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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१६
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    य॒दा व॒लस्य॒ पीय॑तो॒ जसुं॒ भेद्बृह॒स्पति॑रग्नि॒तपो॑भिर॒र्कैः। द॒द्भिर्न जि॒ह्वा परि॑विष्ट॒माद॑दा॒विर्नि॒धीँर॑कृणोदु॒स्रिया॑णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒दा । व॒लस्य॑ । पीय॑त: । जसु॑म् । भेत् । बृह॒स्पति॑: । अ॒ग्नि॒तप॑:ऽभि: । अ॒र्कै: । द॒त्ऽभि: । न । जि॒ह्वा । परि॑ऽविष्टम् । आद॑त् । आ॒वि: । नि॒ऽधीन् । अ॒कृ॒णो॒त् । उ॒स्रिया॑णाम् ॥१६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदा वलस्य पीयतो जसुं भेद्बृहस्पतिरग्नितपोभिरर्कैः। दद्भिर्न जिह्वा परिविष्टमाददाविर्निधीँरकृणोदुस्रियाणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदा । वलस्य । पीयत: । जसुम् । भेत् । बृहस्पति: । अग्नितप:ऽभि: । अर्कै: । दत्ऽभि: । न । जिह्वा । परिऽविष्टम् । आदत् । आवि: । निऽधीन् । अकृणोत् । उस्रियाणाम् ॥१६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्वानों के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यदा) जब (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी वेदवाणी के रक्षक महाविद्वान्] ने (अग्नितपोभिः) अग्नि समान तेजवाले (अर्कैः) पूजनीय पण्डितों के साथ (पीयतः) हिंसक (वलस्य) असुर के (जसुम्) हथियार को (भेत्) तोड़ डाला, (न) जैसे (दद्भिः) दाँतों से (परिविष्टम्) घेरे हुए [भोजन] को (जिह्वा) जीभ ने (आदत्) खाया हो, और (उस्रियाणाम्) निवास करनेवाली [प्रजाओं] के (निधीन्) निधियों [सुवर्ण आदि के कोशों] को (आविः अकृणोत्) खोल दिया ॥६॥

    भावार्थ

    जैसे जीभ दाँतों से घेरे हुए अन्न को खाकर सब अङ्गों को पुष्ट करती है, वैसे ही विद्वान् पुरुष प्रतापी शूर युद्धपण्डितों के साथ दुष्टों को मारकर प्रजा के धनों को बढ़ाकर राज्य में उन्नति करे ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(यदा) यस्मिन् काले (वलस्य) दुष्टस्य। दैत्यस्य (पीयतः) हिंसकस्य (जसुम्) जसु ताडने हिंसायां च-उप्रत्ययः। आयुधम् (भेत्) अभेत्। अभिनत् (बृहस्पतिः) (अग्नितपोभिः) अग्निवत्तेजस्विभिः (अर्कैः) पूजनीयैः पण्डितैः सह (दद्भिः) दन्तशब्दस्य दद्भावः। दन्तः (न) यथा (जिह्वा) रसना (परिविष्टम्) विष्लृ व्याप्तौ-क्त। वेष्टितम्। परिगृहीतं भोजनम् (आदत्) अद भक्षणे-लङ्। अभक्षयत् (आविरकृणोत्) स्पष्टीकृतवान् (निधीन्) सुवर्णादिकोशान् (उस्रियाणाम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ–० २।१३। वस निवासे-रक्, स्वार्थे घप्रत्ययः, टाप्। निवासशीलानां प्रजानाम् ॥

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    विषय

    वल जसु-भेदन

    पदार्थ

    १. (बृहस्पति:) = ज्ञान का स्वामी प्रभु (यदा) = जब (पीयत:) = हिंसा करनेवाले (वलस्य) = ज्ञान के आवरणभूत काम के (जसुम्) = विनाशक प्रभाव को (अग्नितपोभिः) = अग्नि के समान दीप्त (अर्कैः अर्चन) = साधन मन्त्रों से भेद-विनष्ट कर डालता है तब (उस्त्रियाणाम्) = ज्ञानरश्मियों [ light] के निधीन्-कोशों को आविः अकृणोत्-प्रकट करता है। २. न-जिस प्रकार जिला परिविष्टम्-जिह्वा परोसे हुए भोजन को दद्धिः दाँतों से आदत्-खाती है, उसीप्रकार प्रभु वल-वृत्र-काम के विनाशक प्रभाव को खा जाते हैं। हृदय में प्रभु के आसीन होने पर वहाँ से काम विनष्ट हो जाता है।

    भावार्थ

    प्रभु ज्ञान की वाणियों के द्वारा वासना-जनित अन्धकार को विनष्ट करते हैं और ज्ञान-रश्मियों के कोश को प्रकट कर देते हैं।

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    भाषार्थ

    (यदा) जब (बृहस्पतिः) वायु (अग्नितपोभिः) अग्नि के समन परितप्त (अर्कैः) सूर्य-किरणों द्वारा (पीयतः) मानो जल को पी जानेवाले अर्थात् न बरसानेवाले, और (वलस्य) आकाश को घेरनेवाले मेघ की (जसुम्) हिंस्रवृत्ति को (भेद्) विनष्ट कर देता है, तब (दद्भिः) दान्तों द्वारा (परिविष्टम्) घिरी (जिह्वा न) जिह्वा के समान, मेघ द्वारा घिरे जल को वायु, (आदत्) प्राप्त कर लेती है, और (उस्रियाणाम्) नदियों के (निधीन्) निधिस्वरूप जल को (आविः अकृणोत्) प्रकट कर देती है।

