अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 9
सोषाम॑विन्द॒त्स स्वः सो अ॒ग्निं सो अ॒र्केण॒ वि ब॑बाधे॒ तमां॑सि। बृह॒स्पति॒र्गोव॑पुषो व॒लस्य॒ निर्म॒ज्जानं॒ न पर्व॑णो जभार ॥
स्वर सहित पद पाठस: । उ॒षाम् । अ॒वि॒न्द॒त् । स: । स्व॑१॒ रिति॑ स्व॑: । स: । अ॒ग्निम् । स: । अ॒र्केण॑ । वि । ब॒बा॒धे॒ । तमां॑सि ॥ बृह॒स्पति॑: । गोऽव॑पुष: । व॒लस्य॑ । नि: । म॒ज्जान॑म् । न । पर्व॑ण: । ज॒भा॒र॒ ॥१६.९॥
स्वर रहित मन्त्र
सोषामविन्दत्स स्वः सो अग्निं सो अर्केण वि बबाधे तमांसि। बृहस्पतिर्गोवपुषो वलस्य निर्मज्जानं न पर्वणो जभार ॥
स्वर रहित पद पाठस: । उषाम् । अविन्दत् । स: । स्व१ रिति स्व: । स: । अग्निम् । स: । अर्केण । वि । बबाधे । तमांसि ॥ बृहस्पति: । गोऽवपुष: । वलस्य । नि: । मज्जानम् । न । पर्वण: । जभार ॥१६.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(सः) उस (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी वेदविद्या के रक्षक महाविद्वान्] ने (उषाम्) उषा [प्रभातवेला के समान प्रकाशवती बुद्धि] को, (सः) उसने (स्वः) सुख को, (सः) उसने (अग्निम्) अग्नि [समान तेज] को (अविन्दत्) पाया है, (सः) उसने (अर्केण) पूजनीय विचार से (तमांसि) अन्धकारों को (वि बबाधे) हटा दिया है। उसने (गोवपुषः) वज्रसमान दृढ़ शरीरवाले (वलस्य) हिंसक असुर के (पर्वणः) जोड़ से (मज्जानम्) मींग को (न) अव (निः जभार) निकाल डाला है ॥९॥
भावार्थ
विद्वान् पुरुष उत्तम बुद्धि प्राप्त करके सुख के साथ तेजस्वी होकर अज्ञान का नाश कर दुष्टों को मिटावे ॥९॥
टिप्पणी
९−(सः) पूर्वोक्तः (उषाम्) उष दाहे-क, टाप्। (प्रभातवेलावत्) प्रकाशवतीं बुद्धिम् (अविन्दत्) विद्लृ लाभे-लङ्। अलभत (सः) (स्वः) सुखम् (सः) (अग्निम्) अग्निवत्प्रतापम् (सः) (अर्केण) पूजनीयेन विचारेण (वि) विशेषेण (बबाधे) बाधितवान्। निराचकार (तमांसि) अन्धकारान् (बृहस्पतिः) बृहत्या वेदवाण्याः रक्षकः (गोवपुषः) गौर्वज्रः। वज्रतुल्यदृढशरीरस्य (निः) बहिर्भावे (मज्जानम्) अ० १।११।४। अस्थिसारम् (न) संप्रति (पर्वणः) सन्धिप्रदेशात् (जभार) जहार। निनाय ॥
विषय
उषासूर्य-अग्नि-अर्क [मन्त्र]
पदार्थ
१. (स:) = वे प्रभु ही (उषाम्) = अन्धकार-विनाशिनी उषा को (अविन्दत्) = प्राप्त कराते हैं। (स:) = वे ही (स्व:) = प्रकाश के साधनभूत सूर्य को प्राप्त कराते हैं। (सः) = वे (अग्निम्) = यज्ञ आदि कर्मों के लिए अग्नि को प्राप्त कराते हैं। (सः) = वे (अर्केण) = अर्चनसाधन मन्त्रों के द्वारा (तमांसि) = अज्ञानान्धकारों को (विबबाधे) = दूर बाधित करते हैं। २. [वपुष-beauty] (गोवपुषः) = [गोभि: वपुष यस्य] ज्ञान की वाणियों के सौन्दर्यवाले (बृहस्पतिः) = [ब्रह्म] ज्ञान के स्वामी प्रभु वलस्य-ज्ञान के