अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 94/ मन्त्र 8
गि॒रीँरज्रा॒न्रेज॑मानाँ अधारय॒द्द्यौः क्र॑न्दद॒न्तरि॑क्षाणि कोपयत्। स॑मीची॒ने धि॒षणे॒ वि ष्क॑भायति॒ वृष्णः॑ पी॒त्वा मद॑ उ॒क्थानि॑ शंसति ॥
स्वर सहित पद पाठगि॒रीन् । अज्रा॑न् । रेज॑मानान् । अ॒धा॒र॒य॒त् । द्यौ: । क्र॒न्द॒न् । अ॒न्तरि॑क्षाणि । को॒प॒य॒त् ॥ स॒मी॒ची॒ने इति॑ स॒म् ई॒ची॒ने । धि॒षणे॒ इति॑ । वि । स्क॒भा॒य॒ति॒ । वृष्ण॑: । पी॒त्वा । मद॑ । उ॒क्थानि॑ । शं॒स॒ति॒ ॥९४.८॥
स्वर रहित मन्त्र
गिरीँरज्रान्रेजमानाँ अधारयद्द्यौः क्रन्ददन्तरिक्षाणि कोपयत्। समीचीने धिषणे वि ष्कभायति वृष्णः पीत्वा मद उक्थानि शंसति ॥
स्वर रहित पद पाठगिरीन् । अज्रान् । रेजमानान् । अधारयत् । द्यौ: । क्रन्दन् । अन्तरिक्षाणि । कोपयत् ॥ समीचीने इति सम् ईचीने । धिषणे इति । वि । स्कभायति । वृष्ण: । पीत्वा । मद । उक्थानि । शंसति ॥९४.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(क्रन्दत्) पुकारता हुआ (द्यौः) प्रकाशमान परमात्मा (अज्रान्) चलते हुए और (रेजमानान्) काँपते हुए (गिरीन्) मेघों को (अधारयत्) धारण करता और (अन्तरिक्षाणि) आकाशस्थ लोकों को (कोपयत्) प्रकाशित करता, (समीचीने) आपस में मिले हुए (धिषणे) दोनों सूर्य और भूमि को (वि) विविध प्रकार (स्कभायति) थाँभता और (वृषाः) ऐश्वर्यों को (पीत्वा) ग्रहण करके (मदे) आनन्द में (उक्थानि) कहने योग्य वचनों का (शंसति) उपदेश करता है ॥८॥
भावार्थ
जो परमात्मा भाप रूप मेघ को धारण करके वृष्टि करता, जगत् को उष्णता, सूर्य, भूमि आदि लोकों को आकर्षण द्वारा दृढ़ रखता और ऋषियों द्वारा वेदों का उपदेश करता है, सब मनुष्य उसी की उपासना करें ॥८॥
टिप्पणी
८−(गिरीन्) मेघान् (अज्रान्) अ० २०।६१।। शीघ्रगमनान् (रेजमानान्) कम्पयमानान् (अधारयत्) धारयति (द्यौः) प्रकाशमानः परमात्मा (क्रन्दत्) क्रदि आह्वाने रोदने च-शतृ। क्रन्दन्। आह्वयन् (अन्तरिक्षाणि) आकाशस्थलोका (कोपयत्) कुप द्युतौ क्रोधे च। दीपयति। प्रकाशयति (समीचीने) संगच्छमाने (धिषणे) अ० २०।३१।। द्यावापृथिव्यौ-निघ० ३।३०। सूर्यभूमिलोकौ (वि) विविधम् (स्कभायति) स्तभ्नाति स्तम्भयति (वृषाः) वृषु सेचने ऐश्वर्ये च-कनिन्। ऐश्वर्याणि (पीत्वा) गृहीत्वा (मदे) आनन्दे (उक्थानि) कथनीयानि वचनानि (शंसति) उपदिशति ॥
विषय
समीचीने धिषणे
पदार्थ
१. (वृष्ण:) = शक्ति देनेवाले सोम का (पीत्वा) = पान करके-सोम को शरीर में ही व्याप्त करके मनुष्य (मदे) = उल्लास में (उक्थानि) = प्रभु के स्तोत्रों का (शंसति) = उच्चारण करता है। जिस समय मन्त्र का ऋषि 'गोतम' [प्रशस्तेन्द्रिय पुरुष] सोम का विनाश न करके उसे शरीर में ही सुरक्षित करता है, उस समय नीरोगता व निर्मलता के कारण उसे एक अनुपम उल्लास का अनुभव होता है। उस उल्लास में वह प्रभु की महिमा का गायन करता है। २. इस सोम के रक्षण के द्वारा वह (समीचीने) = [सम् अञ्च] उत्तम गतिवाले (धिषणे) = द्यावापृथिवी को-मस्तिष्क व शरीर को (विष्कभायति) = विशेषरूप से थामता है। इनकी शक्ति को यह बढ़ानेवाला होता