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यजुर्वेद अध्याय - 35

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  • यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 4
    ऋषिः - आदित्या देवा वा ऋषयः देवता - वायुसवितारौ देवते छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    5

    अ॒श्व॒त्थे वो॑ नि॒षद॑नं प॒र्णे वो॑ वस॒तिष्कृ॒ता।गो॒भाज॒ऽइत्किला॑सथ॒ यत्स॒नव॑थ॒ पू॑रुषम्॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्व॒त्थे। वः॒। नि॒षद॑नम्। नि॒सद॑न॒मिति॑ नि॒ऽसद॑नम्। प॒र्णे। वः॒। व॒स॒तिः। कृ॒ता ॥ गो॒भाज॒ इति॑ गो॒ऽभाजः॑। इ॒त्। किल॑। अ॒स॒थ॒। यत्। स॒नव॑थ। पूरु॑षम्। पुरु॑ष॒मिति॒ पुरु॑षम् ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वत्थे वो निषदनम्पर्णे वो वसतिष्कृता । गोभाजऽइत्किलासथ यत्सनवथ पूरुषम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वत्थे। वः। निषदनम्। निसदनमिति निऽसदनम्। पर्णे। वः। वसतिः। कृता॥ गोभाज इति गोऽभाजः। इत्। किल। असथ। यत्। सनवथ। पूरुषम्। पुरुषमिति पुरुषम्॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 35; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे जीवा! येन जगदीश्वरेणाश्वत्थे वो निषदनं कृतं पर्णे वो वसतिः कृता। यत्पूरुषं किल सनवथ तेन सह गोभाज इद्यूयं प्रयत्नेन धर्मेऽसथ॥४॥

    पदार्थः

    (अश्वत्थे) श्वः स्थास्यति न स्थास्यति वा तस्मिन्ननित्ये संसारे (वः) युष्माकम् (निषदनम्) स्थापनम् (पर्णे) पर्णवच्चञ्चले जीवने (वः) युष्माकम् (वसतिः) निवसतिः (कृता) (गोभाजः) ये गाः पृथिवीं वाचमिन्द्रियाणि किरणान् वा भजन्ति ते (इत्) एव (किल) (असथ) भवथ (यत्) (सनवथ) सेवध्वम् (पूरुषम्) सर्वत्र पूर्णं परमात्मानम्॥४॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरनित्ये संसारेऽनित्यानि शरीराणि पदार्थांश्च प्राप्य क्षणभङ्गुरे जीवने धर्माचरणेन नित्यं परमात्मानमुपास्याऽऽत्मपरमात्मसंयोगजं नित्यं सुखं प्रापणीयम्॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे जीवो! जिस जगदीश्वर ने (अश्वत्थे) कल ठहेरगा वा नहीं ऐसे अनित्य संसार में (वः) तुम लोगों की (निषदनम्) स्थिति की (पर्णे) पत्ते के तुल्य चञ्चल जीवन में (वः) तुम्हारा (वसतिः) निवास (कृता) किया। (यत्) जिस (पूरुषम्) सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा को (किल) ही (सनवथ) सेवन करो, उसके साथ (गोभाजः) पृथिवी, वाणी, इन्द्रिय वा किरणों का सेवन करनेवाले (इत्) ही तुम लोग प्रयत्न के साथ धर्म में स्थिर (असथ) होओ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि अनित्य संसार में अनित्य शरीरों और पदार्थों को प्राप्त हो के क्षणभङ्गुर जीवन में धर्माचरण के साथ नित्य परमात्मा की उपासना कर आत्मा और परमात्मा के संयोग से उत्पन्न हुए नित्य सुख को प्राप्त हों॥४॥

