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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१६
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    आ॑प्रुषा॒यन्मधु॑ना ऋ॒तस्य॒ योनि॑मवक्षि॒पन्न॒र्क उ॒ल्कामि॑व॒ द्योः। बृह॒स्पति॑रु॒द्धर॒न्नश्म॑नो॒ गा भूम्या॑ उ॒द्नेव॒ वि त्वचं॑ बिभेद ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽप्रु॒षा॒यन् । मधु॑ना । ऋ॒तस्य॑ । योनि॑म् । अ॒व॒ऽक्षि॒पन् ।अ॒र्क: । उ॒ल्काम्ऽइ॑व । द्यौ: ॥ बृह॒स्पति॑: । उ॒द्धर॑न् । अश्म॑न: । गा: । भूम्या॑: । उ॒द्नाऽइ॑व । वि । त्वच॑म् । बि॒भे॒द॒ ॥१६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आप्रुषायन्मधुना ऋतस्य योनिमवक्षिपन्नर्क उल्कामिव द्योः। बृहस्पतिरुद्धरन्नश्मनो गा भूम्या उद्नेव वि त्वचं बिभेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽप्रुषायन् । मधुना । ऋतस्य । योनिम् । अवऽक्षिपन् ।अर्क: । उल्काम्ऽइव । द्यौ: ॥ बृहस्पति: । उद्धरन् । अश्मन: । गा: । भूम्या: । उद्नाऽइव । वि । त्वचम् । बिभेद ॥१६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्वानों के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (मधुना) ज्ञान के साथ (ऋतस्य) सत्य के (योनिम्) घर [वेद] को (आप्रुषायन्) सब प्रकार सींचते हुए और (द्योः) आकाश से (उल्काम् इव) उल्का [गिरते हुए चमकते तारे] के समान (अवक्षिपन्) फैलाते हुए और (उद्धरन्) ऊँचे धरते हुए, (अर्कः) पूजनीय (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी वेदविद्या के रक्षक महाविद्वान्] ने (अश्मनः) व्यापक [परमात्मा] की (गाः) वाणियों को (वि बिभेद) फैलाया है, (उद्ना इव) जैसे जल से (भूम्याः) भूमि की (त्वचम्) त्वचा को [फैलाते हैं] ॥४॥

    भावार्थ

    महाविद्वान् पुरुष विचार के साथ वेदविद्या को बढ़ावे और आकाश से गिरते चमकते तारे के समान प्रकाशमान करे और उच्चभाव के साथ उसे विविध प्रकार फैलावे, जैसे पृथिवी जल से फैलकर उपकारी होती है ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(आप्रुषायन्) प्रुष स्नेहनसेचनपूरणेषु-शतृ, विकरणस्य शायजादेशः। सर्वतः सिञ्चन् (मधुना) फलिपाटिनमिमनिजनां०। उ० १।१८। मन ज्ञाने-उप्रत्ययः, नस्य धः। ज्ञानेन (ऋतस्य) सत्यस्य (योनिम्) गृहम्। वेदम् (अवक्षिपन्) विस्तारयन् (अर्कः) पूजनीयः (उल्काम्) रेखाकारे गगनात् पतत्तेजःपुञ्जम् (इव) यथा (द्योः) आकाशात् (बृहस्पतिः) (उद्धरन्) ऊर्ध्वं स्थापयन् (अश्मनः) अशिशकिभ्यां छन्दसि। उ० ४।१४७। अशू व्याप्तौ-मनिन्। व्यापकस्य परमेश्वरस्य (गाः) वाणीः (भूम्याः) पृथिव्याः (उद्ना) उदकेन (इव) यथा (त्वचम्) उपरिदेशम् (वि बिभेद) विस्तारयामास ॥

