Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 50 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 50/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोपथः देवता - रात्रिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रात्रि सूक्त
    0

    यथा॑ शा॒म्याकः॑ प्र॒पत॑न्नप॒वान्नानु॑वि॒द्यते॑। ए॒वा रा॑त्रि॒ प्र पा॑तय॒ यो अ॒स्माँ अ॑भ्यघा॒यति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑। शा॒म्याकः॑। प्र॒ऽपत॑न्। अ॒प॒ऽवान्। न। अ॒नु॒ऽवि॒द्यते॑ ॥ ए॒व। रा॒त्रि॒। प्र। पा॒त॒य॒। यः। अ॒स्मान्। अ॒भि॒ऽअ॒घा॒यति॑ ॥५०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा शाम्याकः प्रपतन्नपवान्नानुविद्यते। एवा रात्रि प्र पातय यो अस्माँ अभ्यघायति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा। शाम्याकः। प्रऽपतन्। अपऽवान्। न। अनुऽविद्यते ॥ एव। रात्रि। प्र। पातय। यः। अस्मान्। अभिऽअघायति ॥५०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 50; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    रात्रि में रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यथा) जैसे (शाम्याकः) सामा [छोटा अन्न विशेष] (प्रपतन्) गिरता हुआ और (अपवान्) दूर चला जाता हुआ (न) नहीं (अनुविद्यते) कुछ भी मिलता है। (एव) वैसे ही, (रात्रि) हे रात्रि ! [उस दुष्ट को] (प्र पातय) गिरा दे, (यः) जो (अस्मान्) हमारा (अभ्यघायति) बुरा चीतता है ॥४॥

    भावार्थ

    धर्म्मात्मा लोग दुष्टों को ऐसा दूर करें कि फिर उसका पता न लगे, जैसे सामा अन्न धूलि में वा पवन में जाकर नहीं मिलता ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(यथा) (शाम्याकः) श्यामाकाख्यः क्षुद्रधान्यविशेषः (प्रपतन्) निपतन् (अपवान्) वा गतौ-शतृ। अपगच्छन् (न) निषेधे (अनुविद्यते) कदापि लभ्यते (एव) एवम् (रात्रि) (प्रपातय) निपातय शत्रुम् (यः) शत्रुः (अस्मान्) धार्मिकान् (अभ्यघायति) अभिलक्ष्य अघं पापमिच्छति ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (यथा) जैसे (श्याम्याकः) सामा अन्न का दाना (प्रपतन्) भूमि पर गिरता हुआ, या (अपवान्) वायु द्वारा परे फैंका हुआ (अनुविद्यते न) पुनः लब्ध नहीं होता, (एवा=एवम्) इसी प्रकार (रात्रि) हे रात्रि! (प्रपातय) गिरा दे, (यः) जो कि (अस्मान्) हमें (अभ्यघायति) मारना चाहता है, या हमारे प्रति पापकर्म करना चाहता है, ताकि वह पुनः प्राप्त न हो सके।

    टिप्पणी

    [श्याम्याकः=“सामा” नामक अन्न का दाना बहुत सूक्ष्म होता है, अतः गिरे हुए को, या वायु द्वारा परे फैंके गये को फिर पाना नहीं हो सकता। अपवान्=अप+वा (गतौ)+शतृ।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अपवान् शाम्याक की भांति

    पदार्थ

    १. (यथा) = जैसे (शाम्याक:) = धान्यविशेष (प्रपतन्) = पक कर गिरता हुआ (अपवान्) = अपकर्षवाला दुर्बल, नि:सार हुआ-हुआ (न अनु विद्यते) = अवस्थिति को प्राप्त नहीं करता-नहीं उपलब्ध होता नष्ट हो जाता है, २. (एवा) = इसीप्रकार हे (रात्रि) = रात्रिदेवते! तू (प्रपातय) = उसे नष्ट कर दे (यः) = जो शत्रु (अस्मान) = हमें (अभि अघायति) = लक्ष्य करके हिंसारूप पापकर्म करना चाहता है।

    भावार्थ

    रात्रि हमारे प्रति हिंसावाले को इसप्रकार नष्ट कर दे जैसेकि पका हुआ शाम्याक धान्य साररहित होने पर उड़-उड़ा जाता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Ratri

    Meaning

    Just as a tiny grain of Shyamaka, fallen and flown away by wind cannot be retrieved, so O Night, drive away the sinner who wants to hurt and destroy us.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Just as a millet-seed fying up and blown away, is not traced out. O night, may you blow him away whosever comes to harm us.

    Comments / Notes

    Text is not clear in the book. If someone has a clearer copy, please edit this translation

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    As millet (Panicum Frumertaceum) hurled in the wind being , hurried is not beheld before us so let this night vanish him who makes plan to injure us.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Just the tiny millet, having fallen or flown away (by the gust of wind) cannot be traced, similarly, O Ratri, fell him to nullity, who comes with the intention of killing us.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(यथा) (शाम्याकः) श्यामाकाख्यः क्षुद्रधान्यविशेषः (प्रपतन्) निपतन् (अपवान्) वा गतौ-शतृ। अपगच्छन् (न) निषेधे (अनुविद्यते) कदापि लभ्यते (एव) एवम् (रात्रि) (प्रपातय) निपातय शत्रुम् (यः) शत्रुः (अस्मान्) धार्मिकान् (अभ्यघायति) अभिलक्ष्य अघं पापमिच्छति ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top