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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोपथः देवता - रात्रिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रात्रि सूक्त
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    अध॑ रात्रि तृ॒ष्टधू॑ममशी॒र्षाण॒महिं॑ कृणु। अ॒क्षौ वृक॑स्य॒ निर्ज॑ह्या॒स्तेन॒ तं द्रु॑प॒दे ज॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑। रा॒त्रि॒। तृ॒ष्टऽधू॑मम्। अ॒शी॒र्षाण॑म्। अहि॑म्। कृ॒णु॒ ॥ अ॒क्षौ। वृक॑स्य। निः। ज॒ह्याः॒। तेन॑। तम्। द्रु॒ऽप॒दे। ज॒हि॒ ॥५०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध रात्रि तृष्टधूममशीर्षाणमहिं कृणु। अक्षौ वृकस्य निर्जह्यास्तेन तं द्रुपदे जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध। रात्रि। तृष्टऽधूमम्। अशीर्षाणम्। अहिम्। कृणु ॥ अक्षौ। वृकस्य। निः। जह्याः। तेन। तम्। द्रुऽपदे। जहि ॥५०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 50; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    रात्रि में रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (अध) और (रात्रि) हे रात्रि ! (तृष्टधूमम्) क्रूर धुएँवाले [विषैली श्वासवाले] (अहिम्) साँप को (अशीर्षाणम्) रुण्ड [बिना शिर का] (कृणु) करदे [शिर कुचल कर मार डाल]। (वृकस्य) भेड़िये के (अक्षौ) दोनों आँखें (निः जह्याः) निकाल कर फेंक दे, (तेन) उससे (तम्) उसको (द्रुपदे) काठ के बन्धन में (जहि) मार डाल ॥–१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य सर्प और भेड़िये आदि के समान रात्रि में दुःख देवें, उन्हें बन्दीगृह में बन्द करके कष्ट दिया जावे ॥१॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऊपर आ चुका है-४७।८ ॥ १−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-४७।८। अत्र विशेषो व्याख्यायते (अक्षौ) अक्षिणी। चक्षुषी (निः) निःसार्य (जह्याः) ओहाक् त्यागे-लिङ्। त्यजेः। प्रक्षिपेः ॥

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    भाषार्थ

    (अध) और (रात्रि) हे रात्रि! (तृष्टधूमम्) पिपासाजनक फुंकार वाले (अहिम्) सांप को (अशीर्षाणम्) सिररहित (कृणु) करदे। (वृकस्य) लुटेरे की (अक्षौ) दोनों आंखों को (निर्जह्याः) निकाल फैंक। (तेन) इस प्रकार (तम्) उसे (द्रुपदे) काठ की बेड़ी में डालकर (जहि) मार डाल।

    टिप्पणी

    [वृकस्य=वृकः Robber (आप्टे) अर्थात् लुटेरा। सांप और लुटेरे को दण्ड का विधान किया है। पैप्पलाद संहिता (अथर्ववेद) में “द्रुपदे जहि” के स्थान में “नृपते जहि” पाठ है। इससे प्रतीत होता है कि दण्डविधान राजनियमों द्वारा होना चाहिए।]

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    विषय

    'तृष्टधूम अहि व वृक' विनाश

    पदार्थ

    १. हे (रात्रि) = रात्रिदेवते! (अध) = अब (तृष्टभूमम्) = आर्तिजनक व बड़ी प्यास लगानेवाली विष ज्वाला के धूमवाले (अहिम्) = इस सर्प को (अशीर्वाणम्) = छिन्न शिरवाला कृणु-कर दे। इस (वृकस्य) = भेड़िये की आँखों को भी (निर्जला:) = नियुक्त कर दे-निकाल दे और जो स्तेन [स्तेनः] चोर है (तम्) = उसको द्रुपदे जहि गति के साधनभूत पाँव में हिंसित कर, अर्थात् इसके पाँवों को छिन्न कर डाल।

    भावार्थ

    रात्रि में उचित रक्षणव्यवस्था द्वारा 'सर्प, वृक व चोर' सभी के भयों से प्रजा को मुक्त किया जाए।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Ratri

    Meaning

    O Night, crush the head of the snake which breathes out dark smoke of doom. Strike out the eyes of the wolf, and hold him in the snare.

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    Subject

    To Night : For protection

    Translation

    Now, O night, make headless the serpent, causing great thirst by its hissing; strike the eyes of the wolf out of his head, dash the thief to the wooden post. (Av.XIX.47.8.Var.. )

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    Translation

    Let us make deprived of head the serpent which has a pungient breath, Let is strike the eyes of vrika( from its head) and dash it, thus, against the post.

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    Translation

    O the punishing authority, throw the thirst creating smoke on or cut off the head of him, who stings the interest of the nation like a serpent, (like a fifth columnist). Drive out the eye-sockets of the highway-robber. Let him be killed by tying him to a post.

    Footnote

    Here also Ratri means kingly power of protection and well-being, looking after the welfare of the people.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऊपर आ चुका है-४७।८ ॥ १−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-४७।८। अत्र विशेषो व्याख्यायते (अक्षौ) अक्षिणी। चक्षुषी (निः) निःसार्य (जह्याः) ओहाक् त्यागे-लिङ्। त्यजेः। प्रक्षिपेः ॥

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