अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 50/ मन्त्र 6
यद॒द्या रा॑त्रि सुभगे वि॒भज॒न्त्ययो॒ वसु॑। यदे॒तद॒स्मान्भोज॑य॒ यथेद॒न्यानु॒पाय॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठयत्। अ॒द्य। रा॒त्रि॒। सु॒ऽभ॒गे॒। वि॒ऽभज॑न्ति। अयः॑। वसु॑ ॥ यत्। ए॒तत्। अ॒स्मान्। भो॒ज॒य॒। यथा॑। इत्। अ॒न्यान्। उ॒प॒ऽअय॑सि ॥५०.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यदद्या रात्रि सुभगे विभजन्त्ययो वसु। यदेतदस्मान्भोजय यथेदन्यानुपायसि ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। अद्य। रात्रि। सुऽभगे। विऽभजन्ति। अयः। वसु ॥ यत्। एतत्। अस्मान्। भोजय। यथा। इत्। अन्यान्। उपऽअयसि ॥५०.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(सुभगे) हे बड़े ऐश्वर्यवाली (रात्रि) रात्रि ! (अद्य) आज (यत्) जिस (अयः) सुवर्ण और (यत्) जिस (वसु) धन को (विभजन्ति) वे [चोर] बाँटते हैं। (एतत्) उसको (अस्मान्) हमें (भोजय) भोगने दे, (यथा) जिससे (इत्) निश्चय करके (अन्यान्) दूसरे [पदार्थों] को [हमें] (उप-अयसि) तू पहुँचाती रहे ॥६॥
भावार्थ
मनुष्य प्रयत्न करके डाकू चोर आदि दुष्टों से धन और सम्पत्ति की रक्षा करके वृद्धि करते रहें ॥६॥
टिप्पणी
६−(यत्) (अद्य) अस्मिन् दिने (रात्रि) (सुभगे) हे बह्वैश्वर्यवति (विभजन्ति) विभागेन प्राप्नुवन्ति (अयः) हिरण्यम्-निघ० १।२ (वसु) धनम् (यत्) (एतत्) (अस्मान्) (भोजय) भोक्तॄन् कुरु (यथा) येन प्रकारेण (इत्) निश्चयेन (अन्यान्) पदार्थान् (उप-अयसि) इण् गतौ-लेटि, अडागमः, अन्तर्गतण्यर्थः। उपगमयेः ॥
भाषार्थ
(सुभगे रात्रि) हे उत्तमशोभावाली रात्रि! (यद्) जिस (अयः) सुवर्ण, और (वसु) धन को [उत्तराधिकारी] (अद्य) शीघ्र (विभजन्ति) आपस में बाँट लेते हैं, (यत् एतत्) जो यह [उत्तराधिकार में प्राप्त] धन है इसे, तथा (यथा) जिस प्रकार (इत्) ही तू (अन्यान्) अन्य [धनिकों] को (उपायसि) उपायनरूप में धन प्राप्त कराती है, इसे (अस्मान्) हमें भी (भोजय) भोगने दे।
टिप्पणी
[अद्य=सद्यः, निरु० १३ (१४)। पा० २ खं० ३१ (१८)। सुवर्ण और धन दो प्रकार का है—उत्तराधिकार में प्राप्त, तथा परिश्रम द्वारा कर्मानुसार प्राप्त१। अयः=हिरण्यनाम (निघं० १.२)।] [१. रात्री हमें जीवित रखे, ताकि हम इन दोनों प्रकार के धनों का उपभोग कर सकें।]
विषय
- अयः वसु
पदार्थ
१. हे (सुभगे) = उत्तम ऐश्वर्योवाली-ऐश्वयों की रक्षक (रात्रि) = रात्रिदेवते! (यत्) = जिसकी लोहा आदि धातुओं से बनी वस्तुओं तथा (वसु) = सुवर्णादि धन को (अद्य) = इस समय (विभजन्ति) = [विष्ले षयन्ति] हमसे पृथक् करते हैं, अर्थात् चुरा ले-जाते हैं । (यत् एतत्) = जो यह धन है उसे (अस्मान् भोजय) = हमें ही भोगनेवाला बनाइए। इस धन को हमसे कोई पृथक् न कर पाए। २. हे राजन्! आप रात्रि में इसप्रकार रक्षण-व्यवस्था करें कि (यथा) = जिससे (इत्) = निश्चयपूर्वक (अन्यान्) = वस्त्र, गौ, अज व अश्व आदि अन्य शत्रुओं से अपहत पदार्थों को भी (उपावसि) = हमें पुन: प्राप्त कराते है।|
भावार्थ
रात्रि में रक्षण-व्यवस्था इस प्रकार उत्तम हो कि लोहे आदि धातुओं से बनी वस्तुओं का तथा सुवर्ण आदि का अपहरण न हो सके। अपहत वस्तुओं को भी ढूंढकर पुनः उनके स्वामी को प्राप्त कराया जाए।
इंग्लिश (4)
Subject
Ratri
Meaning
O noble and beneficent Night, as you come now giving out wealth and peace to all, pray give us our share to enjoy as you give out theirs to others.
Translation
O night, possessor of great fortunes, as you have come day dealing out riches, make us to enjoy all that, so that this may not go to others..
Comments / Notes
Text is not clear in the book. If someone has a clearer copy, please edit this translation
Translation
If this favorable night bestowing wealth comes to us let this cause us enjoy (the wealth) in such a way that it may not pass to others.
Translation
O fortune distributing authority, whatever gold or wealth thou grantest to us. Let it be enjoyed by us, so that it may not fall into the hands of others i.e., robbers or enemies.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(यत्) (अद्य) अस्मिन् दिने (रात्रि) (सुभगे) हे बह्वैश्वर्यवति (विभजन्ति) विभागेन प्राप्नुवन्ति (अयः) हिरण्यम्-निघ० १।२ (वसु) धनम् (यत्) (एतत्) (अस्मान्) (भोजय) भोक्तॄन् कुरु (यथा) येन प्रकारेण (इत्) निश्चयेन (अन्यान्) पदार्थान् (उप-अयसि) इण् गतौ-लेटि, अडागमः, अन्तर्गतण्यर्थः। उपगमयेः ॥
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