अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
ऋषिः - सिन्धुद्वीपः
देवता - आपः, चन्द्रमाः
छन्दः - त्रिपदा पुरोऽभिकृतिः ककुम्मतीगर्भापङ्क्तिः
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
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इन्द्र॒स्यौज॒ स्थेन्द्र॑स्य॒ सह॒ स्थेन्द्र॑स्य॒ बलं॒ स्थेन्द्र॑स्य वी॒र्यं स्थेन्द्र॑स्य नृ॒म्णं स्थ॑। जि॒ष्णवे॒ योगा॑य ब्रह्मयो॒गैर्वो॑ युनज्मि ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य । ओज॑: । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । सह॑: । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । बल॑म् । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । वी॒र्य᳡म् । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । नृ॒म्णम् । स्थ॒ । जि॒ष्णवे॑ । योगा॑य । ब्र॒ह्म॒ऽयो॒गै: । व॒: । यु॒न॒ज्मि॒ ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ। जिष्णवे योगाय ब्रह्मयोगैर्वो युनज्मि ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य । ओज: । स्थ । इन्द्रस्य । सह: । स्थ । इन्द्रस्य । बलम् । स्थ । इन्द्रस्य । वीर्यम् । स्थ । इन्द्रस्य । नृम्णम् । स्थ । जिष्णवे । योगाय । ब्रह्मऽयोगै: । व: । युनज्मि ॥५.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे विद्वानो !] तुम (इन्द्रस्य) आत्मा के (ओजः) पराक्रम (स्थ) हो, (इन्द्रस्य) आत्मा के (सहः) पुरुषार्थ (स्थ) हो, (इन्द्रस्य) आत्मा के (बलम्) बल (स्थ) हो, (इन्द्रस्य) आत्मा की (वीर्यम्) वीरता (स्थ) हो। (इन्द्रस्य) आत्मा की (नृम्णम्) शूरता (स्थ) हो। (जिष्णवे) (योगाय) संयोग के लिये (ब्रह्मयोगैः) ब्रह्मयोगों [परमात्मा के ध्यानों] से (वः) तुम को (युनज्मि) मैं जोड़ता हूँ ॥१॥
भावार्थ
जो मनुष्य परमात्मा के गुणों में चित्त लगाते हैं, वे सब प्रकार आत्मोन्नति करके अनेक प्रकार से ऐश्वर्यवान् होते हैं ॥१॥
टिप्पणी
१-(इन्द्रस्य) आत्मनः (ओजः) पराक्रमः (स्थ) भवथ (सहः) पुरुषार्थः (बलम्) सामर्थ्यम् (वीर्यम्) वीरता (नृम्णम्) अ० ४।२४।३। शूरत्वम् (जिष्णवे) अ० ३।१९।१। विजयिने (योगाय) संयोगाय। अवसराय (ब्रह्मयोगैः) ब्रह्मणः परमेश्वरस्य ध्यानैः (वः) युष्मान् (युनज्मि) संयोजयामि ॥
विषय
'ओजस, सहस, बल, वीर्य, नृम्ण
पदार्थ
१. हे जलो! (इन्द्रस्य ओजः स्थ) = तुम जितेन्द्रिय पुरुष के ओज हो [ओजस् ability], उसे सब कर्त्तव्यकर्मों को कर सकने के योग्य बनाते हो। (इन्द्रस्य सहः स्थ) = तुम जितेन्द्रिय पुरुष की वह शक्ति हो, जिससे कि यह काम, क्रोध आदि शत्रुओं का धर्षण कर पाता है। (इन्द्रस्य बल स्थ) = जितेन्द्रिय पुरुष का तुम्हीं मनोबल हो-इन 'आप:' रेत:कणरूप जलों का रक्षण करनेवाला कभी दुर्बल मानस स्थिति में नहीं होता। (इन्द्रस्य वीर्य स्थ) = तुम जितेन्द्रिय पुरुष की उत्पादन [virility, genertive power] व रोगनिवारक शक्ति हो। (इन्द्रस्य नृम्ण स्थ) = तुम जितेन्द्रिय पुरुष का उत्साह व धन [courage, wealth] हो। २. इन रेत:कणों के रक्षण से 'ओजस्, सहस्, बल, वीर्य व नृम्ण' की प्राप्ति होती है, अत: (जिष्णवे योगाय) = रोगों व वासनारूप शत्रुओं के विजयेच्छु [जिष्णु] उपाय[योग] के लिए मैं (व:) = आपको [रेत:कणों को] (ब्रह्मयोगै:) = ज्ञानप्रासि में लगे रहनेरूप उपायों से (युनज्मि) = शरीर में ही युक्त करता हूँ। इसी प्रकार (क्षत्रयोगैः) = बलों का अपने साथ सम्पर्क करने की कामनारूप उपायों से इन्हें मैं शरीर में युक्त करनेवाला बनता हूँ। (इन्द्रयोगैः) = परमैश्वर्यवाला बनने की कामनारूप उपायों से मैं इन्हें अपने में जोड़ता हूँ। (सोमयोगै:) = सौम्य भोजनों का ही प्रयोग करने के द्वारा में इन्हें शरीर में जोड़ता हूँ तथा अन्ततः (अप्सु योगै:) = निरन्तर कर्मों में लगे रहने के द्वारा मैं इन्हें शरीर में ही सुरक्षित करता हूँ। ३. जब मैं शत्रुओं को जीतने के उपाय के रूप में इन रेत:कणों को शरीर में सुरक्षित करता हूँ, तब (विश्वानि भूतानि) = शरीर का निर्माण करनेवाले 'पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश' रूप सब भूत (मा उपतिष्ठन्तु) = मेरे समीप सहायक रूप में उपस्थित हों। इन सब भूतों की अनुकूलता मुझे प्राप्त हो। हे (आपः) = रेतःकणरूप जलो! आप (मे युक्ताः स्थ) = मेरे साथ युक्त रहो। आपकी संयुक्ति ही तो मेरी विजय का कारण बनती है।
भावार्थ
रेत:कणों के रक्षण से 'ओजस्, सहस, बल, वीर्य व नृम्ण' प्राप्त होता है। इन रेत:कणों के रक्षण के लिए आवश्यक है कि हम ज्ञानप्राप्ति में लगे रहें-बल व ऐश्वर्य के सम्पादन को अपना लक्ष्य बनाएँ। सौम्य भोजनों का सेवन करें। कर्मों में लगे रहें। इसप्रकार रेत:कणों के रक्षण से सब भूतों की अनुकूलता प्राप्त होगी।
भाषार्थ
हे आपः ! (मन्त्र ६) हे प्राप्त तथा राष्ट्र में व्याप्त प्रजाओ ! तुम (इन्द्रस्य) सम्राट् के (ओजः) ओज (स्थ) हो, (इन्द्रस्य) सम्राट् की (सहः) सहनशक्ति तथा शत्रुपराभव करने वाली शक्ति (स्थ) हो, (इन्द्रस्य) सम्राट् के (बलम्) सैनिक बलरूप (स्थ) हो, (इन्द्रस्य) सम्राट् के (नृम्णम्) धनरूप हो। (जिष्णवे) विजय सम्बन्धी (योगाय) पारस्परिक सहयोग के लिये (वः) हे प्रजाओ ! तुम्हें (ब्रह्मयोगैः) ब्राह्मणों के सहयोगों के साथ (युनज्मि) मैं युक्त करता हूं, सम्बद्ध करता हूं।
टिप्पणी
[इन्द्रस्य="इन्द्रश्च सम्राट् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७), द्वारा इन्द्र है सम्राट् अर्थात् संयुक्त राष्ट्रों का अधिपति शासक, और वरुण है माण्डलिक राजा, निज-निज राष्ट्र के राजा, शासक ओजः=उब्ज आर्जवे (तुदादिः), "उब्जति कोमलो भवति, इति ओजः" (उणा० ४।१९३, म० दयानन्द)। ओजः=राष्ट्रिय ओज; जिस के होते शत्रु-राष्ट्र को आक्रमण करने का साहस नहीं होता। ओजः का प्रतिनिधि सिंह है। बलम्="बलं भरं भवति, बिभर्तेः" (निरुक्त २।२।१०), जोकि शरीर का भरण पोषण करता है। बल का प्रतिनिधि है हाथी। तथा बलम सैनिकबल, यथा “अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्" (गीता १।१०)। नृम्णम्=नृम्णं धननाम" (निघं० २।१०), जिस के लिये नरों का मन झुका१ रहता है। वीर्यम् = वीरता ब्रह्मयोगैः= नागरिक जीवन के कष्टों पर विजय पाने के लिये और जीवन को सुखमय बनाने के लिये ब्राह्मण-वृत्ति के शासकों का सहयोग प्रजा के साथ चाहिये। ब्राह्मण = ब्रह्मोपासक, आस्तिक, ब्रह्मविद्याविज्ञ, विद्वान्, परोपकारी और त्यागी शासक। आपः = आप्ताः, राष्ट्र में व्याप्त प्रजाएं, आप्लृ व्याप्तौ। मन्त्र १-२४ में सम्राट् की उक्ति प्रजाओं के प्रति]। [१. नृ + मा (णम् = नम= नमन होना, झुक जाना।]
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Victory
Meaning
Part 1 O people, you are the honour and splendour of the order and ruler of the human nation, you are the power and patience of the ruler, you are the strength and force of the ruler, you are the vigour and valour of the ruler, you are the real and manly wealth of the order. I commit you to the achievement of united victory with dedication to knowledge and vision and cooperation of the intellectuals, teachers and researchers.
