अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 68/ मन्त्र 6
उ॒त नः॑ सु॒भगाँ॑ अ॒रिर्वो॒चेयु॑र्दस्म कृ॒ष्टयः॑। स्यामेदिन्द्र॑स्य॒ शर्म॑णि ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । न॒: । सु॒ऽभगा॑न् । अ॒रि: । वो॒चेयु॑: । द॒स्म॒ । कृ॒ष्टय॑: ॥ स्याम॑: । इत् । इन्द्र॑स्य । शर्म॑णि ॥६८.६॥
स्वर रहित मन्त्र
उत नः सुभगाँ अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टयः। स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि ॥
स्वर रहित पद पाठउत । न: । सुऽभगान् । अरि: । वोचेयु: । दस्म । कृष्टय: ॥ स्याम: । इत् । इन्द्रस्य । शर्मणि ॥६८.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(दस्म) हे दर्शनीय ! [परमात्मा] (अरिः=अरयः) प्रेरण करनेवाले [वा वैरी] (कृष्टयः) मनुष्य (उत) भी (नः) हमको (सुभगान्) बड़े ऐश्वर्यवाला (वोचेयुः) कहें, [तो भी] (इन्द्रस्य) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] की (इत्) ही (शर्मणि) शरण में (स्याम) हम रहें ॥६॥
भावार्थ
चाहे मनुष्य ऐसे बड़े हो जावें कि बड़े-बड़े लोग और वैरी लोग भी उन्हें बड़ा जानें, तो भी वे अभिमान छोड़कर परमेश्वर की शरण में रहकर उन्नति करें ॥६॥
टिप्पणी
६−(उत) अपि च (नः) अस्मान् (सुभगान्) बह्वैश्वर्योपेतान् (अरिः) अच इः। उ० ४।१३९। ऋ गतिप्रापणयोः-इप्रत्ययः। बहुवचनस्यैकवचनम्। अरयः प्रेरकाः। नायकाः। शत्रवः (वोचेयुः) वच परिभाषणे-आशीर्लिङ् प्रथमस्य बहुवचने। लिङ्याशिष्यङ्। पा० ३।१।८६। इति विकरणस्थान्यङ् प्रत्ययः। वच उम्। पा० ७।४।२०। उमागमः। उच्यासुः। उपदिश्यासुः (दस्म) अ० २०।१७।२। हे दर्शनीय (कृष्टयः) अ० ३।२४।३। मनुष्याः (स्याम) भवेम (इत्) एव (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (शर्मणि) सुखे। शरणे ॥
विषय
इन्द्रस्य शर्मणि
पदार्थ
१. हे (दस्म) = शत्रुओं का क्षय करनेवाले प्रभो! आपकी कृपा से हमारा जीवन इसप्रकार भद्रता को लिये हुए हो कि (अरिः) = शत्रु भी (न:) = हमें (सुभगान्) = उत्तम भाग्यशाली-उत्तम ज्ञान आदि सम्पन्न (बोचेयु:) = कहें। हमारी भद्रता शत्रुओं के हृदयों को भी प्रभावित करे। २. (उत) = और (कृष्टय:) = कर्षणशील-श्रमशील बनकर हम (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के (शर्मणि) = सुख में आनन्द में (इत्) = निश्चय से स्यामनिवास करनेवाले हों। प्रभु की ओर से आनन्द का लाभ उन्हें ही होता है जो श्रमशील बनते हैं, अकर्मण्यता के साथ आनन्द का सम्बन्ध नहीं है।
भावार्थ
हम क्रोध आदि से दूर होकर भद्र जीवन बिताते हुए शत्रुओं से भी भागयशाली समझे जाएँ तथा श्रमशील बनकर प्रभु के आनन्द में भागी हों।
भाषार्थ
(उत) तथा (दस्म) पापक्षयकारी हे परमेश्वर! (अरिः) दुश्मन तथा (कृष्टयः) प्रजाजन (नः) हम उपासकों को (सुभगान्) सौभाग्यशाली (वोचेयुः) कहा करें। हम उपासक तो (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (शर्मणि) आश्रय में (स्याम) सदा बने रहें।
टिप्पणी
[निन्दा न करनेवाले, और कष्ट न पहुँचानेवाले उपासक सौभाग्यशाली हो जाते हैं।]
इंग्लिश (4)
Subject
In dr a Devata
Meaning
Let us pray and seek the protection of Indra, lord of might unchallengeable, so that men of knowledge and wisdom bring us the voice of divinity and even those who oppose appreciate and speak well of us.
Translation
O wonderous one, let foemen and people call us well prospered. We should remain in the shelter of the ruler.
Translation
O wondrous one, let foemen and people call us well-prospered. We should remain in the shelter of the ruler.
Translation
O Beautiful God or Lord of Destruction, let the enemies and even the ordinary people say good things to us. Let us be ever under the shelter of the protecting king, capable of warding off the foes.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(उत) अपि च (नः) अस्मान् (सुभगान्) बह्वैश्वर्योपेतान् (अरिः) अच इः। उ० ४।१३९। ऋ गतिप्रापणयोः-इप्रत्ययः। बहुवचनस्यैकवचनम्। अरयः प्रेरकाः। नायकाः। शत्रवः (वोचेयुः) वच परिभाषणे-आशीर्लिङ् प्रथमस्य बहुवचने। लिङ्याशिष्यङ्। पा० ३।१।८६। इति विकरणस्थान्यङ् प्रत्ययः। वच उम्। पा० ७।४।२०। उमागमः। उच्यासुः। उपदिश्यासुः (दस्म) अ० २०।१७।२। हे दर्शनीय (कृष्टयः) अ० ३।२४।३। मनुष्याः (स्याम) भवेम (इत्) एव (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (शर्मणि) सुखे। शरणे ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(দস্ম) হে দর্শনীয় ! [পরমাত্মা] (অরিঃ=অরয়ঃ) প্রেরণকারী [বা শত্রু] (কৃষ্টয়ঃ) মনুষ্য (উত) ও (নঃ) আমাদের (সুভগান্) পরম ঐশ্বর্যশালী (বোচেয়ুঃ) বললেও, (ইন্দ্রস্য) ইন্দ্রের [পরম ঐশ্বর্যশালী পরমাত্মার] (ইৎ) ই (শর্মণি) শরণে (স্যাম) আমরা থাকি ॥৬।।
भावार्थ
মনুষ্য যতই বিরাট খ্যাতি সম্পন্ন হোক অথবা বড়-বড় লোক তথা শত্রুরাও তাঁকে যতই বড়ো বলুক না কেন, তবুও সে সকল অভিমান পরিত্যাগ করে পরমেশ্বরের শরণে থেকে উন্নতি সাধন করে/করুক ॥৬॥
भाषार्थ
(উত) তথা (দস্ম) পাপক্ষয়কারী হে পরমেশ্বর! (অরিঃ) শত্রু তথা (কৃষ্টয়ঃ) প্রজাজন (নঃ) আমাদের উপাসকদের (সুভগান্) সৌভাগ্যশালী (বোচেয়ুঃ) কথিত করুক। আমরা উপাসকরা তো (ইন্দ্রস্য) পরমেশ্বরের (শর্মণি) আশ্রয়ে (স্যাম) সদা থাকি।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal