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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 94 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 94/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-९४
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    पृथ॒क्प्राय॑न्प्रथ॒मा दे॒वहू॑त॒योऽकृ॑ण्वत श्रव॒स्यानि दु॒ष्टरा॑। न ये शे॒कुर्य॒ज्ञियां॒ नाव॑मा॒रुह॑मी॒र्मैव ते न्य॑विशन्त॒ केप॑यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृथ॑क् । प्र । आ॒य॒न् । प्र॒थ॒मा: । दे॒वऽहू॑तय: । अकृ॑ण्वत । श्र॒व॒स्या॑नि । दु॒स्तरा॑ ॥ न । ये । शे॒कु: । य॒ज्ञिया॑म् । नाव॑म् । आ॒ऽरुह॑म् । ई॒र्मा । ए॒व । ते । नि । अ॒वि॒श॒न्त॒ । केप॑य: ॥९४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृथक्प्रायन्प्रथमा देवहूतयोऽकृण्वत श्रवस्यानि दुष्टरा। न ये शेकुर्यज्ञियां नावमारुहमीर्मैव ते न्यविशन्त केपयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृथक् । प्र । आयन् । प्रथमा: । देवऽहूतय: । अकृण्वत । श्रवस्यानि । दुस्तरा ॥ न । ये । शेकु: । यज्ञियाम् । नावम् । आऽरुहम् । ईर्मा । एव । ते । नि । अविशन्त । केपय: ॥९४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 94; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रथमाः) मुखिया, (देवहूतयः) विद्वानों के बुलानेवाले पुरुष (पृथक्) अलग-अलग [अर्थात् कोई वीरता, कोई विद्यावृद्धि आदि गुण से] (प्र) आगे (आयन्) गये हैं और उन्होंने (दुस्तरा) दुस्तरा [बड़े कठिन] (श्रवस्यानि) यश के कर्म (अकृण्वत) किये हैं। (ये) जो (यज्ञियाम्) यज्ञ [देवपूजा, संगतिकरण और दान] की (नावम्) नाव पर (न आरुहं शेकुः) नहीं चढ़ सके हैं, (ते) वे (केपयः) दुराचारी (ईर्मा) मार्ग में (एव) ही (नि अविशन्त) टिक रहे हैं ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य विद्वानों की शिक्षा से अनेक कठिन कामों को पूरा करके यश बढ़ावें, और दुष्कर्मियों के समान श्रेष्ठ कर्मों को छोड़कर निन्दनीय कर्मों में न पड़ें ॥६॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र निरुक्त ।२ में भी व्याख्यात है ॥ ६−(पृथक्) नाना प्रकारेण, केचिद् वीरत्वेन केचिद् विद्यावृद्ध्यादिना (प्र) प्रकर्षेण (आयन्) इण् गतौ-लङ्। अगच्छन् (प्रथमाः) मुख्याः (देवहूतयः) विदुषामाह्वातारः (अकृण्वत) अकुर्वत (श्रवस्यानि) श्रवणीयानि यशांसि (दुस्तरा) दुःखेन तरणीयानि (न) निषेधे (ये) पुरुषाः (शेकुः) शक्ता बभूवुः (यज्ञियाम्) यज्ञसम्बन्धिनीम् (नावम्) नौकाम् (आरुहम्) शकि णमुल्कमुलौ। पा० ३।४।१२। रोहतेः कमुल् तुमर्थे। आरोढुम् (ईर्मा) इषियुधीन्धि उ० १।१४। ईर् गतौ-मक्, विभक्तेर्डा। ईर्मे गन्तव्ये मार्गे (एव) अवधारणे (ते) पुरुषाः (नि अविशन्त) निवेशस्थितिस्थानं प्राप्नुवन् (केपयः) कु+पय गतौ-क्विप्, कुशब्दस्य के इत्यादेशः। केपयः कपूया भवन्ति कपूयमिति पुनातिकर्म कुत्सितं दुष्पूयं भवति-निरु० ।२४। कुत्सितगतयः। दुराचारिणः ॥

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    विषय

    यज्ञिय भाव

    पदार्थ

    १. (प्रथमा:) = [प्रथ विस्तारे] अपना विस्तार करनेवाले व अपने हृदयों को विशाल बनानेवाले (देवहूतयः) = देव को पुकारनेवाले-प्रभु की प्रार्थना करनेवाले-अपने में दिव्यगुणों की स्थापना के लिए यत्नशील सोमी पुरुष (पृथक्) = अनासक्त [Detached] होकर-अलग रहते हुए-न फैंसते हुए-(प्रायन्) = प्रकृष्ट गतिवाले होते हैं। सब सांसारिक कार्यों को करते हुए ये उनमें आसक्त नहीं होते। २. अनासक्तभाव से कार्यों को करते हुए ये सोमी पुरुष (श्रवस्यानि) = उन श्रवणीय यशों को (अकृण्वत) = करनेवाले होते हैं, जो यश (दुष्टरा) = दूसरों से दुस्तर होते हैं। इनके यश का अन्य लोग उल्लंघन नहीं कर पाते। ३. इनके विपरीत वे व्यक्ति (ये) = जोकि (यज्ञियांनावम) = यज्ञमयी नाव पर (आरुहम्) = आरोहण के लिए (न शेकु:) = समर्थ नहीं होते, अर्थात् जो जीवन को, आसक्ति से ऊपर उठकर, यज्ञिय कार्यों में नहीं लगा पाते, (ते) = वे (केपयः) = कुत्सितकर्मा लोग (ईर्म एव) = [ऋणेनैव] अपने पर चढ़े हुए 'मानव ऋण' से ही (न्यविशन्त) = नीचे और नीचे प्रवेश करते हैं। इनको अधोगति प्राप्त होती है। मनुष्य पर चार ऋण होते हैं-'पितृऋण, ऋषिऋण, देवऋण व मानव ऋण'। इन ऋणों को हम विविध यज्ञिय कर्मों द्वारा उतारा करते हैं। यदि उन यज्ञों को हम नहीं करते तो ऋणभार से दबे हुए हम अधोगति को प्राप्त करते हैं।

    भावार्थ

    हम संसार में फल की आसक्ति को छोड़कर कर्तव्यकर्मों को करें । यही 'यज्ञिय नाव' है। यही हमें भवसागर से तराएगी और अधोगति से बचाएगी।

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    भाषार्थ

    (प्रथमाः देवहूतयः) दिव्य-उपासकों की श्रेष्ठ पुकारें, (पृथक्) पृथक्-पृथक् रूप में, (प्रायन्) हे परमेश्वर! आप तक पहुँची हैं। उन्होंने (श्रवस्यानि) प्रशंसा-योग्य (दुष्टरा) अतिकठिन काम अर्थात् अन्तःशत्रुओं का विनाश (अकृण्वत) किया है। (ये) जो लोग (यज्ञियां नावम्) उपासना-यज्ञ की नौका में (आरुहम्) आरोहण (न शेकुः) नहीं कर सके, (ते) वे (केपयः) कुपूय अर्थात् कुत्सितकर्मी, (ईर्मा एव) इस ही जन्म-मरण की शृंखला में (न्यविशन्त) जकड़े रहते हैं, अर्थात् इसी पृथिवी में बार-बार प्रविष्ट होते रहते हैं।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    People of the first order dedicated to divinity and yajnic piety go forward by holy paths of the first order and perform admirable acts of the most difficult kind. But those who cannot board the ark of yajnic order and divine love, men of unclean character, doubtful mind and crooked ways, lie about here in the lower and lowest orders of being. People of the first order dedicated to divinity and yajnic piety go forward by holy paths of the first order and perform admirable acts of the most difficult order. But those who cannot board the ark of yajnic order and divine love, men of unclean character, doubtful mind and crooked ways, lie about here in the lower and lowest orders of being.

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    Translation

    The most prominent devotees of Divine adorations advance onward in various walk of life and they perform the deeds of tremendous difficulties and consequences. They who could not succed to ascend the ship of righteous deed, intent and purpose, sink down in desolation trembling with alarm

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    Translation

    The most prominent devotees of Divine adorations advance onward in various walk of life and they perform the deeds of tremendous difficulties and consequences. They who could not succeed to ascend the ship of righteous deed, intent and purpose, sink down in desolation trembling with alarm.

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    Translation

    Thus the other persons, whose uncontrolled sense-organs are absorbed in frittering objects of the world, become men of wicked nature, going down and down in level of spirituality. In this way, those, who adopt the upward and higher path of piety, finally rest in God, the Showerer of bliss and the Destroyer of evil, where there are many kinds of means of knowledge action and fruition.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र निरुक्त ।२ में भी व्याख्यात है ॥ ६−(पृथक्) नाना प्रकारेण, केचिद् वीरत्वेन केचिद् विद्यावृद्ध्यादिना (प्र) प्रकर्षेण (आयन्) इण् गतौ-लङ्। अगच्छन् (प्रथमाः) मुख्याः (देवहूतयः) विदुषामाह्वातारः (अकृण्वत) अकुर्वत (श्रवस्यानि) श्रवणीयानि यशांसि (दुस्तरा) दुःखेन तरणीयानि (न) निषेधे (ये) पुरुषाः (शेकुः) शक्ता बभूवुः (यज्ञियाम्) यज्ञसम्बन्धिनीम् (नावम्) नौकाम् (आरुहम्) शकि णमुल्कमुलौ। पा० ३।४।१२। रोहतेः कमुल् तुमर्थे। आरोढुम् (ईर्मा) इषियुधीन्धि उ० १।१४। ईर् गतौ-मक्, विभक्तेर्डा। ईर्मे गन्तव्ये मार्गे (एव) अवधारणे (ते) पुरुषाः (नि अविशन्त) निवेशस्थितिस्थानं प्राप्नुवन् (केपयः) कु+पय गतौ-क्विप्, कुशब्दस्य के इत्यादेशः। केपयः कपूया भवन्ति कपूयमिति पुनातिकर्म कुत्सितं दुष्पूयं भवति-निरु० ।२४। कुत्सितगतयः। दुराचारिणः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (প্রথমাঃ) মুখ্য, (দেবহূতয়ঃ) বিদ্বানগণের আহ্বায়ক পুরুষ (পৃথক্) পৃথক-পৃথক [অর্থাৎ কেউ বীরত্ব, কেউ বিদ্যাবৃদ্ধি আদি গুণ দ্বারা] (প্র) অগ্রে/সামনে/অগ্রণী (আয়ন্) হয়েছে এবং তা়ঁরা (দুস্তরা) দুস্তর [অতি শ্রমসাধ্য] (শ্রবস্যানি) যশ কর্ম (অকৃণ্বত) করেছে। (যে) যে পুরুষগণ (যজ্ঞিয়াম্) যজ্ঞের [দেবপূজা, সঙ্গতিকরণ এবং দানের] (নাবম্) নৌকায় (ন আরুহং শেকুঃ) আরোহন করতে ব্যর্থ হয়েছে, (তে) তাঁরা (কেপয়ঃ) দুরাচারী, কুৎসিত (ঈর্মা) মার্গে (এব) নিশ্চিতরূপে (নি অবিশন্ত) স্থিতি প্রাপ্ত হয় ॥৬॥

    भावार्थ

    মনুষ্য বিদ্বানদের শিক্ষায় শিক্ষিত হয়ে কঠিনতম কার্য পূর্ণ করে যশ বৃদ্ধি করুক এবং দুষ্কর্মীদের ন্যায় শ্রেষ্ঠ কর্ম পরিত্যাগ করে নিন্দনীয় কর্মে যেন আসক্ত হয় না ॥৬॥ এই মন্ত্র নিরুক্ত ৫।২৫ এ ব্যাখ্যা করা হয়েছে॥

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    भाषार्थ

    (প্রথমাঃ দেবহূতয়ঃ) দিব্য-উপাসকদের শ্রেষ্ঠ আহ্বান, (পৃথক্) পৃথক্-পৃথক্ রূপে, (প্রায়ন্) হে পরমেশ্বর! আপনার কাছ পর্যন্ত পৌঁছেছে/পৌঁছায়। তাঁরা (শ্রবস্যানি) প্রশংসা-যোগ্য (দুষ্টরা) অতিকঠিন কার্য অর্থাৎ অন্তঃশত্রুদের বিনাশ (অকৃণ্বত) করেছেন। (যে) যারা (যজ্ঞিয়াং নাবম্) উপাসনা-যজ্ঞের নৌকায় (আরুহম্) আরোহণ (ন শেকুঃ) করতে পারেনি, (তে) তাঁরা (কেপয়ঃ) কুপূয় অর্থাৎ কুৎসিতকর্মী, (ঈর্মা এব) এই জন্ম-মরণের শৃঙ্খলায় (ন্যবিশন্ত) আবদ্ধ থাকে, অর্থাৎ এই পৃথিবীতে বার-বার প্রবিষ্ট হতে থাকে।

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