आवरणभूत वृत्र के विदारण के द्वारा निर्जभार-ज्ञान-धेनु को अविह्यापर्वत की गुहा से बाहर करते हैं, (न) = जिस प्रकार (पर्वण:) = अस्थिपर्व से (मजानम्) = मज्जा को बाहर किया जाता है। मन्त्र ९ तथा १० में प्रभु संकेत करते हैं कि [१] हे जीव ! तू उषाकाल में प्रबद्ध हो [२] सूर्योदय तक सारे नित्यकृत्यों को समाप्त करके [स्वः] अग्निहोत्र के लिए प्रवृत्त हो [३] तत्पश्चात् अर्चनमन्त्रों से प्रभु-पूजन करता हुआ [अर्कण] स्वाध्याय द्वारा अज्ञानान्धकार को दूर कर [तासि विबबाधे] [४] वल [वासना] के आवरण से [गा:] वेदवाणीरूप गौओं को बाहर निकाल। तेरे जीवन में विद्या के सूर्य व विज्ञान के चन्द्र का उदय हो [सूर्यामासा]।
भावार्थ
प्रभु 'उषा-सूर्य-अग्नि व मन्त्रों को प्राप्त कराके, वासना को विनष्ट करते हुए हमारे जीवनों को ज्ञान के सौन्दर्य से सम्पन्न करते हैं।
भाषार्थ
(सः) उस बृहस्पति अर्थात् वायु ने मेघ को काटने के पश्चात् (मन्त्र ८), (उषाम्) उषा को (अविन्दत्) प्राप्त कराया। (सः) उसने (स्वः) तपे सूर्य को प्राप्त कराया। (सः) उसने (अग्निम्) सौराग्नि को प्राप्त कराया। (सः) उसने मेघ के कारण उत्पन्न हुए (तमांसि) अन्धकारों का (अर्केण) सूर्य के द्वारा (विबबाधे) वध किया। (बृहस्पतिः) वायु ने (गोवपुषः) जलीय शरीरवाले (वलस्य) घेरा डाले मेघ के (पर्वणः) अङ्ग-प्रत्यङ्ग से (मज्जानं न) जलरूपी मज्जा को (निर् जभार) निकाल लिया।
टिप्पणी
[आधिभौतिक अर्थ में सेनापति ने राष्ट्र पर आवरण घेरा डाले शत्रु के अङ्गों का काटकर उसका मज्जा निकला दिया, जो शत्रु की राष्ट्रभूमि को छिन्न-भिन्न करना चाहता था। और राष्ट्र में फिर दैवीशक्तियों को चमका दिया। गोवपुषः=गौः (=जल, उणादिकोष २.६८)+वपुः=शरीर। तथा गौः=राष्ट्रभूमि+वपुः (वप् छेदने)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
The blessed man realises the light of the dawn of knowledge, the light and bliss of heaven, the vision of refulgent divinity, and with that light wards off the darkness of evil and ignorance. Indeed, Brhaspati raises the man subjected to body, senses and mind, now blest with divine vision like a real man, otherwise completely sinking in the depths of darkness and evil.9. The blessed man realises the light of the dawn of knowledge, the light and bliss of heaven, the vision of refulgent divinity, and with that light wards off the darkness of evil and ignorance. Indeed, Brhaspati raises the man subject to body, senses and mind, now blest with divine vision like a real man, otherwise completely sinking in the depths of darkness and evil.
