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यजुर्वेद अध्याय - 35

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  • यजुर्वेद - अध्याय 35/ मन्त्र 14
    ऋषिः - सड्कसुक ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    3

    उद्व॒यन्तम॑स॒स्परि॒ स्वः] पश्य॑न्त॒ऽउत्त॑रम्।दे॒वं दे॑व॒त्रा सूर्य्य॒मग॑न्म॒ ज्योति॑रुत्त॒मम्॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्। व॒यम्। तम॑सः। परि॑। स्व᳕रिति॒ स्वः᳕। पश्य॑न्तः। उत्त॑र॒मित्यु॒त्ऽत॑रम् ॥ दे॒वम्। दे॒वत्रेति॑ देव॒ऽत्रा। सूर्य्य॑म्। अग॑न्म। ज्योतिः॑। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम् ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्वयन्तमसस्परि स्वः पश्यन्त उत्तरम् । देवन्देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। वयम्। तमसः। परि। स्वरिति स्वः। पश्यन्तः। उत्तरमित्युत्ऽतरम्॥ देवम्। देवत्रेति देवऽत्रा। सूर्य्यम्। अगन्म। ज्योतिः। उत्तममित्युत्ऽतमम्॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 35; मन्त्र » 14
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    के मोक्षमधिगच्छन्तीत्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! वयं यं तमसस्परि स्वरिव वर्त्तमानं देवत्रा देवं ज्योतिरुत्तममुत्तरं सूर्य्यं पश्यन्तः सन्तः पर्य्युदगन्म, तमेव यूयमपि सर्वतो विजानीत॥१४॥

    पदार्थः

    (उत्) (वयम्) (तमसः) अन्धकारात् (परि) वर्जने (स्वः) स्वप्रकाशमादित्यम् (पश्यन्तः) प्रेक्षमाणाः (उत्तरम्) दुःखेभ्य उत्तारकं परत्र वर्त्तमानम् (देवम्) विजयादिलाभप्रदम् (देवत्रा) देवेषु विद्वत्सु प्रकाशमयेषु सूर्य्यादिषु वा (सूर्य्यम्) अन्तर्यामिरूपेण स्वव्याप्त्या चराऽचरात्मानं परमात्मानं (अगन्म) विजानीयाम (ज्योतिः) स्वप्रकाशम् (उत्तमम्) सर्वोत्कृष्टम्॥१४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः! यथा सूर्य्यं पश्यन्तो दीर्घायुषो धर्मात्मानो जनाः सुखं लभन्ते, तथैव धार्मिका योगिनो महादेवं सर्वप्रकाशकं जन्ममृत्युक्लेशादिभ्यः पृथग् वर्त्तमानं सच्चिदानन्दस्वरूपं परमात्मानं साक्षाद् विज्ञाय मोक्षमवाप्य सततमानन्दन्ति॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    कौन मोक्ष को पाते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (वयम्) हम लोग जिस (तमसः) अन्धकार से परे (स्वः) स्वयं प्रकाशरूप सूर्य्य के तुल्य वर्त्तमान (देवत्रा) विद्वानों वा प्रकाशमय सूर्य्यादि पदार्थों में (देवम्) विजयादि लाभ के देनेवाले (ज्योतिः) स्वयं प्रकाशमयस्वरूप (उत्तमम्) सबसे बड़े (उत्तरम्) दुःखों से पार करनेवाले (सूर्य्यम्) अन्तर्यामी रूप से अपनी व्याप्ति कर सब चराचर के स्वामी परमात्मा को (पश्यन्तः) ज्ञान दृष्टि से देखते हुए (परि, उत्, अगन्म) सब ओर से उत्कृष्टता के साथ जानें, उसी को तुम लोग भी जानो॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे सूर्य्य को देखते हुए दीर्घावस्थावाले धर्मात्मा जन सुख को प्राप्त होते, वैसे ही धर्मात्मा योगीजन महादेव, सबका प्रकाशक, जन्म-मृत्यु के क्लेश आदि से पृथक् वर्त्तमान, सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा को साक्षात् जान मोक्ष को पाकर निरन्तर आनन्दित होते हैं॥१४॥