Subject
Apah
Translation
(O waters), you arè the vigour of the resplendent Lord (Indra), the conquering force of the resplendent Lord, the strength of the resplendent Lord, the valour of the resplendent Lord, the manliness of the resplendent Lord, for the enterprize of conquest, I equip you with the means of intellectual power. (brahma-yogaih-nrmnam).
Translation
O ye people, you are the strength of the King, you are the force of the King, you are the power of the King, you are the vigour of the King and you are the wealth of the King. I, the priest unite you with the intellectual and statesman’s adventures for the victorious enterprize.
Translation
O subjects, ye are the power of the King, ye the force and strength of the King, ye his manliness and wealth. I join you through the wise teachings of the Vedas to the victorious King!
Footnote
I: Purohit, priest.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१-(इन्द्रस्य) आत्मनः (ओजः) पराक्रमः (स्थ) भवथ (सहः) पुरुषार्थः (बलम्) सामर्थ्यम् (वीर्यम्) वीरता (नृम्णम्) अ० ४।२४।३। शूरत्वम् (जिष्णवे) अ० ३।१९।१। विजयिने (योगाय) संयोगाय। अवसराय (ब्रह्मयोगैः) ब्रह्मणः परमेश्वरस्य ध्यानैः (वः) युष्मान् (युनज्मि) संयोजयामि ॥
हिंगलिश (1)
Subject
वैदिक जीवन पद्धति
Word Meaning
ब्रह्मयोगैर्वो ब्रह्म ज्ञान – वेद ज्ञान से ( इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ) ओजस्वी राजा, और परिवारके मुखिया, समाज के नेता सब जनों के बल, वीर्य और आर्थिक शक्ति शक्ति सम्पन्न होने के मार्ग दर्शन के लिए (ब्रह्मयोगैर्वो) ब्रह्म ज्ञान – वेद ज्ञान के द्वारा (जिष्णवे योगाय युनज्मि) जितेंद्रिय हो कर संसार में विजय प्राप्ति के उद्देश्य से जोड़ता हूं |
Tika / Tippani
हिंदु आचार संहिता वेदों के अनुसार जिस ने भारत को विश्वगुरु का पद दिया | भारतवर्ष का वैभव अथर्व10.5 हिंदु आचार संहिता वेदों के अनुसार जिस ने भारत को विश्वगुरु का पद दिया | India’s Glory AV10.5 Glory of India is due to the geographical location of this land & being blessed by wisdom of Vedas and Cow based society. AV 10.5 ऋषि: - सिंधुद्वीप:, देवता: Vijaypraapti विजयप्राप्ति अर्थात सिंधु द्वीप – आर्यावर्त Indogangetic plain की समृद्धि सम्पन्नता की ख्याति से आर्यावर्त के विस्तार से विश्व विजय का मूल मंत्र | Action Oriented Society: इन्द्र - संसार चक्र के कल्याण मार्ग मे आने वाली सब बाधाओं को नष्ट कर के उत्तम व्यवस्था स्थापित करने वाली वह शक्ति है जो दैविक अमूर्त में और मर्त्य रूप दोनों मे प्रकट होती है. ऋग्वेद 5.30.5 के ‘अतिश्चिदिन्द्रदभयन्त देवा:’ पर स्वामी समर्पणा नन्द जी ऋग्वेद मण्डल मणि सूत्र में लिखते हैं “ ब्रह्माण्ड में परमात्मा , सौर चक्र में सूर्य, राष्ट्र में (क्षत्रिय धर्म का पालन करने वाले) राजा , शरीर में जीवात्मा