Translation
That Brihaspati finds the light of heaven the dawn, this finds the middle region, this finds fire and this with radiant rays forces apart the darkness. This Brihaspati, as from joints takes marrow of cloud which has body of thunder
Translation
That Brihaspati finds the light of heaven the dawn, this finds the middle region, this finds fire and this with radiant rays forces apart the darkness. This Brihaspati, as from joints takes marrow of cloud which has body of thunder.
Translation
He (the learned Vedic scholar) attains the splendour of the dawn. He attains the bliss of God, He gets united with God, the source of all knowledge and Energy. He removes all traces of darkness and ignorance by the sun-like light of learning. He brings out self-knowledge from the darkening ignorance which shuts out all forms of literature from the masses like the marrow, brought out of bone-joints.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(सः) पूर्वोक्तः (उषाम्) उष दाहे-क, टाप्। (प्रभातवेलावत्) प्रकाशवतीं बुद्धिम् (अविन्दत्) विद्लृ लाभे-लङ्। अलभत (सः) (स्वः) सुखम् (सः) (अग्निम्) अग्निवत्प्रतापम् (सः) (अर्केण) पूजनीयेन विचारेण (वि) विशेषेण (बबाधे) बाधितवान्। निराचकार (तमांसि) अन्धकारान् (बृहस्पतिः) बृहत्या वेदवाण्याः रक्षकः (गोवपुषः) गौर्वज्रः। वज्रतुल्यदृढशरीरस्य (निः) बहिर्भावे (मज्जानम्) अ० १।११।४। अस्थिसारम् (न) संप्रति (पर्वणः) सन्धिप्रदेशात् (जभार) जहार। निनाय ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
বিদ্বদ্গুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(সঃ) সেই (বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি [বেদবাণীর রক্ষক মহান বিদ্বান্] (উষাম্) ঊষা [প্রভাত বেলার সমান প্রকাশবতী বুদ্ধি], (সঃ) তিনি (স্বঃ) সুখ, (সঃ) তিনি (অগ্নিম্) অগ্নি [সমান তেজ] (অবিন্দৎ) প্রাপ্ত করেছেন, (সঃ) তিনি (অর্কেণ) পূজনীয় বিচার দ্বারা (তমাংসি) অন্ধকার সমূহকে (বি ববাধে) দূর দিয়েছেন। তিনি (গোবপুষঃ) বজ্রসমান দৃঢ় শরীরযুক্ত (বলস্য) হিংসক অসুরের (পর্বণঃ) পর্ব/সন্ধি থেকে (মজ্জানম্) মজ্জা (ন) এখন (নিঃ জভার) নিষ্কাশিত করেছেন॥৯॥
भावार्थ
বিদ্বান মনুষ্য উত্তম বুদ্ধি প্রাপ্ত করে সুখপূর্বক তেজস্বী হয়ে অজ্ঞান নাশ করে দুষ্টদের দূর করুক॥৯॥
भाषार्थ
(সঃ) সেই বৃহস্পতি অর্থাৎ বায়ু মেঘ কাটার পর (মন্ত্র ৮), (উষাম্) ঊষা (অবিন্দৎ) প্রাপ্ত করিয়েছে। (সঃ) উহা (স্বঃ) তপ্ত সূর্য প্রাপ্ত করিয়েছে। (সঃ) উহা (অগ্নিম্) সৌরাগ্নি প্রাপ্ত করিয়েছে। (সঃ) উহা মেঘের কারণে উৎপন্ন (তমাংসি) অন্ধকারকে (অর্কেণ) সূর্যের দ্বারা (বিববাধে) বধ করেছে। (বৃহস্পতিঃ) বায়ু (গোবপুষঃ) জলীয় শরীরযুক্ত (বলস্য) বেষ্টিত মেঘের (পর্বণঃ) অঙ্গ-প্রত্যঙ্গ থেকে (মজ্জানং ন) জলরূপী মজ্জা (নির্ জভার) বের করেছে।
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