है। सोम-रक्षण ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है और शरीर में आ जानेवाले रोगकृमियों का नाश करता है। यह "मस्तिष्क को उज्ज्वल बनाना, व शरीर को नीरोग बनाना' ही द्यावापृथिवी का धारण है। यही द्यावापृथिवी की समीचीनता है। अपने-अपने कार्य को ठीक से करना ही तो समीचीनता है। ३. यह (अज्रान्) = अपनी गति के द्वारा विक्षिप्त करनेवाले (रेजमानान्) = अत्यन्त कम्पित करते हुए (गिरीन्) = अविद्यापर्वतों को (अधारयत्) = थामता है, अर्थात् इन पर्वतों के आक्रमण से अपने को बचाता है। इसका (द्यौ:) = मस्तिष्करूप द्युलोक (अक्रन्दत्) = प्रभु का आह्वान करनेवाला होता है, अर्थात् यह अपने ज्ञान के प्रकाश से प्रभु को देखता है और उसे अपने रक्षण के लिए पुकारता है। यह (अन्तरिक्षाणि) = अपने हृदयान्तरिक्षों को (कोपयत्) = [कोपयति to shine]-दीप्त करता है। प्रभु के प्रकाश से हृदय का दीस होना स्वाभाविक है।
भावार्थ
सोम के रक्षण के द्वारा हमारे मस्तिष्क व शरीर उत्तम हों।
भाषार्थ
परमेश्वर ने (अज्रान्) गतिमान्, चञ्चल और (रेजमानान्) कम्पित (गिरीन्) पर्वतों को (अधारयत्) अपने-अपने स्थानों में सुदृढ़ किया। परमेश्वर द्वारा (द्यौः) द्युलोक (क्रन्दत्) नानाविध क्रन्दनोंवाला हुआ। परमेश्वर ने (अन्तरिक्षाणि) अन्तरिक्षस्थ वायु, मेघ, बिजुली आदि को (कोपयत्) प्रकुपित किया है। परमेश्वर (धिषणे) द्युलोक और भूलोक को (विष्कभायति) थाम रहा है, (समीचीने) अतः ये दोनों समीचीन अवस्था में हैं। तत्पश्चात्, अर्थात् द्युलोक और भूलोक के समीचीन अवस्था में आने के पश्चात् (वृष्णः) भक्तिरस की वर्षा करनेवाले उपासक के भक्तिरस को (पीत्वा) पीकर, स्वीकार कर, (मदे) और प्रसन्नता में आने पर, उपासक के प्रति (उक्थानि) वैदिक-सूक्तों का (शंसति) कथन परमेश्वर करता है।
टिप्पणी
[मन्त्र में जगदुत्पत्ति की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का वर्णन हुआ है, और जगत् के समीचीन अवस्था में आ जाने पर आदि-ऋषियों को वेदज्ञान देने का वर्णन हुआ है। देखो—मन्त्र-संख्या (२०.६१.५ तथा २०.६२.९)। मन्त्र का अभिप्राय है कि— (१) पृथिवी सूर्य से पैदा हुई। तब पृथिवी अग्निमय थी, जैसे कि सूर्य अभी तक प्रायः अग्निमय है। सूर्य के आकर्षण और पृथिवी के अग्निमय होने के कारण पृथिवी पर ऊँची-ऊँची आग्नेय लहरें उठती थीं। पृथिवी शनैः-शनैः ठण्डी होती गई और द्रवावस्था में आई, तब पृथिवी से द्रवावस्था के पार्थिवतत्त्वों की लहरें उठती रहीं, जैसे कि जलीय-समुद्र से जलीय-लहरें उठा करती हैं। पृथिवी और ठण्डी हुई और दलदल की अवस्था में आई। तब इससे दलदल की सी घनी लहरें उठती रहीं। ये लहरें आकाश में उठकर पृथिवी के पृष्ठ की अपेक्षा अधिकाधिक ठण्डी होती गई, और भूपृष्ठ भी अधिकाधिक ठण्डा होता गया, और समयानुसार दलदली लहरें पर्वतों के रूप में भूपृष्ठ पर स्थिर हो गईं। लहरों की अवस्था में जो पार्थिव-तत्त्व पहले भूपृष्ठ की आग्नेय, तथा द्रवावस्था तथा दलदली अवस्था में वायु के प्रबल वेगों के कारण चलायमान तथा अपना-अपना स्थान बदलते रहते थे, उन्हें मन्त्र में “अज्रान्” तथा “रेजमानान्” शब्दों द्वारा सूचित किया है। इसी भाव को “येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा” (यजुः০ ३२.६) द्वारा भी सूचित किया है। (२) पृथिवी पर अभी जल न था। पृथिवी के वायुमण्डल में दूर दूर तक आक्सीजन तथा हाईड्रोजन गैंसे फैली हुई थीं। बिजुलियाँ खूब चमकती थीं। इस कारण आक्सीजन तथा हाईड्रोजन का परस्पर रासायनिक मेल होता रहा, और वायुमण्डल में जल-संग्रह होता रहा है। इस अवस्था की वैद्युत-चमकों और वैद्युत-कड़ाकों का वर्णन “द्यौः क्रन्दत्” शब्दों द्वारा मन्त्र में हुआ है। (३) पृथिवी के वायुमण्डल में जब जल की भाप घनी होती गई, तो प्रभूत मात्रा में मेघ बने, और इनसे सतत-धाराओं के रूप में वर्षा होती रही। मेघों के उमड़ने, मेघीय हवाओं के प्रबल प्रवाहों, और मेघीय विद्युत् की चमकों और गर्जनाओं को “अन्तरिक्षाणि कोपयत्” शब्दों द्वारा सूचित किया है। (४) उग्र वर्षा के कारण पृथिवी ठण्डी होती गई। पृथिवी पर जल-संग्रह हुआ। नदियाँ बहने लगीं, तथा समुद्र बनें, और शनैः-शनैः घासपात, तथा ओषधियाँ वनस्पतियाँ आदि पैदा हुई। इस अवस्था को मन्त्र में “समीचीने धिषणे” शब्दों द्वारा सूचित किया है। (५) कालान्तर में जब मनुष्य-सृष्टि हुई, तब परमेश्वर ने मानसिक पुत्रों को पैदा किया, जो कि आदि के चार ऋषि थे, और इनके द्वारा वैदिक सूक्तियों का प्रचार और प्रसार हुआ। इस अवस्था को मन्त्र में “उक्थानि शंसति” द्वारा वर्णित किया है।
इंग्लिश (4)
Subject
Brhaspati Devata
Meaning
He wields the dynamics of nature, fixes the mountains and moves the roaring clouds. He holds the raging heavens and shakes the violent skies. He holds both earth and heaven together and, the glorious sun having drunk up the vapours, showers down the rains in joy like the overflow of divine ecstasy in the music of song. He wields the dynamics of nature, fixes the mountains and moves the roaring clouds. He holds the raging heavens and shakes the violent skies. He holds both earth and heaven together and, the glorious sun having drunk up the vapours, showers down the rains in joy like the overflow of divine ecstasy in the music of song.
Translation
Almighty self-refulgent Divinity (Dyauh) supports the quickly moving clouds, He illuminates the luminaries the celestial space, He holds firm the twain of earth and sun connected with each other and He guarding the strong forces preaches (reveals) the vedic speech enjoying His blessedness.
Translation
Almighty self-refulgent Divinity (Dyauh) supports the quickly moving clouds, He illuminates the luminaries the celestial space, He holds firm the twain of earth and sun connected with each other and He guarding the strong forces preaches (reveals) the vedic speech enjoying His blessedness.
Translation
O Lord of fortunes, I (the devotee) undertake upon myself Thy well-ordained restraint (in the form of Vedic lores) by which Thou treadest underfoot the wicked persons, who tread the innocent under feet. Let there a good shelter for us in this creation of Thine. O All-round' Distributor of bounties, letst Thou enlighten us in this great sacrifices performed by Thee (i.e., creation of universe).
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(गिरीन्) मेघान् (अज्रान्) अ० २०।६१।। शीघ्रगमनान् (रेजमानान्) कम्पयमानान् (अधारयत्) धारयति (द्यौः) प्रकाशमानः परमात्मा (क्रन्दत्) क्रदि आह्वाने रोदने च-शतृ। क्रन्दन्। आह्वयन् (अन्तरिक्षाणि) आकाशस्थलोका (कोपयत्) कुप द्युतौ क्रोधे च। दीपयति। प्रकाशयति (समीचीने) संगच्छमाने (धिषणे) अ० २०।३१।। द्यावापृथिव्यौ-निघ० ३।३०। सूर्यभूमिलोकौ (वि) विविधम् (स्कभायति) स्तभ्नाति स्तम्भयति (वृषाः) वृषु सेचने ऐश्वर्ये च-कनिन्। ऐश्वर्याणि (पीत्वा) गृहीत्वा (मदे) आनन्दे (उक्थानि) कथनीयानि वचनानि (शंसति) उपदिशति ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ক্রন্দৎ) আহ্বানকারী (দ্যৌঃ) প্রকাশমান পরমাত্মা (অজ্রান্) গমনশীল ও (রেজমানান্) কম্পমান (গিরীন্) মেঘকে (অধারয়ৎ) ধারণ করেন/করেছেন এবং (অন্তরিক্ষাণি) আকাশস্থ লোক-সমূহকে (কোপয়ৎ) প্রকাশিত করেন/করেছেন, (সমীচীনে) পরস্পর মিলিত (ধিষণে) সূর্য এবং ভূমি উভয়কে (বি) বিবিধ প্রকারে (স্কভায়তি) ধারণ করেন/করেছেন এবং (বৃষাঃ) ঐশ্বর্য-সমূহ (পীত্বা) গ্রহণপূর্বক (মদে) আনন্দে (উক্থানি) কথনযোগ্য বচনের (শংসতি) উপদেশ করেন/করেছেন ॥৮॥
भावार्थ
যে পরমাত্মা বাষ্প রূপ মেঘকে ধারণ করে বৃষ্টি বর্ষণ করেন, জগৎকে উষ্ণতা, সূর্য, ভূমি আদি লোক সমূহকে আকর্ষণ শক্তি দ্বারা দৃঢ়তা প্রদান করেন এবং ঋষিগণের মাধ্যমে বেদবাণী উপদেশ করেন, সকল মানুষের উচিত, একমাত্র তাঁরই উপাসনা করা ॥৮॥
भाषार्थ
পরমেশ্বর (অজ্রান্) গতিমান্, চঞ্চল এবং (রেজমানান্) কম্পিত (গিরীন্) পর্বত-সমূহকে (অধারয়ৎ) নিজ-নিজ স্থানে সুদৃঢ় করেছেন। পরমেশ্বর দ্বারা (দ্যৌঃ) দ্যুলোক (ক্রন্দৎ) নানাবিধ ক্রন্দনযুক্ত হয়েছে। পরমেশ্বর (অন্তরিক্ষাণি) অন্তরিক্ষস্থ বায়ু, মেঘ, বিদ্যুৎ আদিকে (কোপয়ৎ) প্রকুপিত করেছেন। পরমেশ্বর (ধিষণে) দ্যুলোক এবং ভূলোককে (বিষ্কভায়তি) ধারণ করছেন, (সমীচীনে) অতঃ এই দুটি [ভূলোক এবং দ্যুলোক] সমীচীন অবস্থায় রয়েছে। তৎপশ্চাৎ, অর্থাৎ দ্যুলোক এবং ভূলোকের সমীচীন অবস্থায় আসার পর (বৃষ্ণঃ) ভক্তিরস বর্ষণকারী উপাসকের ভক্তিরস (পীত্বা) পান করে, স্বীকার করে, (মদে) এবং প্রসন্ন হলে, উপাসকের প্রতি (উক্থানি) বৈদিক-সূক্ত-সমূহের (শংসতি) কথন পরমেশ্বর করেন।
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