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    विषय

    अग्रणी रक्षक के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो अ० १० । २१ ॥

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    विषय

    उत्तम ज्योति को प्राप्त करना

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के 'आदित्यदेव' निश्चय करते हैं कि (वयम्) = हम (उत्) = इस उत्कृष्ट व सुन्दर, अत्यन्त आकर्षक (तमसः) = पूर्ण अन्धकारमय प्रकृति से (परि) = परे (उत्तरम्) = प्रकृति के साथ तुलना में अधिक उत्कृष्ट, क्योंकि प्रकृति तो जड़ है और यह जीवात्मा चेतन है, (स्वः) = ज्ञान के प्रकाश से युक्त आत्मस्वरूप को (पश्यन्तः) = देखते हुए देवत्रा देवम् देवों के भी देव, वस्तुतः सब देवों के प्रकाशक (उत्तमम्) = सर्वोत्कृष्ट (ज्योतिः) = प्रकाशरूप उस (सूर्यम्) = सबके प्रेरक प्रभु को [सुवति कर्मणि] अगन्म प्राप्त होते हैं। २. प्रस्तुत मन्त्र में प्रकृति, जीव व परमात्मा का उल्लेख 'उत्, उत्तर व उत्तम' शब्द से हुआ है। प्रकृति उत्-उत्कृष्ट है। जीव की उन्नति के लिए प्रत्येक साधन उसमें निहित है। ३. हाँ, जीव उससे अधिक उत्कृष्ट है चूँकि प्रकृति जीव के हित के लिए ही है और प्रकृति जहाँ पूर्ण जड़ है वहाँ जीव चेतन है, अतः यह 'उत्तर' है। ४. परमात्मा जीव से भी उत्तम है चूँकि जीव का ज्ञान जहाँ अल्प है प्रभु का ज्ञान पूर्ण है। ज्ञान की चरमसीमा ही तो प्रभु हैं ('तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्') [योगदर्शन] = जहाँ ज्ञान के तारतम्य की विश्रान्ति होती है वही तो प्रभु हैं। ये देवों के भी देव हैं, सूर्यादि के भी ये ही प्रकाशक हैं। वे गुरुओं के भी गुरु हैं ('स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्')। ये प्रभु सारे संसार के सञ्चालक तो हैं ही, हृदयस्थरूपेण जीवों को भी ये कर्म की प्रेरणा दे रहे हैं, अतः सूर्य हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम 'उत्, उत्तर व उत्तम' शब्दों से व्यक्त होनेवाले प्रकृति, जीव व परमात्मा के रूप को समझें ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे सूर्यापासून तेजस्वी दीर्घायू धर्मात्मा लोक सुख प्राप्त करतात, तसेच धर्मात्मा, योगी लोक सर्वांचा प्रकाशक असणाऱ्या, जन्ममृत्यूच्या क्लेशापासून पृथक असणाऱ्या महादेव, सच्चिदानंद परमेश्वराला साक्षात जाणून मोक्ष प्राप्त करून सतत आनंदात राहतात.

