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यजुर्वेद अध्याय - 35

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  • यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 6
    ऋषिः - सड्कसुक ऋषिः देवता - यमो देवता छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः
    8

    प्र॒जाप॑तौ त्वा दे॒वता॑या॒मुपो॑दके लो॒के नि द॑धाम्यसौ।अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम्॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒जाप॑ता॒विति॑ प्र॒जाऽप॑तौ। त्वा॒। दे॒वता॑याम्। उपो॑दक॒ इत्युप॑ऽउदके। लो॒के। नि। द॒धा॒मि॒। अ॒सौ॒ ॥ अप॑। नः॒। शोशु॑चत्। अ॒घम् ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रजापतौ त्वा देवतायामुपोदके लोके निदधाम्यसौ । अप नः शोशुचदघम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रजापताविति प्रजाऽपतौ। त्वा। देवतायाम्। उपोदक इत्युपऽउदके। लोके। नि। दधामि। असौ॥ अप। नः। शोशुचत्। अघम्॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 35; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    ईश्वरोपासनाविषयमाह॥

    अन्वयः

    हे जीव! योऽसौ नोऽघमपशोशुचत् तस्यां प्रजापतौ देवतायामुपोदके लोके च त्वा नि दधामि॥६॥

    पदार्थः

    (प्रजापतौ) प्रजायाः पालके परमेश्वरे (त्वा) त्वाम् (देवतायाम्) पूजनीयायाम् (उपोदके) उपगतान्युदकानि यस्मिंस्तस्मिन् (लोके) दर्शनीये (नि) (दधामि) (असौ) (अप) (नः) अस्माकम् (शोशुचत्) भृशं शोषयतु (अघम्) पापम्॥६॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! यो जगदीश्वर उपासितः सन् पापाचरणात् पृथक् कारयति, तस्मिन्नेव भक्तिकरणाय युष्मानहं स्थिरीकरोमि, येन सदैव यूयं श्रेष्ठं सुखदर्शनं प्राप्नुयात॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    ईश्वर की उपासना का विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे जीव! जो (असौ) यह लोक (नः) हमारे (अघम्) पाप को (अप, शोशुचत्) शीघ्र सुखा देवे, उस (प्रजापतौ) प्रजा के रक्षक (देवतायाम्) पूजनीय परमेश्वर में तथा (उपोदके) उपगत समीपस्थ उदक जिसमें हों (लोके) दर्शनीय स्थान में (त्वा) आप को (नि दधामि) निरन्तर धारण करता हूं॥६॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! जो जगदीश्वर उपासना किया हुआ पापाचरण से पृथक् कराता है, उसी में भक्ति करने के लिये तुमको मैं स्थिर करता हूं, जिससे सदैव तुम लोग श्रेष्ठ सुख के देखने को प्राप्त होओ॥६॥

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    विषय

    प्रजापति के कर्म

    भावार्थ

    हे (असौ) पुरुष प्रजाजन ! (त्वा ) तुझको मैं ( जापतौ ) प्रजा के पालक राजा के अधीन (उप-उदके लोके ) पानी के समीप स्थित प्रदेश में (निदधामि ) नियत रूप से स्थापित करता हूँ। वह प्रजापालक राजा ही (नः) हमारे (अघम् ) पापाचरण, परस्पर घात प्रतिघात आदि को (नः) हममें से ( अप शोशुचत् ) मल को अग्नि से जलाकर नष्ट कर देने के समान दूर कर शुद्ध करे । (२) हे जीव ! जलादि जीवनोपयोगी लोक में मैं तुझे स्थापित करता हूँ । उस परमेश्वर के अधीन तू रह, हमारे पापों को दग्ध करे, दूर करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिः । उष्णिक् । ऋषभः ॥

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    विषय

    रहने योग्य लोक

    पदार्थ

    पिछले मन्त्र में 'शान्त जीवन' का संकेत किया है। जीवन में अशान्ति के तीन बड़े-बड़े कारण हैं १. राष्ट्र में अराजकता हो, मात्स्य न्याय चल रहा हो, 'शक्ति ही अधिकार है' Might is right इस सिद्धान्त को लेकर बलवान् निर्बल को ग्रस रहे हों । २. जहाँ हम रहते हैं उसके आस-पास आसुरवृत्ति के लोगों का निवास हो, परस्पर झगड़नेवाले लोग वहाँ रहते हों, उनका शोर सारे वातावरण को क्षुब्ध किये रक्खे। ३. तीसरी बात यह कि आस-पास पानी सुलभ न हो। अन्न तो कई दिनों के लिए संग्रह करके भी रक्खा जा सकता है, परन्तु पानी के लिए ऐसी बात नहीं है और पानी की आवश्यकता पग-पग पर बनी रहती है, यह जन्म से लय तक उपयुक्त होने से ही 'जल' कहलाया है। अशान्ति के इन तीन कारणों को दूर करना आवश्यक है, अतः मन्त्र में प्रभु कहते हैं कि (त्वा) = तुझे (लोके) = उस लोक में (निदधामि) = रखता हूँ जो ४. [क] (प्रजापतौ) = प्रजापतिवाला है, अर्थात् जिसमें प्रजा का रक्षक राजा विद्यमान है। राजा है और वह प्रजा का रक्षक है, अतः इस लोक में किसी प्रकार की अराजकता का भय नहीं। [ख] (देवतायाम्) = जो देवताओंवाला है। जिस लोक में देववृत्ति के लोग रहते हैं। ये किसी के साथ शुष्क वैर-विवाद नहीं करते, परस्पर मिलकर चलते हैं, अतः इनका प्रेम सारे वातावरण को बड़ा स्निग्ध बना देता है। [ग] (उपोदके) = जो समीप पानीवाला है। यह नदी के किनारे स्थित है, अतः पानी के अकाल का यहाँ भय नहीं है। वर्षा भी यहाँ न होती हो वह बात भी नहीं । कुओं का पानी भी बहुत गहरा न होकर समीप ही है [उप + उदक], एवं, प्रभु ने रहने योग्य लोक का तीन शब्दों में उल्लेख किया है ऐसे ही लोक की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हुए मन्त्र के ऋषि 'आदित्यदेव' प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि (असौ) - [लोक: ] वह लोक (नः) = हमारे (अघम्) = पापों व शोकों [Sins and griefs], को, दौर्भाग्यों [Mishap] को, अपवित्रताओं [Impurity], वासनाओं व पीड़ाओं [pains] को (अप) = दूर ले जाकर (शोशुचत्) = [ शुच - to burn, consume] अच्छी प्रकार जला दे, भस्म कर दे और इस प्रकार हमारे जीवनों को धार्मिक, प्रसादपूर्ण, सौभाग्यशाली, पवित्र, वासनाओं से ऊपर उठा हुआ और कल्याणमय बना दे।

