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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोपथः देवता - रात्रिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रात्रि सूक्त
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    रात्रिं॑रात्रि॒मरि॑ष्यन्त॒स्तरे॑म त॒न्वा व॒यम्। ग॑म्भी॒रमप्ल॑वा इव॒ न त॑रेयु॒ररा॑तयः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रात्रि॑म्ऽरात्रिम्। अरि॑ष्यन्तः। तरे॑म। त॒न्वा᳡। व॒यम्। ग॒म्भी॒रम्। अप्ल॑वाःऽइव। न। त॒रे॒युः॒। अरा॑तयः ॥५०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रात्रिंरात्रिमरिष्यन्तस्तरेम तन्वा वयम्। गम्भीरमप्लवा इव न तरेयुररातयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रात्रिम्ऽरात्रिम्। अरिष्यन्तः। तरेम। तन्वा। वयम्। गम्भीरम्। अप्लवाःऽइव। न। तरेयुः। अरातयः ॥५०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 50; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    रात्रि में रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (अरिष्यन्तः) बिना कष्ट उठाये हुए (वयम्) हम लोग (तन्वा) अपने शरीर के साथ (रात्रिं रात्रिम्) रात्रि के पीछे रात्रि को (तरेम) पार करें। (अरातयः) वैरी लोग [उसको] (न तरेयुः) न पार करें, (इव) जैसे (अप्लवाः) बिना नाववाले मनुष्य (गम्भीरम्) गहरे [समुद्र] को ॥३॥

    भावार्थ

    पुरुषार्थी मनुष्य सब विघ्नों को सहकर उन्नति करें, विरोधी आलसी पुरुष सुकर्मों को सिद्ध नहीं कर सकते ॥™३॥

    टिप्पणी

    ३−(रात्रिं रात्रिम्) रात्रिं प्रति रात्रिम् (अरिष्यन्तः) दुःखं न प्राप्नुवन्तः (तरेम) पारं गच्छेम (तन्वा) स्वशरीरेण (वयम्) पुरुषार्थिनः (गम्भीरम्) अगाधं समुद्रम् (अप्लवाः) नौकादिरहिताः (इव) यथा (न) निषेधे (तरेयुः) अतिक्रामेयुः (अरातयः) शत्रवः ॥

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    भाषार्थ

    (तन्वा) शरीर से (अरिष्यन्तः) अहिंसित होते हुए (वयम्) हम (रात्रिम् रात्रिम्) प्रत्येक रात्री से (तरेम) पार हो जायें। (अरातयः) अदानी अर्थात् शत्रु (न तरेयुः) न पार हों। (इव) जैसे कि (अप्लवाः) नौकाविहीन व्यक्ति (गम्भीरम्) गहरे समुद्र से पार नहीं हो सकते।

    टिप्पणी

    [अरातयः= अ+रा (दाने)+ति। वैदिक सभ्यता में दान की बड़ी महिमा है। अराति शब्द शत्रु अर्थ में प्रयुक्त होता है। अदानी समाज और राष्ट्र के शत्रु गिने ग‌ए हैं। वैदिक सभ्यता के अनुसार प्रत्येक गृहस्थी को पञ्चमहायज्ञ करने होते हैं। अतिथियज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, बलियज्ञ या भूतयज्ञ, तथा ब्रह्मयज्ञ या स्वाध्याययज्ञ। अतिथियज्ञ में अन्नादि द्वारा अतिथियों की सेवा, पितृयज्ञ में जीवित माता-पिता, आचार्य तथा अन्य बुजुर्गों की अन्नादि द्वारा सेवा, देवयज्ञ में अग्निहोत्र द्वारा वायु आदि की शुद्धि से समग्र समाज की सेवा, तथा बलियज्ञ या भूतयज्ञ द्वारा पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि प्राणियों की अन्न द्वारा सेवा करनी होती है। ये सेवाएं दानभावना पर निर्भर हैं। इसीलिये “अराति” को समाज और राष्ट्र का शत्रु कहा है। यह दान धार्मिक दान है, राजनैतिक दृष्टि से दिया गया या बांटा गया धन, दान नहीं।]

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    विषय

    विघ्न-संतरण

    पदार्थ

    १. (वयम्) = हम (रात्रिंरात्रिम्) = प्रत्येक रात्रि में तन्वा = शरीर से (अरिष्यन्त:) = हिंसित न होते हुए (तरेम) = सब विघ्नों व रोगों को तैर जाएँ। प्रत्येक रात्रि हमें फिर से सशक्त बनानेवाली हो। २. (अरातयः) = अदान की वृत्तिवाले कृपण लोग रोगों व विघ्नों को इसप्रकार (न तरेयु:) = तैरनेवाले न हों, (इव) = जैसेकि (अप्लवा:) = बेड़े [raft] से रहित पुरुष (गम्भीरम्) = गहरे जल को पार नहीं कर पाते। कृपणता हमारे जीवन को अयज्ञिय बना देती है और इसप्रकार दीर्घजीवन सम्भव नहीं रहता।

    भावार्थ

    हम कृपणता आदि शत्रुभूत वृत्तियों से ऊपर उठकर प्रति रात्रि शक्ति-सम्पन्न बनते हुए रोगों व विघ्नों को तैर जाएँ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Ratri

    Meaning

    Night by night, unhurt, unscathed, let us cross the dark, hale and hearty in body, unlike the indigent and the uncharitable who would not cross the dark and deep without the ark.

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    Translation

    May we get across each and every might with our body uninjured. May our enemies not get across from the deep waters.

    Comments / Notes

    Text is not clear in the book. If someone has a clearer copy, please edit this translation

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    Translation

    Let us uninjured in bodies pass all the consecutive nights and let the men doing inimical acts not succeed to pass the nights as the men without boat cannot cross the deep water.

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    Translation

    Making use of this authority of defence and protection, let us bodily overcome all difficulties and troubles with our strength. Let not our enemies do so, as men without a boat cannot cross deep waters.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(रात्रिं रात्रिम्) रात्रिं प्रति रात्रिम् (अरिष्यन्तः) दुःखं न प्राप्नुवन्तः (तरेम) पारं गच्छेम (तन्वा) स्वशरीरेण (वयम्) पुरुषार्थिनः (गम्भीरम्) अगाधं समुद्रम् (अप्लवाः) नौकादिरहिताः (इव) यथा (न) निषेधे (तरेयुः) अतिक्रामेयुः (अरातयः) शत्रवः ॥

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