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    विषय

    मोक्ष प्राप्ती कोण करू शकतात, या विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, आम्ही (धर्मात्माजन) (तमसः) अंधकाराच्या पलीकडे असलेल्या (स्वः) स्वयंप्रकाशरुप सूर्याप्रमाणे, (देवत्रा) विद्वानात अथवा सूर्य आदी पदार्थात ज्याला व्यपिक पाहतो, (देवम्) विजय लाभ वा सत्कार्यात यश देणार्‍या त्या स्वयंप्रकाशित सूर्यरूप ईश्‍वराला (उत्तमम्) त्या सर्वांहून महान आणि (उत्तमम्) दुःखापासून तारणार्‍या तसेच (अंर्तयामी सर्वव्यापी, चराचर-स्वामी परमेश्‍वराला (पश्यनतः) आम्ही ज्ञान-दृष्टीने पाहतो आणि (परि, उत, अगन्य) सर्वतः) त्याला उत्कृष्टपणे जाणण्यांचा यत्न करतो, तसे हे मनुष्यानो, तुम्हीही करा (त्याला ज्ञानदृष्टीने पहा व त्याचे सत्यस्वरूप ओळखा) ॥14॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे मनुष्यानो, ज्याप्रकारे दीर्घयुषी धर्मात्मा लोक सूर्याला पाहत सुख प्राप्त करतात त्याप्रमाणे धर्मात्मा योगीजन त्या महादेव, सर्वप्रकाशक, जन्म-मृत्यू, क्लेश आदीपासून अलिप्त, सच्चिदानंदस्वरूप परमात्म्याला साक्षात करून नित्य आनंदी असतात. ॥14॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May we always keeping in view, eagerly know and realize God, free from the darkness of ignorance. Self-Effulgent, Releaser from afflictions, the most Learned of the learned, the Light that is most Excellent.

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    Meaning

    Let us rise beyond the dark to the regions of light and bliss, watching higher and higher, and reach to the self-refulgent Sun, the highest light among the brilliancies of the universe.

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    Translation

    Beholding the uprising divine light beyond the mundane darkness, we, by and by, approach the spiritual one, the divine of divines. (1)

    Notes

    Same as Yv. XX 21.

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    बंगाली (1)

    विषय

    কে মোক্ষমধিগচ্ছন্তীত্যাহ ॥
    কাহারা মোক্ষ লাভ করে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (বয়ম্) আমরা যে (তমসঃ) অন্ধকার হইতে দূরে (স্বঃ) স্বয়ং প্রকাশরূপ সূর্য্যের তুল্য বর্ত্তমান (দেবত্রা) বিদ্বান্গণ বা প্রকাশময় সূর্য্যাদি পদার্থ সকলের মধ্যে (দেবম্) বিজয়াদি লাভপ্রদ (জ্যোতিঃ) স্বয়ং প্রকাশময়স্বরূপ (উত্তমম্) সর্বাপেক্ষা বৃহৎ (উত্তরম্) দুঃখ হইতে উত্তীর্ণকারী (সূর্য়্যম্) অন্তর্যামী রূপ দ্বারা স্বীয় ব্যাপ্তি করিয়া সকল চরাচরের স্বামী পরমাত্মাকে (পশ্যন্তঃ) জ্ঞান দৃষ্টি দিয়া দেখিয়া (পরি, উৎ, অগন্ম) সব দিক দিয়া উৎকৃষ্টতা সহ জানি, তাহাকে তোমরাও জান ॥ ১৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে, হে মনুষ্যগণ ! যেমন সূর্য্যকে দেখিয়া দীর্ঘায়ুযুক্ত ধর্মাত্মা ব্যক্তি সুখ লাভ করে সেইরূপ ধর্মাত্মা যোগী মহাদেব সকলের প্রকাশক, জন্ম-মৃত্যুর ক্লেশাদি হইতে পৃথক বর্ত্তমান সচ্চিদানন্দস্বরূপ পরমাত্মাকে সাক্ষাৎ জানিয়া মোক্ষ লাভ করিয়া নিরন্তর আনন্দিত হয় ॥ ১৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উদ্ব॒য়ন্তম॑স॒স্পরি॒ স্বঃ᳕ পশ্য॑ন্ত॒ऽউত্ত॑রম্ ।
    দে॒বং দে॑ব॒ত্রা সূর্য়্য॒মগ॑ন্ম॒ জ্যোতি॑রুত্ত॒মম্ ॥ ১৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উদ্বয়ন্তমেত্যস্যাদিত্যা দেবা ঋষয়ঃ । সূর্য়্যো দেবতা । বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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