अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 68/ मन्त्र 5
उ॒त ब्रु॑वन्तु नो॒ निदो॒ निर॒न्यत॑श्चिदारत। दधा॑ना॒ इन्द्र॒ इद्दुवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । ब्रु॒व॒न्तु॒ । न॒: । निद॑: । नि: । अ॒न्यत॑: । चि॒त् । आ॒र॒त॒ ॥ दधा॑ना: । इन्द्रे॑ । इत् । दुव॑: ॥६८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत। दधाना इन्द्र इद्दुवः ॥
स्वर रहित पद पाठउत । ब्रुवन्तु । न: । निद: । नि: । अन्यत: । चित् । आरत ॥ दधाना: । इन्द्रे । इत् । दुव: ॥६८.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रे) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] में (इत्) ही (दुवः) सेवा को (दधानाः) धारण करते हुए पुरुष (उत) निश्चय करके (नः) हमारे (निदः) निन्दकों से (ब्रुवन्तु) कहें−“(अन्यतः) दूसरे देश को (चित्) अवश्य (निः आरत) तुम निकल जाओ” ॥॥
भावार्थ
मनुष्य परमात्मा में दृढ़ विश्वास करके दुराचारियों को दण्ड देकर देश से निकाल दें ॥॥
टिप्पणी
−(उत) निश्चयेन (ब्रुवन्तु) कथयन्तु (नः) अस्माकम् (निदः) णिदि कुत्सायाम्-क्विप्, नुमभावः। निन्दकान् (निः) बहिर्भावे (अन्यतः) इतराभ्योऽपि दृश्यते। पा० ।३।१४। द्वितीयार्थे तसिल्। अन्यं देशम् (चित्) अवश्यम् (आरत) ऋ गतौ-लुङ् लोडर्थे। गच्छत यूयम् (दधानाः) दधातेः शानच्। धारयन्तः (इन्द्रे) परमैश्वर्ययुक्ते परमेश्वरे (इत्) एव (दुवः) दुवस् परिचरणोपतापयोः-क्विप्। दुवस्यतिः परिचरणकर्मा-निघ० २।। परिचर्याम् ॥
विषय
व्यर्थ के कार्यों से दूर
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार हम ज्ञानी व संयमी पुरुषों के समीप पहुँचकर ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करें ही, (उत) = और इसके साथ हम (निदः) = निन्दाओं को (नो) = [न+3]-न ही (ब्रुवन्तु) = बोलें हमारे मुख से कभी निन्दात्मक शब्दों का उच्चारण न हो। २. प्रभु कहते हैं कि (अन्यत:) = दूसरे कामों से, अर्थात् अनावश्यक अनुपयोगी कार्यों से (चित्) = निश्चयपूर्वक (नि: आरत) = बाहर गति करनेवाले हों। 'ताश खेलते रहना या गपशप मारते रहना' आदि कर्मों से निश्चयपूर्वक बचो। ३. जब भी कभी अवकाश हो, अर्थात् हम घर के कार्यों को कर चुके हों-स्वाध्याय से श्रान्त हो गये हों तब हम (इत्) = निश्चयपूर्वक (इन्द्रे) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु में (दुव:) = परिचर्या को (दधाना:) = धारण करनेवाले हों।
भावार्थ
हम निन्दा न करें, व्यर्थ के कार्यों से दूर रहने का ध्यान करें। अवकाश के समय में सदा प्रभु के नाम का जप करें, उसी के अर्थ का भावन करें [तज्जपः, तदर्थभावनम्] |
भाषार्थ
(उत) तथा उपासक (निदः) निन्दावचन (नो ब्रवन्तु) न बोला करें। (अन्यतः) अन्य व्यक्तियों से यदि निन्दावचन आएँ, तो उनके प्रति (चित्) भी (नो) न (निर् आरत) कष्ट पहुँचाएँ। उपासक (इन्द्रे इत्) परमेश्वर में ही (दुवः) अपनी परिचर्याएँ, अर्थात् सेवाएँ समर्पित करते रहें।
टिप्पणी
[निर्+आरत (ऋ, रेषणे), यथा—निर्ऋति (कृच्छ्रापत्ति)।]
इंग्लिश (4)
Subject
In dr a Devata
Meaning
Indra, lord of light and bliss, may the wise and visionaries who cherish the divine in their heart speak to us. Let the others, ignorant, malicious and maligners be off from here.
Translation
Let the men having staunch faith to serve the ruler tell the men mocking us - you depart to another place.
Translation
Let the men having staunch faith to serve the ruler tell the men mocking us-you depart to another place.
Translation
Let the learned persons, taking the vow of service to the mighty God alone, preach to us. Let the revilers go away from here and even from other places, too.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
−(उत) निश्चयेन (ब्रुवन्तु) कथयन्तु (नः) अस्माकम् (निदः) णिदि कुत्सायाम्-क्विप्, नुमभावः। निन्दकान् (निः) बहिर्भावे (अन्यतः) इतराभ्योऽपि दृश्यते। पा० ।३।१४। द्वितीयार्थे तसिल्। अन्यं देशम् (चित्) अवश्यम् (आरत) ऋ गतौ-लुङ् लोडर्थे। गच्छत यूयम् (दधानाः) दधातेः शानच्। धारयन्तः (इन्द्रे) परमैश्वर्ययुक्ते परमेश्वरे (इत्) एव (दुवः) दुवस् परिचरणोपतापयोः-क्विप्। दुवस्यतिः परिचरणकर्मा-निघ० २।। परिचर्याम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্রে) ইন্দ্রের [পরম ঐশ্বর্যশালী পরমাত্মার] প্রতি (ইৎ) ই (দুবঃ) সেবা (দধানাঃ) ধারণ পূর্বক পুরুষ (উত) নিশ্চিতরূপে (নঃ) আমাদের (নিদঃ) নিন্দুকদের (ব্রুবন্তু) বলুক −“(অন্যতঃ) অন্য দেশে (চিৎ) অবশ্যই (নিঃ আরত) তুমি চলে যাও” ॥৫॥
भावार्थ
মনুষ্য পরমাত্মার প্রতি দৃঢ় বিশ্বাস করে দুরাচারীদের শাস্তি প্রদান করে দেশ থেকে বিতাড়িত করুক॥৫॥
भाषार्थ
(উত) তথা উপাসক (নিদঃ) নিন্দাবচন (নো ব্রবন্তু) যেন না বলে। (অন্যতঃ) অন্য ব্যক্তিদের থেকে যদি নিন্দাবচন আসে, তবে তাঁদের প্রতি (চিৎ) ও (নো) না (নির্ আরত) কষ্ট প্রেরণ করে। উপাসক (ইন্দ্রে ইৎ) পরমেশ্বরের মধ্যেই (দুবঃ) নিজের পরিচর্যা, অর্থাৎ সেবা সমর্পিত করতে থাকে।
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