और परिवार में यजमान, सब अपने अपने क्षेत्र में इन्द्र हैं ” ऋषि: - सिन्धुद्वीप: हिंदु -सिंधु और गङ्गा के मध्य के प्रदेश Indigangetic Plain को सिंधु द्वीप के नाम से जाना जाता था जो समृद्धि से भरपूर होने पर भारतवर्ष कहलाने के बाद विस्तार होने पर आर्यवर्त के नाम से प्रख्यात हुआ | उच्चारण में स का ह बन जाना आज भी देखा जाता है , जैसे असमिया में स का उच्चारण ह से होता है इसी प्रकार सिंधु का हिंदु बन गया | भारत - वेदों में सब प्रकार से सम्पन्न सब अन्न धान्य से भरपूर समृद्ध प्रदेश को भारत की संज्ञा दी गई है | आर्यावर्त – विस्तार होने पर इतिहास के आधार पर यह समृद्ध जीवन व्यवस्था सुदूर प्रदेश पूर्व में इंडोनेशिया, बाली, जावा, सुमात्रा, कम्बोजिया , श्याम देश इत्यादि से पश्चिम में अफग़ानिस्तान तक फैल गई थी | भारत वर्ष के विषय में –विश्व में केवल यही ऐसा भूखंड है जहां प्रकृति की सब 6 ऋतु (जिन का वेदों में स्पष्ट विवरण मिलता है) पाई जाती है. यही वह भू खंड है जिस पर वनस्पति अन्न इत्यादि की समस्त विविधता पाकृतिक रूप से बिना कृत्रिम प्रयासों के उपलब्ध होती है | बारह महीने खेती हो सकती है, सारे वर्ष जलवायु सब प्राणियों के जीवन के लिए अनुकूल रहता है | ऐसा क्षेत्र भौतिक दृष्टि से उपयुक्त प्राकृतिक सुविधाओं और प्रजा के कर्मठ वैदिक आचरण के कारण अधिक सम्पन्न और शांतिप्रिय पाया जाता है | ऐसी पुण्य भूमि में वेद ज्ञान का अवतरण और उस पर आचरण करते हुए गौमाता के आशीर्वाद से ही प्राचीन आर्यवर्त देश को विश्व गुरु और सौने की चिड़िया होने का गौरव प्राप्त हो सका था | आर्यवर्त की विश्व विजय प्राप्ति का रहस्य इस अथर्व वेद सूक्त का विषय है | इस सूक्त में मातृभूमि सिंधुद्वीप राष्ट्र में आचरण का सब जनों राजा और प्रजा को उपदेश दिया गया है | Action Oriented Society: Indra इन्द्र - संसार चक्र के कल्याण मार्ग मे आने वाली सब बाधाओं को नष्ट कर के उत्तम व्यवस्था स्थापित करने वाली वह शक्ति है जो दैविक अमूर्त में और मर्त्य रूप दोनों मे प्रकट होती है. ऋग्वेद 5.30.5 के ‘अतिश्चिदिन्द्रदभयन्त देवा:’ पर स्वामी समर्पणा नन्द जी ऋग्वेद मण्डल मणि सूत्र में लिखते हैं “ ब्रह्माण्ड में परमात्मा , सौर चक्र में सूर्य, राष्ट्र में (क्षत्रिय धर्म का पालन करने वाले) राजा , शरीर में जीवात्मा और परिवार में यजमान, सब अपने अपने क्षेत्र में इन्द्र हैं ” इस अथर्व वेद 10.5 सूक्त के प्रथम 6 मंत्रों , अथर्व 10.5.1 से अथर्व 10.5.6 मंत्रों की ध्रुव पंक्ति है ; “ इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ । जिष्णवे योगाय युनज्मि” || (जिष्णवे योगाय, इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ) अपने और संसार पर विजय के लिए , ओजस्वी राजा, और परिवारके मुखिया , समाज के नेता सब जनों को, बल, वीर्य और आर्थिक शक्ति सम्पन्न बन कर विजय प्राप्ति के लिए पारस्परिक सहयोग के लिए के लिए (युनज्मि) संगठित करता हूं जोड़ता हूं |
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