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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१६
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    सा॑ध्व॒र्या अ॑ति॒थिनी॑रिषि॒रा स्पा॒र्हाः सु॒वर्णा॑ अनव॒द्यरू॑पाः। बृह॒स्पतिः॒ पर्व॑तेभ्यो वि॒तूर्या॒ निर्गा ऊ॑पे॒ यव॑मिव स्थि॒विभ्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सा॒धु॒ऽअ॒र्या: । अ॒ति॒थिनी॑: । इ॒षि॒रा: । स्पा॒र्हा: । सु॒ऽवर्णा॑: । अ॒न॒व॒द्यऽरू॑पा: ॥ बृह॒स्पति॑: । पर्व॑तेभ्य: । वि॒ऽतूर्य॑ । नि: । गा: । ऊ॒पे॒ । यव॑म्ऽइव । स्थि॒विऽभ्य॑: ॥१६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    साध्वर्या अतिथिनीरिषिरा स्पार्हाः सुवर्णा अनवद्यरूपाः। बृहस्पतिः पर्वतेभ्यो वितूर्या निर्गा ऊपे यवमिव स्थिविभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    साधुऽअर्या: । अतिथिनी: । इषिरा: । स्पार्हा: । सुऽवर्णा: । अनवद्यऽरूपा: ॥ बृहस्पति: । पर्वतेभ्य: । विऽतूर्य । नि: । गा: । ऊपे । यवम्ऽइव । स्थिविऽभ्य: ॥१६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्वानों के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (साध्वर्याः) साधुओं से पाने योग्य, (अतिथिनीः) अतिथियों को प्राप्त करानेवाली, (इषिराः) वेगवाली, (स्पार्हाः) चाहने योग्य (सुवर्णाः) सुन्दर रीति से स्वीकार योग्य, (अनवद्यरूपाः) अनिन्दित स्वभाववाली (गाः) वाणियों को (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी वेदवाणी के रक्षक महाविद्वान्] ने (वितूर्य) शीघ्रता करके (पर्वतेभ्यः) पर्वतों [के समान दृढ़चित्तों] के लिये, (स्थिविभ्यः) कोठियों [के भरने] के लिये (यवम् इव) जैसे अन्न को, (निः ऊपे) फैलाया है ॥३॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग उत्तम वेदवाणियों का प्रचार करके सबको ऐसा प्रसन्न करें, जैसे किसान लोग बीज बोकर अधिक अन्न प्राप्त करके आनन्दित होते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(साध्वर्याः) साधुभिः सज्जनैः प्राप्तव्याः (अतिथिनीः) अतिथि+णीञ् प्रापणे-क्विप्। अतिथीनां प्रापयित्रीः (इषिराः) वेगशीलाः (स्पार्हाः) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। स्पृहा-अण्। स्पृहणीयाः। कमनीयाः (सुवर्णाः) सुष्ठु वरणीयाः (अनवद्यरूपाः) अनिन्दितस्वभावाः (बृहस्पतिः) (पर्वतेभ्यः) शैलतुल्यदृढस्वभावानां हिताय (वितूर्व) वि+तुर त्वरणे-ल्यप्। विविधवेगं कृत्वा (निः) निश्चयेन (ऊपे) डुवप बीजसन्ताने-लिट्। विस्तारितवान् (यवम्) अन्नम् (इव) यथा (स्थिविभ्यः) स्थवयः शूकुलाः, तान् भर्तं पूरयितुम् ॥

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    विषय

    पर्वतेभ्यः वितूर्य

    पदार्थ

    १. (बृहस्पति:) = ब्रह्मणस्पति-ज्ञान के स्वामी प्रभु (गा:) = इन्द्रियों को (पर्वतेभ्य:) = अविद्यापर्वतों से (वितूर्य) = पृथक् करके बाहर करके (नि: ऊपे) = स्तोताओं के लिए [निर्वपति-प्रयच्छति] देते हैं। (इव) = जिस प्रकार (स्थिविभ्यः) = कुसूलों से-खत्तियों से निकालकर (यवम्) = जी को। अथवा (स्थिविभ्यः) = स्थिर यवकाण्डों से पृथक् करके यवों को हमारे लिए देते हैं। २. ये इन्द्रियाँ साधु (अर्याः) = सदा उत्तम कार्यों की ओर गतिवाली होती हैं। (अतिथिनी:) = प्रभुरूप अतिथि की ओर निरन्तर चलनेवाली होती हैं, अतएव ये (इषिरा:) = एषणीय [चाहने योग्य] व (स्पार्हा:) = सबसे स्पृहणीय, (सुवर्णा:) = उत्तम वर्ण-[रूप]-वाली व (अनवद्यरूपा:) = प्रशस्तरूपवाली होती हैं।

    भावार्थ

    हम प्रभु की उपासना करें। प्रभु हमें पवित्र इन्द्रियों को प्राप्त कराएंगे। हमारी इन्द्रियाँ अविद्यापर्वत से बाहर आ जाएँगी।

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    भाषार्थ

    (साध्वर्याः) अन्तरिक्ष-स्थित मेघ के साथ रहनेवाले, (अतिथिनीः) सदा गतिशील, (इषिराः) प्रजा द्वारा इष्ट, (स्पार्हाः) तथा स्पृहणीय, (सुवर्णाः) स्वच्छ, और (अनवद्यरूपाः) पवित्र (गाः) गतिशील जलों को, (पर्वतेभ्यः) मेघों से (वितूर्या=वितूर्य) काट कर, (बृहस्पतिः) महाब्रह्माण्ड के पति परमेश्वर ने (निर् ऊपे) पृथिवी पर उपजाऊ रूप में भेजा है। (इव) जैसे कि (स्थिविभ्यः) क्षेत्र-स्थलों से काट कर किसान (यवम्) जौ आदि अन्न देते हैं।

