अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 10
हि॒मेव॑ प॒र्णा मु॑षि॒ता वना॑नि॒ बृह॒स्पति॑नाकृपयद्व॒लो गाः। अ॑नानुकृ॒त्यम॑पु॒नश्च॑कार॒ यात्सूर्या॒मासा॑ मि॒थ उ॒च्चरा॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒माऽइ॑व । प॒र्णा । मु॒षि॒ता । वना॑नि । बृह॒स्पति॑ना । अ॒कृ॒प॒य॒त् । व॒ल: । गा: ॥ अ॒न॒नु॒ऽकृ॒त्यम् । अ॒पु॒नरिति॑ । च॒का॒र॒ । यात् । सूर्या॒मासा॑ । मि॒थ: । उ॒त्ऽचरा॑त: ॥१६.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
हिमेव पर्णा मुषिता वनानि बृहस्पतिनाकृपयद्वलो गाः। अनानुकृत्यमपुनश्चकार यात्सूर्यामासा मिथ उच्चरातः ॥
स्वर रहित पद पाठहिमाऽइव । पर्णा । मुषिता । वनानि । बृहस्पतिना । अकृपयत् । वल: । गा: ॥ अननुऽकृत्यम् । अपुनरिति । चकार । यात् । सूर्यामासा । मिथ: । उत्ऽचरात: ॥१६.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(हिमा इव) जैसे हिम [महाशीत] से (मुषिता) उजाड़े गये (पर्णा) पत्तों की (वनानि) वृक्ष, [वैसे ही] (बृहस्पतिना) बृहस्पति [महाविद्वान्] के कारण से (वलः) हिंसक दुष्ट ने (गाः) वेदवाणियों को (अकृपयत्) माना। (अननुकृत्यम्) दूसरों से न करने योग्य, (अपुनः) सबसे बढ़कर कर्म (चकार) उस [महाविद्वान्] ने किया है, (यात्) जैसे (सूर्यामासा) सूर्य और चन्द्रमा (मिथः) आपस में (उच्चरातः) उत्तमता से चलते हैं ॥१०॥
भावार्थ
जैसे जाड़े के मारे वृक्ष सूख जाते हैं, वैसे ही विद्वान् पुरुष वेदवाणी के प्रभाव से दुष्टों को मारकर अनुपम कर्म करता हुआ सूर्य और चन्द्रमा के समान सन्मार्ग पर चलता रहे ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(हिमा) हिमेन। महाशीतेन (इव) यथा (पर्णा) पर्णानि। वृक्षपत्राणि (मुषिता) मुषितानि। नाशितानि (वनानि) वृक्षाः (बृहस्पतिना) महाविदुषः पुरुषस्य कारणेन (अकृपयत्) कृप चिन्तने-लङ्। अचिन्तयत्। कल्पितवान् (वलः) हिंसको दुष्टः (गाः) वेदवाणीः (अननुकृत्यम्) सांहितिको दीर्घः। अननुकरणीयम्। अन्यैः कर्तुम् अशक्यम् (अपुनः) प्राततेररन्। उ० ।९। पन स्तुतौ-अरन्, अस्य उत्वम्। नास्ति पुनः स्तुत्यं यस्मात् तत्। अत्यन्तस्तुत्यं कर्म (चकार) कृतवान् (यात्) छान्दसो दीर्घः। यत्। यथा (सूर्यामासा) माङ् माने असुन्। मस्यते परिमीयते स्वकलावृद्धिहानिभ्यामिति माश्चन्द्रमाः। (मिथः) परस्परम् (उच्चरातः) उत्तमतया चरतः, गच्छतः ॥
विषय
सूर्यामासा मिथ उच्चरात:
पदार्थ
१. (इव) = जैसे (हिमा) = बर्फ (पर्णा) = पत्तों को नि:सार करके चुरा-सा लेती है, इसी प्रकार (बृहस्पतिना) = ज्ञान के स्वामी प्रभु के द्वारा (बवनानि) = सम्भजनीय गोधन-ज्ञानवाणीरूप धन (मुषिता) = वृत्रासुर ने हर लिये, (वल) = ज्ञान की आवरणभूत इस वासना ने तो-वृत्र ने तो (गा: अकृपयत्) = इन ज्ञानवाणीरूप गौओं को बड़ा निर्बल कर दिया था [कृप् to beweak]। बृहस्पति ने वल [वृत्र] को विनष्ट करके इन ज्ञानधेनुओं को फिर से हमें प्रास कराया है। २. परमात्मा ने (अनानुकृत्यम्) = अन्यों से न अनुकरणीय, तथा (अपुनः) = पुनः करणरहित, अर्थात् दुबारा जिसे करने की आवश्यकता न हो इस प्रकार (चकार) = यह कर्म किया है । (यात्) = जब [यात्-यत्] हमारे जीवनों