীয়বঃ) বিদ্বান্দিগের দ্বেষী (পনয়ঃ) ব্যবহারী লোকেরা অন্যের জন্য (অসুম্না) দুঃখ দিয়া থাকে, তাহারা (ইতঃ) এখান হইতে (অপ), (য়ন্তু) দূরে যাউক (লোকঃ) দেখিবার যোগ্য (য়মঃ) সকলের নিয়ন্তা পরমাত্মা (দ্যুভিঃ) প্রকাশমান (অহোভিঃ) দিন (অক্তুভিঃ) এবং রাত্রিসমূূহের সঙ্গে (অস্য) এই (সুতাবতঃ) বেদ বা বিদ্বান্দিগের দ্বারা প্রেরিত প্রশস্ত কর্ম্মযুক্ত লোকসম্পর্কীয় (অস্মৈ) এই মনুষ্যের জন্য (ব্যক্তম্) প্রসিদ্ধ (অবসানম্) অবকাশকে (দদাতু) দিবেন ॥ ১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যাহারা আপ্ত সত্যবাদী ধর্মাত্মা বিদ্বান্দিগের সহ দ্বেষ করে তাহারা শীঘ্রই দুঃখকে প্রাপ্ত হয় । যে সব জীব শরীর ত্যাগ করিয়া চলিয়া যায় তাহাদের জন্য যথাযোগ্য অবকাশ দিয়া তাহাদের কর্ম্মানুসারে পরমেশ্বর সুখ-দুঃখ ফল দান করেন ॥ ১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অপে॒তো য়॑ন্তু প॒ণয়োऽসু॑ম্না দেবপী॒য়বঃ॑ । অ॒স্য লো॒কঃ সু॒তাব॑তঃ । দ্যুভি॒রহো॑ভির॒ক্তুভি॒র্ব্য᳖ক্তং য়॒মো দ॑দাত্বব॒সান॑মস্মৈ ॥ ১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অপেত্যস্য আদিত্যা দেবা ঋষয়ঃ । পিতরো দেবতাঃ । পূর্বস্য পিপীলিকামধ্যা
    নিচৃদ্ গায়ত্রী ছন্দঃ । দ্যুভিরিত্যুত্তরস্য প্রাজাপত্যা বৃহতী ছন্দঃ ।
    ষড্জমধ্যমৌ স্বরৌ ॥

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