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यजुर्वेद अध्याय - 35

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  • यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 10
    ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः देवता - आपो देवताः छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    3

    अश्म॑न्वती रीयते॒ सꣳर॑भध्व॒मुत्ति॑ष्ठत॒ प्र त॑रता सखायः।अत्रा॑ जही॒मोऽशि॑वा॒ येऽ अस॑ञ्छि॒वान्व॒यमुत्त॑रेमा॒भि वाजा॑न्॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्म॑न्व॒तीत्यश्म॑न्ऽवती। री॒य॒ते॒। सम्। र॒भ॒ध्व॒म्। उत्। ति॒ष्ठ॒त॒। प्र। त॒र॒त॒। स॒खा॒यः॒ ॥अत्र॑। ज॒ही॒मः॒। अशि॑वाः। ये। अस॑न्। शि॒वान्। व॒यम्। उत्। त॒रे॒म॒। अ॒भि। वाजा॑न् ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्मन्वती रीयते सँ रभध्वमुत्तिष्ठत प्र तरता सखायः । अत्र जहीमो शिवा येऽअसञ्छिवान्वयमुत्तरेमाभि वाजान् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्मन्वतीत्यश्मन्ऽवती। रीयते। सम्। रभध्वम्। उत्। तिष्ठत। प्र। तरत। सखायः॥अत्र। जहीमः। अशिवाः। ये। असन्। शिवान्। वयम्। उत्। तरेम। अभि। वाजान्॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 35; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    के दुःखात् तरन्तीत्याह॥

    अन्वयः

    हे सखायो! याऽश्मन्वती रीयते तया वयं येऽत्राशिवा असँस्तान् जहीमः, शिवान् वाजानभ्युत्तरेम तथा यूयं सरंभध्वमुत्तिष्ठत प्रतरत च॥१०॥

    पदार्थः

    (अश्मन्वती) बहवोऽश्मानो मेघाः पाषाणा वा विद्यन्ते यस्यां सृष्टौ नद्यां वा सा (रीयते) गच्छति (सम्) सम्यक् (रभध्वम्) प्रारम्भं कुरुत (उत्) (तिष्ठत) उद्यता भवत (प्र) (तरत) दुःखान्युल्लङ्घयत। अत्र संहितायाम् [अ॰६.३.११४] इति दीर्घः। (सखायः) सुहृदः सन्तः (अत्र) अस्मिन् संसारे समये वा। अत्र निपातस्य च [अ॰६.३.१३६] इति दीर्घः। (जहीमः) त्यजामः (अशिवाः) अकल्याणकराः (ये) (असन्) सन्ति (शिवान्) सुखकरान् (वयम्) (उत्) (तरेम) उल्लङ्घयेम (अभि) (वाजान्) अत्युत्तमानन्नादिभोगान्॥१०॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या बृहत्या नौकया समुद्रमिवाऽशुभाचरणानि दुष्टांश्च तीर्त्वा प्रयत्नेनोद्यमिनो भूत्वा मङ्गलान्याचरेयुस्ते दुःखसागरं सहजतः सन्तरेयुः॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    कौन लोग दुःख के पार होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (सखायः) मित्रो! जो (अश्मन्वती) बहुत मेघों वा पत्थरोंवाली सृष्टि वा नदी प्रवाह से (रीयते) चलती है उसके साथ जैसे (वयम्) हम लोग (ये) जो (अत्र) इस जगत् में वा समय में (अशिवाः) अकल्याणकारी (असन्) हैं, उनको (जहीमः) छोड़ते हैं तथा (शिवान्) सुखकारी (वाजान्) अत्युत्तम अन्नादि के भागों को (अभि, उत्, तरेम) सब ओर से पार करें अर्थात् भोग चुकें वैसे तुम लोग (संरभध्वम्) सम्यक् आरम्भ करो (उत्तिष्ठत) उद्यत होओ और (प्रतरत) दुःखों का उल्लङ्घन करो॥१०॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य बड़ी नौका से समुद्र के जैसे पार हों, वैसे अशुभ आचरणों और दुष्ट जनों के पार हो प्रयत्न के साथ उद्यमी होके मङ्गलकारी आचरण करें, वे सहज से दुःखसागर के पार होवें॥१०॥

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    विषय

    पापनाश ।

    भावार्थ

    हे (सखायः) मित्र जनो ! ( अश्मन्वती) पत्थरों से भरी हुई नदी (रीयते) जा रही हो तो ( सं रभध्वम् ) उसको पार करने के लिये तैयारी करते (उत् तिष्ठत) उठ खड़े होवो और (प्रतरत) उसको अच्छी प्रकार पार करो ( अत्र ) उसमें ही ( ये अशिवाः असन् ) जो असुखकर, दुखदायी मल हों उनको हम ( जहीमः ) त्याग देते और ( वयम् ) हम (वाजान् ) अन्नादि ग्राह्य पदार्थों को नदी से (उत् तरेम ) उत्तम रीति से प्राप्त करें । उसी प्रकार (अश्मन्वती रीयते) शस्त्रों से युक्त यह सेना चल रही है । ( संरभध्वम् ) शत्रुविजय का उद्योग करो। (उत तिष्ठत) उठो, ( प्र तरत) आगे बढ़ो । (अत्र) इस संग्राम में (ये अशिवाः असन् ) जो हमारे कल्याणकर शत्रु हैं उनको (जहीमः) त्याग दें और ( वयम् ) हम (वाजान् अभि) संग्रामों और ऐश्वर्यों को (उत् तरेम) उत्तम रीति से प्राप्त करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुचीकः । विश्वेदेवाः । निचृत् । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    अश्मन्वती नदी का सन्तरण

    पदार्थ

    १. यह संसार एक नदी के समान है, जिसमें नानाविध प्रलोभन नुकीले पत्थरों के समान है। यह (अश्मन्वती) = प्रलोभनमय पाषाणोंवाली संसार नदी (रीयते) = तीव्र गति से चल रही है। इसको हमें पार करना है, इस संसार - नदी में डूबना नहीं है। प्रभु कहते हैं कि २. (संरभध्वम्) = सम्यक् क्रिया को प्रारम्भ करो। आलसियों की भाँति पड़े न रहो। ३. (उत्तिष्ठत) = उठ खड़े होओ। आलस्य से ऊपर उठकर प्रयत्न करो और ५. (सखायः) = सबके साथ मित्रता के भाव से वर्त्तते हुए (प्रतरत) = इस नदी को तैर जाओ। अकेले व्यक्ति के लिए इस नदी को तैरना कठिन है। कदम-कदम पर विषयों के नुकीले पत्थर शरीर को छलनी कर देनेवाले हैं, ज़रा फिसले कि गये। २. इस नदी को तैर जाने के लिए आवश्यक है कि (अत्र) = यहाँ ही (जहीम:) = हम उन वस्तुओं को छोड़ देते हैं (ये) = जो (अशिवा:) = अमङ्गलकारी (असन्) = हैं। बोझ को लादे तैरना सम्भव नहीं होता । बोझ उन्हीं वस्तुओं का हुआ करता है जो हमारी अङ्गभूत नहीं हैं। जो भी वस्तुएँ हमारा अङ्ग बन जाती हैं उनका भार नहीं हुआ करता। इस सिद्धान्त के अनुसार 'ज्ञान, मानस पवित्रता व प्राणशक्ति' हमारे अङ्गभूत होने से उपादेय हैं और बाह्य सम्पत्ति बाह्य होने से भारभूत है। उसका संग्रह तैरने में विघातक होता है। उसका बोझ उतारना ही ठीक है, अतः (वयम्) = हम (शिवान्) = कल्याणकर (वजान्) = वाजों को, शक्तियों तथा धनों को (उत्तरेम) = इस नदी को तैर कर प्राप्त होंगे। अशिव को छोड़ेंगे तो शिव को प्राप्त करेंगे ही। इस किनारे को छोड़कर उस किनारे को छूनेवाला यह ('सुचीक') = उत्तम स्पर्श करनेवाला कहलाता है। यही इस मन्त्र का ऋषि है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम उत्तम कार्यों को प्रारम्भ करें, आलस्य छोड़ उठ खड़े हों, मित्रता की भावना को अपनाकर इस अश्मन्वती नदी को तैर जाएँ। अशिव को छोड़ शिव को प्राप्त करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    मोठ्या नौकेतून समुद्र पार करावा त्याप्रमाण्े जी माणसे अशुभ आचरण व दुष्ट लोकांपासून दूर होतात व प्रयत्नपूर्वक उद्योगी बनतात आणि कल्याणकारी वर्तन करतात ती दुःखसागरातून सहज पार पाडू शकतात.

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    विषय

    कोण दुःखसागराला तरून जाऊ शकतात, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (सज्जन लोक सामान्यजनांना) हे (सखायः) मित्रहो, (अश्मन्वती) जसा मेघाने भरलेला आकाश अथवा दगड-धोंडयाने भरलेली नदीतील प्रवाह (रीयते) (दगडांची पर्वा न करता पुढे पुढे) वाहत जातो, तसे (वयम्) आम्ही सत्प्रवृत्त सज्जन (अत्र) या जगात वा यासमयीं (ये) जे जे (अशिवाः) अमंगलकारी (वा आमच्या मार्गात आड येणार्‍या विघ्न-बाधां (असन्) आहेत, आम्ही त्यांना (जहीमः) दूर सारतो आणि (शिवान्) सुखकारी (वाजान्) अत्युत्तम धन-संपदा व अन्नधान्य (अभि, उत्, तरेम) सर्वतः सर्वथा प्राप्त करतो अर्थात त्याचा उपभोग घेत आहोत वा घेतला आहे, तुम्ही सर्वजणदेखील (संभरध्वम्) चांगल्याप्रकारे तसा आरंभ करा (अत्तिष्ठत) (आलस्य व नैराश्य सोडून) उठा, जागे व्हा, प्राप्त करा आणि (प्रतरत) अशा रीतीने दुःखांना उल्लंघून पलीकडे (यशाकडे) जा. ॥10॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्याप्रमाणे एका विशाल नौकाद्वारे समुद्र पार करता येतो, त्याप्रमाणे जे लोक अशुभ आचरण सोडून दुष्टांना नष्ट वा दूर करतात आणि प्रयत्न व उद्यम करीत मंगल-आचरण करतात, ते सहजच दुःखसागर तरून जाऊ शकतात. ॥10॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    On flows this stormy, sensual river-like world, work cautiously, my friends, arise and overcome all obstacles. Let us abandon what is profitless in this world, and enjoy excellent foods.

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    Meaning

    Friends, brothers and comrades, the river of rocks and boulders rushes on. Gird up your loins all, arise and cross over. Whatever be the hurdles against us, we crush, and let us win the battles of life to victory.

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    Translation

    The rocky river is flowing fast. Gird up yourselves, O friends; get up and swim across it. Here we quit whatever is evil and may we swim across to the auspicious treasures. (1)

    Notes

    Griffith suggests an interesting explanation: The origi nal verse of Rv X. 53. 8 contains words of encouragement to the bearers who with the funeral procession are crossing a stream. Here the natural stream is represented by a ditch cut for the purpose, filled with water and covered with aquatic plants and kusā grass, into which stones are cast. The original verse is better explained in the context of the stream of life, which one has to cross and reach the yonder bank. Asmanvatī, (a stream) full of rocks. Asivā ye asan, whatever are evil. Sivan vājän, auspicious treasures.

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    बंगाली (1)

    विषय

    কে দুঃখাৎ তরন্তীত্যাহ ॥
    কাহারা দুঃখ উত্তীর্ণ করিতে পারে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (সখায়ঃ) মিত্রগণ ! যাহা (অশ্মন্বতী) বহু মেঘ বা প্রস্তরযুক্ত সৃষ্টি বা নদী প্রবাহ হইয়া (রীয়তে) গমন করে তৎসহ যেমন (বয়ম্) আমরা (য়ে) যাহা (অত্র) এই জগতে বা সময়ে (অশিবাঃ) অকল্যাণকারী (অসন্) আছে তাহাদেরকে (জহীমঃ) ত্যাগ করি তথা (শিবান্) সুখকারী (বাজান্) অত্যুত্তম অন্নাদির অংশকে (অভি, উৎ, তরেম) সব দিক দিয়া উত্তী্র্ণ করি অর্থাৎ ভোগ করিয়াছি সেইরূপ তোমরা (সংরভধ্বম্) সম্যক্ আরম্ভ কর, (উত্তিষ্ঠৎ) উদ্যত হও এবং (প্রতরত) দুঃখের উল্লঙ্ঘন কর ॥ ১০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে সব মনুষ্য বড় নৌকা দ্বারা সমুদ্র উত্তীর্ণ হয় সেইরূপ অশুভ আচরণ এবং দুষ্টদিগকে উত্তীর্ণ করিয়া প্রযত্ন সহ উদ্যমী হইয়া মঙ্গলকারী আচরণ করিবে তাহারা সহজে দুঃখসাগর উত্তীর্ণ হইবে ॥ ১০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অশ্ম॑ন্বতী রীয়তে॒ সꣳর॑ভধ্ব॒মুত্তি॑ষ্ঠত॒ প্র ত॑রতা সখায়ঃ ।
    অত্রা॑ জহী॒মোऽশি॑বা॒ য়েऽ অস॑ঞ্ছি॒বান্ব॒য়মুত্ত॑রেমা॒ভি বাজা॑ন্ ॥ ১০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অশ্মন্বতীত্যস্য সুচীক ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । নিচৃৎ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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