में (सूर्यामासा) = सूर्य और चन्द्र (मिथ:) = परस्पर मिलकर (उच्चरात:) = उद्गत होते हैं। हमारे जीवनों में ज्ञान का सूर्य व विज्ञान का चन्द्र इकटे ही उदित होते हैं। भौतिक क्षेत्र में भी दाहिने नासिका छिद्र से सूर्यस्वर तथा बाएँ से चन्द्रस्वर उच्चारित होते हैं। ये ही प्राण और अपान हैं ये मिलकर कार्य करते हैं। इनके ठीक कार्य करने पर हम स्वस्थ बुद्धि बनकर ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त करनेवाले बनते हैं।
भावार्थ
प्रभु वृत्र को विनष्ट कर ज्ञानधेनु को हमें प्राप्त कराते हैं। प्रभु का यह वृत्र-विनाश द्वारा ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त कराना एक अद्भुत ही कार्य है।
भाषार्थ
(हिमा इव) हेमन्त ऋतु द्वारा जैसे (वनानि) वनों के (पर्णा=पर्णानि) पत्ते (मुषिता=मुषितानि) मानो लूट लिए जाते हैं, वैसे (बृहस्पतिना) वायु ने (वलः=वलस्य) घेरा डालनेवाले मेघ के (गाः) जलों को (अकृपयत्) लूटकर उनपर मानो कृपा की। मेघ को वायु ने (अनानुकृत्यम्) घेरा डालने के कर्म को न कर सकने योग्य, और (अपुनः) पुनः घेरा डालने के अयोग्य (चकार) कर दिया। (यात्) तब से (सूर्यमासा=सूर्यामासौ) सूर्य और चन्द्रमस् (मिथः) साथ-साथ (उत् चरातः) आकाश में फिर उदित होने लगते हैं।
टिप्पणी
[वलः=वल्+क्विप्+षष्ठ्येकवचन। सूर्यमासा=सूर्य और मस् (=चन्द्रमस्)। आधिभौतिक में सेनापति जब घेरा डालनेवाले शत्रुओं की भूमियाँ जीत लेता है, तब वह उन्हें कठोर दण्ड न देकर उन पर कृपा दर्शाता है। तदनन्तर शत्रु पुनः आक्रमण कार्य न कर सकें, उन्हें ऐसा कर दिया जाता है। अर्थात् उन्हें शस्त्रास्त्रों से वञ्चित कर दिया जाता है। मन्त्र में वर्षाकाल की समाप्ति का वर्णन हुआ है।
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
Just as the leaves of forest trees are made to fall by winter, so darkness is dispelled and light is created, so is ignorance dispelled and the light of Vedic revelation revealed by Brhaspati, and that is an act he does unparalleled and unrepeated as long as the sun and moon shine together and illuminate the days and nights. 10. Just as the leaves of forest trees are made to fall by winter, so darkness is dispelled and light is created, so is ignorance dispelled and the light of Vedic revelation revealed by Brhaspati, and that is an act he does unparallelled and unrepeated as long as the sun and moon shine together and illuminate the days and nights.
Translation
Vala, the cloud like the trees for the foliage beaten by - frost takes the rays brought away by Brihaspati as the same. It is the deed never done and never to be equalled. On this basis the sun and moon ascend alternately.
Translation
Vala, the cloud like the trees for the foliage beaten by frost takes the rays brought away by Brihaspati as the same. It is the deed never done and never to be equaled. On this basis the sun and moon ascend alternately.