    भावार्थ

    भावार्थ-' आदित्यदेव' प्रजापतिवाले, देवताओं के पड़ौसवाले, समीप जलवाले लोक में निवास करते हैं और इस लोक में रहते हुए पापों व पीड़ा से परे हो जाते हैं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! उपासनीय परमेश्वर पापाचरणापासून पृथक करतो, त्याची भक्ती करण्यासाठी मी तुम्हाला स्थिर करतो. ज्यामुळे तुम्ही लोक सदैव श्रेष्ठ सुख भोगू शकाल.

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    विषय

    ईश्‍वराच्या उपासनेविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे जीवात्मा, (असौ) हे इहलोक (नः) आमच्या (अद्यम्) पापाला (अप, शोशुचत्) शीघ्र शोषित वा नष्ट करो. (प्रजापतौ) प्रजेचा, सर्व मानव संतनांचा जो रक्षक (देवतायाम्) पूजनीय, परमेश्‍वराच्या ध्यानात आणि (उपोदके) (जल वा जलाशय ज्या ठिकाणी जवळ आहे अशा (लोके) दर्शनीय मनोरम स्थानात राहण्यासाठी मी (त्वा) हे जीवात्मा, तुला (निदधामि) धारण करीत आहे. (मनोरम नैसर्गिक स्थानात राहून जीवात्म्याने निरंतर ईश्‍वरोपासना करावी, हेच इहलोकाचे परम कर्त्तव्य आहे) ॥6॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे मनुष्यानो, जो जगदीश्‍वरास प्रार्थना केल्यानंतर मनुष्याला पापाचरणापासून दूर ठेवतो, मी (एक ज्येष्ठ उपासक) तुम्हाला त्या ईश्‍वराची भक्ती करण्यासाठी दृढ करीत आहे. यायोगे तुम्ही श्रेष्ठ सुख उपभोगण्यात यशस्वी व्हाल. ॥6॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O soul, May God soon drive away our sin. I establish thee in Him, the protector of men and worthy of worship, near a beautiful place full of water.

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    Meaning

    O soul, I place you securely in the beautiful world close to the sacred waters within the divine Prajapati, father of his children. May He wash off our sins and shine us to brilliance.

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    Translation

    I, so and so, place you at this spot, adjacent to water, under the care of the divine Lord of progeny. May He burn our sins away. (1)

    Notes

    Asau, I, so and so; name of the person reciting this mantra is to be mentioned here. Apa naḥ śośucad agham, may He bum our sins away from us. This line is taken from Rv. I. 97. 1-8.

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    बंगाली (1)

    विषय

    ঈশ্বরোপাসনা বিষয়মাহ ॥
    ঈশ্বরের উপাসনার বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে জীব ! (অসৌ) এই লোক (নঃ) আমাদের (অদ্যম্) পাপকে (অপ) (শোশুচৎ) শীঘ্র শুকাইয়া দিবে সেই (প্রজাপতৌ) প্রজার রক্ষক (দেবতায়াম্) পূজনীয় পরমেশ্বরে তথা (উপোদকে) উপগত সমীপস্থ উদক যাহাতে হয় (লোকে) দর্শনীয় স্থানে (ত্বা) আপনাকে (নি, দধামি) নিরন্তর ধারণ করি ॥ ৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যে জগদীশ্বর উপাসনাকৃত পাপাচরণ হইতে পৃথক করান, তাহাতেই ভক্তি করিবার জন্য তোমাকে আমি স্থির করি যাহাতে সর্বদা তোমরা শ্রেষ্ঠ সুখদর্শন করিতে পার ॥ ৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    প্র॒জাপ॑তৌ ত্বা দে॒বতা॑য়া॒মুপো॑দকে লো॒কে নি দ॑ধাম্যসৌ ।
    অপ॑ নঃ॒ শোশু॑চদ॒ঘম্ ॥ ৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    প্রজাপতাবিত্যস্যাদিত্যা দেবা ঋষয়ঃ । প্রজাপতির্দেবতা । উষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বর ॥

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