अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 68/ मन्त्र 12
पु॑रू॒तमं॑ पुरू॒णामीशा॑नं॒ वार्या॑णाम्। इन्द्रं॒ सोमे॒ सचा॑ सु॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒रू॒तम॑म् । पु॒रू॒णाम् । ईशा॑नम् । वार्या॑णाम् । इन्द्र॑म् । सोमे॑ । सचा॑ । सु॒ते ॥६८.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम्। इन्द्रं सोमे सचा सुते ॥
स्वर रहित पद पाठपुरूतमम् । पुरूणाम् । ईशानम् । वार्याणाम् । इन्द्रम् । सोमे । सचा । सुते ॥६८.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(स्तोमवाहसः) हे बड़ाई के प्राप्त करानेवाले (सखायः) मित्रो ! (तु) शीघ्र (आ इत) आओ, (आ) और (नि षीदत) बैठो, और (पुरूणाम्) पालन करनेवालों के (पुरुतमम्) अत्यन्त पालन करनेवाले, (वार्याणाम्) श्रेष्ठ पदार्थों वा धनों के (ईशानम्) स्वामी (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले], (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमेश्वर] को (सचा) सदा मेल के साथ (सोमे) सोम [तत्त्वरस] (सुते) सिद्ध होने पर (अभि) सब ओर से (प्र) अच्छे प्रकार (गायत) गावो ॥११, १२॥
भावार्थ
विद्वान् लोग परस्पर उपकार के लिये धैर्य और प्रीति के साथ परमात्मा के गुणों के विचार से निश्चित सिद्धान्त करके ऐश्वर्य बढ़ावें ॥११, १२॥
टिप्पणी
मन्त्र ११, १२ ऋग्वेद में है-१।।१, २ सामवेद-उ० १।२।१०। मन्त्र ११ साम०-पू० २।७।१० ॥ १२−(पुरुतमम्) पॄभिदिव्यधि०। उ० १।२३। पॄ पालनपूरणयोः-कु। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। पा० ७।१।१०२। इत्युत्त्वम्, अतिशायने तमप्। अतिशयेन पालकम् (पुरूणाम्) पालकानाम् (ईशानम्) स्वामिनम् (वार्याणाम्) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। वृङ् सम्भक्तौ वृञ् वरणे वा-ण्यत् वरणीयानां श्रेष्ठानां पदार्थानां धनानां वा (इन्द्रम्) वीप्सायां द्विर्वचनम्। परमात्मानम् (सोमे) तत्त्वरसे (सचा) समवायेन (सुते) संस्कृते ॥
विषय
पुरूणां पुरूतमम्
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार हम मिलकर उस प्रभु का गायन करें, जो (पुरूणां पुरुतमम्) = [पू पालनपूरणयोः] पालकों में सर्वोत्कृष्ट पालक है। अथवा जो हमारे 'पुरून् तमयति ग्लापयति' बहुत भी शत्रुओं को क्षीण बकरनेवाले है। शत्रुओं को क्षीण करके ही तो वे प्रभु सब वरणीय धनों को हमें प्राप्त कराते हैं। वे प्रभु (वार्यणाम) = वरणीय धनों के (ईशानम्)= ईशान है। २. (इन्द्रम) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का (सुते सोमे) = सोम का अभिषव [सम्पादन] करने पर (सचा) = प्रभु से मेल होने पर हम गायन करें। यह सोम हमें उस सोम [प्रभु] से मिलाने का साधन बनता है।
भावार्थ
प्रभु पालकों में सर्वोत्तम पालक हैं। वे हमारे शत्रुओं को क्षीण करते हैं। वरणीय धनों के वे ईशान हैं। उस प्रभु का स्तवन यही है कि हम सोम के रक्षण से बुद्धि को सूक्ष्म करके प्रभु का दर्शन करनेवाले बनें। अगला सूक्त भी 'मधुच्छन्दा:' का ही है -
भाषार्थ
(पुरूणाम्) भरे-भण्डारवालों में (पुरूतमम्) सर्वाधिक भरे-भण्डारवाले, (वार्याणाम्) तथा वरण करने योग्य सद्गुणों के (ईशानम्) अधीश्वर (इन्द्रम्) परमेश्वर का (सोमे सुते) भक्तिरस के निष्पन्न हो जाने पर (सचा) परस्पर मिलकर (अभि प्र गायत) श्रेष्ठ गान किया करो (पूर्व मन्त्र ११ से)।
इंग्लिश (4)
Subject
In dr a Devata
Meaning
Friends and comrades in study and meditation, when you have distilled the essence of soma, life and spirit present at the heart of things, then sing in praise of Indra, closest at hand of things in heaven and earth, and ruler dispenser of the fruits of love and desire.