    टिप्पणी

    [अतिथिनीः=अत् सातत्यगमने+इथिन्+ङी (स्त्रियाम्)। इषिराः=इषु इच्छायाम्। गाः=गमनशील जल (उणा০ कोश, पाद २, सूत्र ६७ पर महर्षि दयानन्द)। स्थिविः=क्षेत्रस्थल?। साध्वर्याः=अध्वर= अन्तरिक्ष (निघं০ १.३); अध्वर्यः=अध्वरीय=अन्तरिक्षस्थ। साध्वर्याः=अन्तरिक्षस्थ मेघ के साथी।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    Replete with pure, living energy, ever on the move, loved, coveted, brilliant golden, beautiful in form, such are the rays of light and vitality which Brhaspati, the sun, recovers from the deep caverns of darkness and sends them down to clouds and earth as a farmer sows the seeds of barley in the field. 3. Replete with pure, living energy, ever on the move, loved, coveted, brilliant golden, beautiful in form, such are the rays of light and vitality which Brhaspati, the sun, recovers from the deep caverns of darkness and sends them down to clouds and earth as a farmer sows the seeds of barley in the field.

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    Translation

    Brihaspati, the atmospheric heat having won them from the clouds like the barley from winnowing-baskets spread out the showers of rainy waters which possess direct flow, which are sent down by the sun (Atithi) which are moving, desirable by all; are of good colour and pure in their forms.

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    Translation

    Brihaspati, the atmospheric heat having won them from the clouds tike the barley from winnowing-baskets spread out the showers of rainy waters which possess direct flow, which are sent down by the sun (Atithi) which are moving, desirable by all; are of good color and pure in their forms.

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    Translation

    Just as a farmer separates pure barley from the husks from the winnowing baskets, so does the Sun release from the clouds it's straight, pure, useful (hence worthy of respect) the fast-moving, charming, beautiful rays of blameless form; and so does a Vedic scholar separate from the nourishing parents their daughters, the would-be good house-wives, respectable like a guest, moved by desire for domestic life, lovable, good-looking and of blemishless form, and offers them in marriage to the well-disciplined persons for procreation like the meteor from the sky.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(साध्वर्याः) साधुभिः सज्जनैः प्राप्तव्याः (अतिथिनीः) अतिथि+णीञ् प्रापणे-क्विप्। अतिथीनां प्रापयित्रीः (इषिराः) वेगशीलाः (स्पार्हाः) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। स्पृहा-अण्। स्पृहणीयाः। कमनीयाः (सुवर्णाः) सुष्ठु वरणीयाः (अनवद्यरूपाः) अनिन्दितस्वभावाः (बृहस्पतिः) (पर्वतेभ्यः) शैलतुल्यदृढस्वभावानां हिताय (वितूर्व) वि+तुर त्वरणे-ल्यप्। विविधवेगं कृत्वा (निः) निश्चयेन (ऊपे) डुवप बीजसन्ताने-लिट्। विस्तारितवान् (यवम्) अन्नम् (इव) यथा (स्थिविभ्यः) स्थवयः शूकुलाः, तान् भर्तं पूरयितुम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    বিদ্বদ্গুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (সাধ্বর্যাঃ) সাধুগণ হতে প্রাপ্তিযোগ্য, (অতিথিনীঃ) অতিথিগণ প্রদায়ী/অতিথিগণের প্রেরক, (ইষিরাঃ) বেগশীল/দ্রুতগামী/গতিশীল, (স্পার্হাঃ) কামনাযোগ্য/কমনীয়/স্পৃহনীয় (সুবর্ণাঃ) যথাযোগ্য/উত্তমরূপে বরণীয়/স্বীকারযোগ্য, (অনবদ্যরূপাঃ) অনিন্দিত স্বভাবযুক্ত (গাঃ) বাণীসমূহকে (বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি [মহান বেদবাণীর রক্ষক মহাবিদ্বান্] (বিতূর্য) শীঘ্রতাপূর্বক (পর্বতেভ্যঃ) পর্বত-সমূহ [এর সমান দৃঢ় চিত্ত] এর জন্য, (স্থিবিভ্যঃ) কুঠিসমূহ [পূর্ণ করা] র জন্য (যবম্ ইব) যেইরূপ অন্নকে, (নিঃ ঊপে) বিস্তারিত করেছে ॥৩॥

    भावार्थ

    বিদ্বানগণ উত্তম বেদবাণীর প্রচার দ্বারা সকলকে এইরূপ প্রসন্ন করে, যেরূপ কৃষক, বীজ বপন করে অধিক অন্ন প্রাপ্ত করে আনন্দিত হয়॥৩॥

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    भाषार्थ

    (সাধ্বর্যাঃ) অন্তরিক্ষ-স্থিত মেঘের সাথে বর্তমান, (অতিথিনীঃ) সদা গতিশীল, (ইষিরাঃ) প্রজা দ্বারা ইষ্ট, (স্পার্হাঃ) তথা স্পৃহণীয়, (সুবর্ণাঃ) স্বচ্ছ, এবং (অনবদ্যরূপাঃ) পবিত্র (গাঃ) গতিশীল জলকে, (পর্বতেভ্যঃ) মেঘ থেকে (বিতূর্যা=বিতূর্য) কর্তন করে, (বৃহস্পতিঃ) মহাব্রহ্মাণ্ডের পতি পরমেশ্বর (নির্ ঊপে) পৃথিবীতে উর্বর রূপে প্রেরিত করেছেন। (ইব) যেমন (স্থিবিভ্যঃ) ক্ষেত্র-স্থল থেকে কেটে কৃষক (যবম্) যব আদি অন্ন দেয়।

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