    टिप्पणी

    [पीयतः=पी पाने (दिवादि)। वलस्य=आवरण डालनेवाले मेघ की, वृ आवरणे। जसुम्=जस हिंसायाम्। उस्रियाणाम्=नदीनाम् (निघं০ २.११)। मन्त्र में बृहस्पति पद द्वारा सेनापति का भी वर्णन हुआ है, जो कि आग्नेय शस्त्रों द्वारा तथा सूर्य की तप्त किरणों द्वारा, राष्ट्र पर घेरा डाले शत्रु के घेरे को तोड़ देता है। और घिरे राष्ट्र को शत्रु से छुड़ा कर प्रजाजनों की सम्पत्तियों को सुरक्षित कर देता है। उस्रियाः=उस्रा अर्थात् किरणों के सदृश शुद्ध-पवित्र प्रजाजन।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    When Brhaspati, with the flames of fire and rays of the light of his creative will, breaks through the darkness of nescience covering the primeval potential existence and takes it over as the tongue takes over the food crushed by teeth, then he opens up and reveals the vast reservoir of his energies of the dynamics of creative nature.6. When Brhaspati with the flames of fire and rays of the light of his creative will breaks through the darkness of nescience covering the primeval potential existence and takes it over as the tongue takes over the food crushed by teeth, then he opens up and reveals the vast reservoir of his energies of the dynamics of creative nature.

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    Translation

    Brihaspati, the Atmosphric heat, when with fiery lightnings cleavese effects of the violent cloud, consumes it as the tongues eat whatever has been chewed and compassed by teeth. This throws open the cover of the rays of the sun.

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    Translation

    Brihrspati, the Atmospheric heat, when with fiery lightning’s cleavese effects of the violent cloud, consumes it as the tongues eat whatever has been chewed and compassed by the teeth. This throws open the cover of the rays of the sun.

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    Translation

    When the Sun breaks away the force of the engulfing cloud by its heating rays, just as the tongue gulfs the morsel, chewn by the teeth, it breaks open the treasures of its rays, similarly, the Vedic scholar effacing the forces of the darkness of ignorance by his energising forces of knowledge, like the tongue taking in the morsel, well-hewn by the teeth, he lays bear the storehouse of beams of knowledge.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(यदा) यस्मिन् काले (वलस्य) दुष्टस्य। दैत्यस्य (पीयतः) हिंसकस्य (जसुम्) जसु ताडने हिंसायां च-उप्रत्ययः। आयुधम् (भेत्) अभेत्। अभिनत् (बृहस्पतिः) (अग्नितपोभिः) अग्निवत्तेजस्विभिः (अर्कैः) पूजनीयैः पण्डितैः सह (दद्भिः) दन्तशब्दस्य दद्भावः। दन्तः (न) यथा (जिह्वा) रसना (परिविष्टम्) विष्लृ व्याप्तौ-क्त। वेष्टितम्। परिगृहीतं भोजनम् (आदत्) अद भक्षणे-लङ्। अभक्षयत् (आविरकृणोत्) स्पष्टीकृतवान् (निधीन्) सुवर्णादिकोशान् (उस्रियाणाम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ–० २।१३। वस निवासे-रक्, स्वार्थे घप्रत्ययः, टाप्। निवासशीलानां प्रजानाम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    বিদ্বদ্গুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যদা) যখন (বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি [মহান বেদবাণীর রক্ষক মহান বিদ্বান্] (অগ্নিতপোভিঃ) অগ্নি সমান তেজযুক্ত (অর্কৈঃ) পূজনীয় পণ্ডিতগণের সহিত (পীয়তঃ) হিংসক (বলস্য) অসুরদের (জসুম্) অস্ত্রশস্ত্র (ভেৎ) ভঙ্গ করেছে, (ন) যেরূপ (দদ্ভিঃ) দন্তসমূহ দ্বারা (পরিবিষ্টম্) পরিবেষ্টিত [ভোজন] কে (জিহ্বা) জিহ্বা (আদৎ) আস্বাদন করে, এবং (উস্রিয়াণাম্) নিবাসকারী [প্রজাগণ] এর (নিধীন্) নিধিসমূহ [সুবর্ণাদির কোষসমূহ] কে (আবিঃ অকৃণোৎ) উন্মুক্ত করে দিয়েছে ॥৬॥

    भावार्थ

    জিহ্বা যেমন দাঁতের দ্বারা আবৃত অন্নকে আস্বাদন করে, অঙ্গসমূহকে পুষ্ট করে, তেমনই বিদ্বান ব্যক্তি প্রতাপী বীর যুদ্ধপণ্ডিতগণের সহিত মিলে দুষ্টসকলকে দমন করে প্রজার ধনসমূহ বৃদ্ধি করে রাজ্যে উন্নতি করে/করুক॥৬॥

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    भाषार्थ

    (যদা) যখন (বৃহস্পতিঃ) বায়ু (অগ্নিতপোভিঃ) অগ্নি সমান পরিতপ্ত (অর্কৈঃ) সূর্য-কিরণ দ্বারা (পীয়তঃ) মানো জল পানকারী, এবং (বলস্য) আকাশ আবরণকারী মেঘের (জসুম্) হিংস্রবৃত্তি (ভেদ্) বিনষ্ট করে দেয়, তখন (দদ্ভিঃ) দাঁতের দ্বারা (পরিবিষ্টম্) পরিবেষ্টিত (জিহ্বা ন) জিহ্বার সমান, মেঘ দ্বারা বেষ্টিত জলকে বায়ু, (আদৎ) প্রাপ্ত করে, এবং (উস্রিয়াণাম্) নদী-সমূহের (নিধীন্) নিধিস্বরূপ জল (আবিঃ অকৃণোৎ) প্রকট করে।

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