Translation
O friends, you, when the juice Soma is Prepared, get together and enjoy the company of the learned man, who has plenty among the plentiful ones and the master of meritorious qualities.
Translation
O friends, you, when the juice Soma is prepared, get together and enjoy the company of the Iearned man, who has plenty among the plentiful ones and the master of meritorious qualities.
Translation
O people unanimously enthral the powerful king, the best protector and defender of the various subjects and the master of all desirable fortunes at the head of the well-established empire.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
मन्त्र ११, १२ ऋग्वेद में है-१।।१, २ सामवेद-उ० १।२।१०। मन्त्र ११ साम०-पू० २।७।१० ॥ १२−(पुरुतमम्) पॄभिदिव्यधि०। उ० १।२३। पॄ पालनपूरणयोः-कु। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। पा० ७।१।१०२। इत्युत्त्वम्, अतिशायने तमप्। अतिशयेन पालकम् (पुरूणाम्) पालकानाम् (ईशानम्) स्वामिनम् (वार्याणाम्) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। वृङ् सम्भक्तौ वृञ् वरणे वा-ण्यत् वरणीयानां श्रेष्ठानां पदार्थानां धनानां वा (इन्द्रम्) वीप्सायां द्विर्वचनम्। परमात्मानम् (सोमे) तत्त्वरसे (सचा) समवायेन (सुते) संस्कृते ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(স্তোমবাহসঃ) হে প্রশংসার প্রেরক (সখায়ঃ) মিত্রগণ! (তু) শীঘ্র (আ ইত) এসো, (আ) এবং (নি ষীদত) আসনে উপবিষ্ট হও এবং (পুরূণাম্) পালনকারীদের (পুরুতমম্) অত্যন্ত পালন কর্তা, (বার্যাণাম্) শ্রেষ্ঠ পদার্থ বা ধনের (ঈশানম্) স্বামী (ইন্দ্রম্) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যশালী], (ইন্দ্রম্) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান্ পরমেশ্বর] কে (সচা) সদা মেলপূর্বক (সোমে) সোম [তত্ত্বরস] (সুতে) সিদ্ধ হলে (অভি) সর্বতোভাবে (প্র) উত্তমরূপে স্তুতি (গায়ত) গাও ॥১১, ১২॥
भावार्थ
বিদ্বানগণ পরস্পরের উপকারের জন্য ধৈর্য এবং প্রীতির সহিত পরমাত্মার গুণসমূহ বিচার পূর্বক নিশ্চিত সিদ্ধান্ত নিয়ে ঐশ্বর্য বৃদ্ধি করুক ॥১১, ১২॥ মন্ত্র ১১, ১২ ঋগ্বেদে আছে-১।৫।১, ২ সামবেদ-উ০ ১।২।১০। মন্ত্র ১১ সাম০-পূ০ ২।৭।১০ ॥
भाषार्थ
(পুরূণাম্) পূর্ণভাণ্ডারের মধ্যে (পুরূতমম্) সর্বাধিক পূর্ণ ভাণ্ডারযুক্ত, (বার্যাণাম্) তথা বরণযোগ্য সদ্গুণের (ঈশানম্) অধীশ্বর (ইন্দ্রম্) পরমেশ্বরের (সোমে সুতে) ভক্তিরস নিষ্পন্ন হলে (সচা) পরস্পর মিলে (অভি প্র গায়ত) শ্রেষ্ঠ গান করো (পূর্ব মন্ত্র ১১ থেকে)।
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