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    विषय

    अर्क:-बृहस्पतिः

    पदार्थ

    १. (मधुना) = जीवन को मधुर बनानेवाले सोम [वीर्य] के द्वारा (आप्रुषायन्) = शरीर-भूमि को सर्वत: सिक्त करता हुआ और (ऋतस्य योनिम्) = सत्य वेदज्ञान के उत्पत्तिस्थान प्रभु को (अवक्षिपन्) = [अवाङ् मुखं प्रेरयन्] अपने अन्दर प्रेरित करता हुआ (अर्क:) = उपासक (त्वचम्) = अज्ञानान्धकार के आवरण को (विबिभेद) = विदीर्ण कर डालता है। इसप्रकार विदीर्ण कर डालता है, (इव) = जैसेकि (उद्ना) = जल से (भूम्या:) = भूमि की त्वचा को विदीर्ण कर दिया जाता है। २. यह उपासक द्यो: उल्काम् (इव) = जिस प्रकार आकाश से उल्का [flame] अग्नि-ज्वाला को, इसीप्रकार ज्ञान को अपने अन्दर प्रेरित करता हुआ (बृहस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी बनता है और (अश्मन:) = अविद्यान्धकाररूप पर्वत से गा: इन्द्रियरूप गौओं को (उद्धरन्) = उद्धृत करता हुआ होता है। धीमे-धीमे अविद्या के विनाश के द्वारा सब इन्द्रियों को दीप्त करनेवाला बनता है।

    भावार्थ

    हम शरीर में सोम का सर्वत:सेचन करें। प्रभु व ज्ञान को अपने हृदयों में प्रेरित करते हुए इन्द्रियों को अविद्यान्धकार से बाहर करें।

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    भाषार्थ

    (आ प्रुषायन्) पृथिवी को सम्यक् रूप से जल द्वारा स्निग्ध करते हुए (बृहस्पतिः) बृहस्पति ने (मधुनः) मधुर (ऋतस्य) जल के (योनिम्) उत्पादक मेघ को (अवक्षिपन्) नीचे पृथिवी पर ऐसे फैंका, (इव) जैसे कि (अर्कः) सूर्य (द्योः) द्युतिमान् आकाश से या द्युलोक से (उल्काम्) दधकते पत्थर को फैंकता है। तथा (अश्मनः) आकाश में फैले मेघ से (गाः) जलों का (उद्धरन्) उद्धार करते हुए बृहस्पति अर्थात् वायु ने (त्वचम्) मेघ की त्वचा को (बिभेद) काट दिया। (इव) जैसे (उद्नः) जल (भूम्याः) भूमि की, (त्वचम्) त्वचा को, ऊपर के स्तर को (वि बिभेद) काट देता है।

    टिप्पणी

    [आ प्रुषायन् = प्रुष् स्नेहने। ऋतस्य= जलस्य (निघं० १।१२)। उल्काम्= उल् दाहे। A fiery Phenomenon in the sky, a meteor (आप्टे)। अश्मनः = अश्मा मेघः (निघं० १।१०), अशूङ् व्याप्तौ। गाः= जलानि (उणा० २।६८), रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़, सोनीपत-हरयाणा। उह्नः = वहति हलम् शकटम् । वह (= उह्) + क्त (=न), कर्तरि। उह्नः इव = उह्नेव, छान्दस सन्धि। उह्नः = A bull (बैल), आप्टे।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    Sprinkling the womb of life with honey sweets of vitality like the sun radiating the rays of light from the regions of heaven, Brhaspati recovers the showers of life from the clouds and, as showers of water seep into the crust of earth, so the seeds of life are vested and borne in the earth. Sprinkling the womb of life with the honey sweets of vitality like the sun radiating the rays of light from the regions of heaven, Brhaspati recovers the showers of life from the clouds and, as showers of water seep into the crust of earth, so the seeds of life are vested and borne in the earth.

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    Translation

    Brihaspati, the atmospheric heat moistening the earth with water; sending down the cloud which is the strore of water as the sun casts a flaming meteor down from heaven and taking away showers from cloud now cleave the crust of the earth with water.

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    Translation

    Brihaspati, the atmospheric heat moistening the earth with water; sending down the cloud which is the store of water as the sun casts a flaming meteor down from heaven and taking away showers from cloud now cleave the crust of the earth with water.

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    Translation

    Just as the Sun, felling down the cloud (i.e., the store-house of water, completely irrigates the earth with water, so does a Vedic scholar, picking up Vedic speeches from the Omnipresent God, dispels the darkness of ignorance from his disciple’s heart, as the crust of the earth is corroded away by water.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(आप्रुषायन्) प्रुष स्नेहनसेचनपूरणेषु-शतृ, विकरणस्य शायजादेशः। सर्वतः सिञ्चन् (मधुना) फलिपाटिनमिमनिजनां०। उ० १।१८। मन ज्ञाने-उप्रत्ययः, नस्य धः। ज्ञानेन (ऋतस्य) सत्यस्य (योनिम्) गृहम्। वेदम् (अवक्षिपन्) विस्तारयन् (अर्कः) पूजनीयः (उल्काम्) रेखाकारे गगनात् पतत्तेजःपुञ्जम् (इव) यथा (द्योः) आकाशात् (बृहस्पतिः) (उद्धरन्) ऊर्ध्वं स्थापयन् (अश्मनः) अशिशकिभ्यां छन्दसि। उ० ४।१४७। अशू व्याप्तौ-मनिन्। व्यापकस्य परमेश्वरस्य (गाः) वाणीः (भूम्याः) पृथिव्याः (उद्ना) उदकेन (इव) यथा (त्वचम्) उपरिदेशम् (वि बिभेद) विस्तारयामास ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    বিদ্বদ্গুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (মধুনা) জ্ঞানের সহিত (ঋতস্য) সত্যের (যোনিম্) ঘর [বেদ] কে (আপ্রুষায়ন্) সকল প্রকারে সীঞ্চনের মাধ্যমে এবং (দ্যোঃ) আকাশ থেকে (উল্কাম্ইব) উল্কা [পতনশীল চমকিত তারা] এর সদৃশ (অবক্ষিপন্) বিস্তার করার মাধ্যমে এবং (উদ্ধরন্) উঁচুতে করার মাধ্যমে, (অর্কঃ) পূজনীয় (বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি [মহান বেদবিদ্যার রক্ষক মহান বিদ্বান্] (অশ্মনঃ) ব্যাপক [পরমাত্মা] এর (গাঃ) বাণীসমূহকে (বিবিভেদ) বিস্তার করেছে, (উদ্নাইব) যেরূপে জল দ্বারা (ভূম্যাঃ) ভূমির (ত্বচম্) ত্বককে [বিস্তার করে] ॥৪॥

    भावार्थ

    মহাবিদ্বান্ মনুষ্য বিচারপূর্বক বেদবিদ্যার বিস্তার করুক এবং আকাশ থেকে পতনশীল চমকিত তারার সদৃশ প্রকাশমান করুক এবং উচ্চ ভাবসহিত উহাকে বিবিধ প্রকারে বিস্তার করুক, যেরূপে পৃথিবী জল দ্বারা বিস্তার হয়ে উপকারী হয়॥৪॥

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    भाषार्थ

    (আ প্রুষায়ন্) পৃথিবীকে সম্যক্ রূপে জল দ্বারা স্নিগ্ধ করে (বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি (মধুনঃ) মধুর (ঋতস্য) জলের (যোনিম্) উৎপাদক মেঘকে (অবক্ষিপন্) নীচে পৃথিবীতে এমনভাবে নিক্ষেপ করেছেন, (ইব) যেমন (অর্কঃ) সূর্য (দ্যোঃ) দ্যুতিমান্ আকাশ থেকে বা দ্যুলোক থেকে (উল্কাম্) দগ্ধ পাথর/উল্কাপিন্ড নিক্ষেপ করে। তথা (অশ্মনঃ) আকাশে বিস্তৃত মেঘ থেকে (গাঃ) জলের (উদ্ধরন্) উদ্ধার করে বৃহস্পতি অর্থাৎ বায়ু (ত্বচম্) মেঘের ত্বককে (বিভেদ) বিভাগ করেছে। (ইব) যেমন (উদ্নঃ) জল (ভূম্যাঃ) ভূমির, (ত্বচম্) ত্বককে, উপরের স্তরকে (বি বিভেদ) বিভাগ করেছে।

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