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    विषय

    प्रजाओं को आदेश । उत्पादक पिता और सविता के कर्म ।

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! क्योंकि ( वः ) आप लोगों का ( नि- सदनम् ) नियम में रहना ( अश्वत्थे ) अश्वारूढ़ सावधान, क्षत्रिय राजा के अधीन है और (वः वसतिः) आप लोगों का निवासस्थान भी (पर्णे) पालन करने हारे राजा के अधीन (कृतः ) किया गया है, अतः (यत्) जब ( पुरुषम् ) अपने गुरु या अध्यक्ष राजा को (सनवथ ) उसका भाग दे चुको तो आप लोग (गोभाजः) पृथिवी की उपज और वेद वाणी का सेवन करने वाले ( इत् ) ही होकर (किल) निश्चय से (असथ) रहो । व्याख्या देखो भ० ११।७९॥ (२) परमेश्वर के पक्ष में- हे जीवो ! तुम लोगों की स्थिति (अश्वत्थे) कल तक भी स्थिर न रहने वाले, अनित्य और (पर्णे) पत्ते के समान चञ्चल संसार में है । इसलिये (यत्) जब तुम ( पुरुषम् सनवथ ) परमेश्वर की उपासना करो तो (गोभाजः इकिल असथ) वेदवाणी, इन्द्रिय, किरण आदि का सेवन करने वाले ज्ञानवान्, भोगवान् होवो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वायुः सविता च । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    विषय

    एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपदेश

    पदार्थ

    दूसरे व तीसरे मन्त्र में वर्णित स्वास्थ्यप्रद घरों में निवास करते हुए हम संसार की वास्तविकता को कभी भूल न जाएँ। यह नश्वर है, परन्तु जब हम नश्वरता को भूल जाते हैं तब प्राय: हमारा जीवन विषयासक्त होकर पतन की ओर चला जाता है, अतः प्रभु कहते हैं कि १. (वः) = तुम्हारा (निषदनम्) = बैठना, रहना (अश्वत्थे) = [ न श्वः तिष्ठति] कल ही न रहनेवाले, अर्थात् नश्वर संसार में है। इस संसार में तुम्हें सदा नहीं रहना । इस नश्वरता को तुम न भूलोगे तो इस शरीर में भी तुम्हें बहुत आसक्ति न होगी। इसकी रक्षा के लिए तुम औरों का घात-पात न करोगे । २. मैंने (वः) = तुम्हारा (वसतिः) = निवास (पर्णे कृता) = इन पत्तों पर किया है। तुम्हें इन वनस्पतियों का ही प्रयोग करना है, मांस का नहीं। ३. तुम जिह्वा के स्वादों में न पड़कर किल-निश्चय से (गोभाजः इत्) = वेदवाणियों के सेवन करनेवाले ही (असथ) = होओ। तुम्हारा जीवन भोगप्रधान न बनकर ज्ञानप्रधान बने। ४. (यत्) = जिससे तुम (पूरुषम्) = उस संसार नगरी में शयन करनेवाले पुरुष- प्रभु को (सनवथ) = प्राप्त करो। 'प्रभु को प्राप्त करना' ही मानव जीवन का वास्तविक लक्ष्य है। इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए आवश्यक है कि हमारी बुद्धि शुद्ध व सात्त्विक बने । बुद्धि की सात्त्विकता के लिए भोजन का सात्त्विक होना आवश्यक है, अतः मांसरूप राजस् व तामस् भोजन को तो छोड़ना ही होगा। हम इस भोजन के स्वाद से ऊपर उठने के लिए संसार की नश्वरता व शरीर के अस्थायित्व को भूल न जाएँ। ये न भूलनेवाले ही ठीक मार्ग पर चलते हुए, अच्छाइयों का ग्रहण करनेवाले 'आदित्य व देव' बन पाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-संसार नश्वर है, मांस खाना हमें जीवन व स्वाद में आसक्त करता है, अतः इसे छोड़कर वेदवाणियों का सेवन करें और प्रभु को प्राप्त करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी अनित्य संसारात शरीर व पदार्थ प्राप्त झाल्यानंतर धर्माचरणाने या क्षणभंगूर जीवनात नित्य परमेश्वराची उपासना करावी व आत्मा आणि परमात्मा यांच्या संयोगाने उत्पन्न झालेले नित्य सुख भोगावे.

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    विषय

    मनुष्यांनी काय मेले पाहिजे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे जीवात्मानो, (लक्षात असू द्या की) जगदीश्‍वराने (अश्‍वत्थे) उद्या राहणार वा नाही, अशा अनित्य जगात (वः) तुमची (निषदनम्) स्थिती (पर्णे) वृक्षाच्या पानाप्रमाणे चंचल असलेल्या या जीवनात (वः) तुमचे (वसतिः) निवासस्थान (कृता) केले आहे (ज्याप्रमाणे वृक्षावरील पानाची दशा की ते कधी गळून पडेल, याचा नेम नाही, तद्वत हे शरीर नश्‍वर वा क्षणिक आहे. पिंपळाच्या वृक्षाप्रमाणे या जगातील पदार्थ ही चंचल, अस्थिर व नाशवान आहेत) त्यामुळे तुम्ही (यत्) ज्या वा त्या (पूरुषम्) सर्वत्र परिपूर्ण पुरुष परमेश्‍वराचाच (सनवथ) आधार घ्या आणि त्याच्यासह (गोभाजः) पृथ्वी, वाणी, इंद्रियें अथवा किरणांचे सेवन करणारे (इत्) होऊनच तुम्ही यत्न करीत धर्मात स्थिरपणे (असथ) राहणारे व्हा. ॥4॥

    भावार्थ

    भावार्थ - त्याने मनुष्य या अनित्य जगात अनित्य शरीर आणि अनित्य पदार्थ प्राप्त करतो, पण त्याने या क्षणभंगुर जीवनात धर्माचरण करीत नित्य अशा परमेश्‍वराची उपासना अवश्य करावी. अशाप्रकारे मनुष्यांना आत्मा आणि परमात्म्याच्या संयोगामुळे उत्पन्न होणारा आनंद अनुभवता येईल. ॥4॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    souls, God has placed ye in this ephemeral world, and made your mansion in this life, ever changing like a leaf. Worship the Perfect God alone. Through His grace, establish yourself laboriously in religion, and acquire worldly possessions, vedic lore and control over passions.

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    Meaning

    Short is your stay in a temporary world. Your nest is built but on a leaf. Live here as co-sharers of existence with the earth, the senses, the sun-beams and the divine Word, and abide in worship close to the eternal Spirit of the universe.

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    Translation

    Your abode is on the holy fig tree; and on parna (Butea frondosa) is your residence. You have been sent to the earth, so that you may serve (sick) men. (1)

    Notes

    Same as Yv. XII. 79. There it refers to parasite plants that grow upon other trees. Aśvattha, the holy fig tree (Pīpala). Ficus Religiosa. Parna, पलाश, forest flame tree. Butea Frondosa.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যৈঃ কিং কর্ত্তব্যমিত্যাহ ॥
    পুনঃ মনুষ্যদিগকে কী করা উচিত, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে জীবগণ ! যে জগদীশ্বর (অশ্বত্থে) আগামী কাল স্থায়ী হইবে কিনা এমন অনিত্য সংসারে (বঃ) তোমাদিগের (নিষদনম্) স্থিতির (পর্ণে) পর্ণতুল্য চঞ্চল জীবনে (বঃ) তোমরা (বসতিঃ) নিবাস (কৃতা) করিয়াছ (য়ৎ) যে (পূরুষম্) সর্বত্র পরিপূর্ণ পরমাত্মাকে (কিল)(সনবথ) সেবন কর তৎসহ (গোভাজঃ) পৃথিবী, বাণী ইন্দ্রিয় বা কিরণসমূহের সেবন কারী (ইৎ) ই তোমরা প্রযত্ন সহ ধর্মে স্থির (অসথ) হও ॥ ৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, অনিত্য সংসারে অনিত্য শরীর ও পদার্থ প্রাপ্ত হইয়া ক্ষণভঙ্গুর জীবনে ধর্মাচরণ সহ নিত্য পরমাত্মার উপাসনা করিয়া আত্মা ও পরমাত্মা সংযোগে উৎপন্ন নিত্য সুখ প্রাপ্ত হও ॥ ৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒শ্ব॒ত্থে বো॑ নি॒ষদ॑নং প॒র্ণে বো॑ বস॒তিষ্কৃ॒তা ।
    গো॒ভাজ॒ऽইৎকিলা॑সথ॒ য়ৎস॒নব॑থ॒ পূর॑ুষম্ ॥ ৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অশ্বত্থ ইত্যস্য আদিত্যা দেবা ঋষয়ঃ । বায়ুঃ সবিতা চ দেবতে । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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