Translation
Just as the leaves of the trees of the jungles are withered away by frost or snow, similarly the Vedic Richas are imbibed and their vocal form strengthened and energised by the great Vedic seer. This act of revelation is done by none else and not repeated again (i.e., It is done once only in the very beginning of the creation only). From thence the teacher and the disciple, like the sun and the moon, together repeat the same Vedic Lore between themselves (i.e., The Vedic lore, once revealed in the beginning of the universe, is transferred from the teacher to the disciple from generation to generation till its end).
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(हिमा) हिमेन। महाशीतेन (इव) यथा (पर्णा) पर्णानि। वृक्षपत्राणि (मुषिता) मुषितानि। नाशितानि (वनानि) वृक्षाः (बृहस्पतिना) महाविदुषः पुरुषस्य कारणेन (अकृपयत्) कृप चिन्तने-लङ्। अचिन्तयत्। कल्पितवान् (वलः) हिंसको दुष्टः (गाः) वेदवाणीः (अननुकृत्यम्) सांहितिको दीर्घः। अननुकरणीयम्। अन्यैः कर्तुम् अशक्यम् (अपुनः) प्राततेररन्। उ० ।९। पन स्तुतौ-अरन्, अस्य उत्वम्। नास्ति पुनः स्तुत्यं यस्मात् तत्। अत्यन्तस्तुत्यं कर्म (चकार) कृतवान् (यात्) छान्दसो दीर्घः। यत्। यथा (सूर्यामासा) माङ् माने असुन्। मस्यते परिमीयते स्वकलावृद्धिहानिभ्यामिति माश्चन्द्रमाः। (मिथः) परस्परम् (उच्चरातः) उत्तमतया चरतः, गच्छतः ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
বিদ্বদ্গুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(হিমাইব) যেমন হিম [মহাশীত] এর কারণে (মুষিতা) বিনষ্ট (পর্ণা) পাতার (বনানি) বৃক্ষ, [তেমনি] (বৃহস্পতিনা) বৃহস্পতি [মহাবিদ্বান্] এর কারণে (বলঃ) হিংসক দুষ্ট (গাঃ) বেদবাণীসমূহকে (অকৃপয়ৎ) মান্য করেছে। (অননুকৃত্যম্) অপরের দ্বারা করার অযোগ্য, (অপুনঃ) অত্যন্ত প্রশংসনীয় কর্ম (চকার) সেই [মহাবিদ্বান্] করেছেন, (যাৎ) যেরূপে (সূর্যামাসা) সূর্য এবং চন্দ্র (মিথঃ) পরস্পরের সাথে (উচ্চরাতঃ) উত্তমরূপে চলে॥১০॥
भावार्थ
শীতের প্রকোপে বৃক্ষ যেমন শুকিয়ে যায়, তেমনি বিদ্বান্ মনুষ্য বেদবাণীর প্রভাব দ্বারা দুষ্টদের হনন করে অনুপম কর্ম করে, সূর্য ও চন্দ্রের সমান সন্মার্গে চলতে থাকে॥১০॥
भाषार्थ
(হিমা ইব) হেমন্ত ঋতু দ্বারা যেমন (বনানি) বনের (পর্ণা=পর্ণানি) পাতা (মুষিতা=মুষিতানি) মানো লুটপাট/হরণ করে, তেমনই (বৃহস্পতিনা) বায়ু (বলঃ=বলস্য) বেষ্টনকারী/আবরণকারী মেঘের (গাঃ) জল (অকৃপয়ৎ) লুট/হরণ করে মানো কৃপা করেছে। মেঘকে বায়ু (অনানুকৃত্যম্) আবরণ কর্ম করার অযোগ্য, এবং (অপুনঃ) পুনঃ আবরণ করার অযোগ্য (চকার) করেছে। (যাৎ) তখন থেকে (সূর্যমাসা=সূর্যামাসৌ) সূর্য এবং চন্দ্রমস্ (মিথঃ) একসাথে (উৎ চরাতঃ) আকাশে পুনঃ উদিত হয়।
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