अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
ऋषिः - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
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अ॑तिमा॒त्रम॑वर्धन्त॒ नोदि॑व॒ दिव॑मस्पृशन्। भृगुं॑ हिंसि॒त्वा सृञ्ज॑या वैतह॒व्याः परा॑भवन् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ति॒ऽमा॒त्रम् । अ॒व॒र्ध॒न्त॒ । न । उत्ऽइ॑व । दिव॑म् । अ॒स्पृ॒श॒न् । भृगु॑म् । हिं॒सि॒त्वा । सृन्ऽज॑या: । वै॒त॒ऽह॒व्या: । परा॑ । अ॒भ॒व॒न् ॥१९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अतिमात्रमवर्धन्त नोदिव दिवमस्पृशन्। भृगुं हिंसित्वा सृञ्जया वैतहव्याः पराभवन् ॥
स्वर रहित पद पाठअतिऽमात्रम् । अवर्धन्त । न । उत्ऽइव । दिवम् । अस्पृशन् । भृगुम् । हिंसित्वा । सृन्ऽजया: । वैतऽहव्या: । परा । अभवन् ॥१९.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
नास्तिक के तिरस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(सृञ्जायाः) पाये हुए शत्रुओं को जीतनेवाले, (वैतहव्याः) देवताओं का अन्न खानेवाले लोग (अतिमात्रम्) अन्यन्त (अवर्धन्त) बढ़े, (न=इति न) यही नहीं, (दिवम्) सूर्यलोक को (इव) जैसे (उत्) ऊँचे होकर (अस्पृशन्) उन्होंने छू लिया। [परन्तु] (भृगुम्) परिपक्व ज्ञानी को (हिंसित्वा) सताकर (पराभवन्) हार गये ॥१॥
भावार्थ
पाखण्डी दुरात्मा चाहे कितने ही बढ़ जावें, परन्तु धर्मात्मा उनको अन्त में हरा देते हैं ॥१॥
टिप्पणी
१−(अतिमात्रम्) अत्यर्थम् (अवर्धन्त) वृद्धिं गताः (न) इति न (उत्) ऊर्ध्वम् (इव) यथा (दिवम्) सूर्यलोकम् (अस्पृशन्) स्पृष्टवन्तः (भृगुम्) अ० २।५।३। परिपक्वज्ञानम्। ऋषिम् (हिंसित्वा) दुःखयित्वा (सृञ्जयाः) सृ गतौ−क्विप्, तुक् च। संज्ञायां भृतॄवृजि०। पा० ३।२।४६। इति सृत्+जि जये−खच्, पूर्वपदस्य मुम्। अन्त्यतकारलोपश्च। प्राप्तानां शत्रूणां जेतारः−यथा दयानन्दभाष्ये, ऋ० ४।१५।४। (वैतहव्याः) अ० ५।१८।१०। भक्षितदेवयोग्यान्नाः (पराभवन्) पराजिता अभवन् ॥
विषय
सञ्जयों का वैतहव्य होने पर पतन
पदार्थ
१. (सृञ्जया:) = आक्रान्ता [स] शत्रुओं को जीतनेवाले ये सृञ्जय (अतिमात्रम् अवर्धन्त) = खूब ही वृद्धि को प्राप्त हुए (न उत् इव) = केवल इतना ही नहीं कि वे वृद्धि को प्राप्त हुए, अपितु (दिवं अस्पृशन्) = उन्नत होते हुए उन्होनें तो द्युलोक को जा छुआ। ('अधर्मेणैधते तावत्ततो भगणि पश्यति । ततः सपत्नान् जयति')। ये सृञ्जय जब (वैतहव्या:) = कर-प्राप्त धन को खानेवाले बने तब (भृगुम) = ज्ञान-परिपक्व ब्राह्मण को (हिंसित्वा) = नष्ट करके, उसे ज्ञान-प्रसार आदि कार्यों से रोककर (पराभवन्) = पराभूत हो गये।
भावार्थ
जब राजा सञ्जय-आक्रान्ता शत्रुओं पर विजय पानेवाले होते हैं तब ये खूब ही बढ़ते है, उन्नति के शिखर पर पहुचते है, परन्तु भोग-विलास में फैसते ही यह ज्ञानियों पर प्रतिबन्ध लगाना आरम्भ करते हैं। उन्हें हिंसित करके से स्वयं पराभूत हो जाते हैं-समूलस्तु विनश्यति।
भाषार्थ
[वे] (अतिमात्रम् अवर्धन्त) अतिमात्रा में वृद्धि को प्राप्त हुए, (न, उत्, इव) मानो न केवल इतनी वृद्धि है। [अपितु] (दिवम् ) द्युलोक का भी उन्होंने (अस्पृशन्) स्पर्श कर लिया, (भृगुम) परन्तु परिपक्व बुद्धिवाले ब्रह्मज्ञ की (हिंसित्वा) हिंसा करके, (सृञ्जयाः) सृञ्जय क्षत्रिय, (वैतहव्याः) खाद्य अन्न से भी विगत होकर, (पराभवन्) पराभूत हो गये, पराजित हो गये।
टिप्पणी
[मन्त्र में 'सृञ्जय-क्षत्रियों' का वर्णन है। 'सृञ्जयाः' का अभिप्राय है "समीपसरण की हुई शत्रु सेना पर विजय पानेवाले क्षत्रिय। ये क्षत्रिय स्वयं किसी पर आक्रमण नहीं करते, परन्तु शत्रु की सेना आक्रमण कर यदि इनके राष्ट्र के समीप पहुँचती है, तो आत्मरक्षार्थ, वे उसपर आक्रमण करके उसपर विजय प्राप्त कर लेते हैं। सृञ्जयाः= सृत् + जयाः। सृत् = सृ+ क्विप्+तुक्+ जया:। अर्थात् सरण कर आनेवाली शत्रुसेना को जीतनेवाले क्षत्रिय। भृगुम् = भ्रस्ज पाके (तुदादिः), मन में परिपक्व, अर्थात् विचार में परिपक्व। यथा "अचिषि भृगुः सम्बभूव, भृगुः भृज्यमानः, न देहे" (निरुक्त ३।३।१७), अर्थात् भृगु अचिः में प्रकट हुआ, भृगु है भृज्यमान, अर्थात् परिपक्व हुआ, [मन से परिपक्व] न कि, देह में। अर्चि: का अभिप्राय है ज्ञानार्चिः, ज्ञान ज्योतिः। अथवा 'भृजी भर्जने' (भ्वादिः)। अस्पृशन=स्पर्श किया, दिव् तक पहुंच गये। यह कथन काल्पनिक नहीं, अपितु यथार्थ है। वेज्ञानिक वृद्धि, इन्होंने इतनी की कि 'सृञ्जय', वैज्ञानिक-कलायन्त्रों की सहायता द्वारा द्युलोक तक पहुँच गये । वर्तमान में भी 'वैज्ञानिक' चन्द्रलोक तक सशरीर पहुंच चुके हैं और ग्रहों तथा ग्रहों के ऊपर आकाशगङ्गा तक का परिचय कलायन्त्रों द्वारा प्राप्त कर रहे हैं।]
विषय
ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ
ब्राह्मणों को मारने उनको कष्ट पहुंचाने के बुरे परिणामों का निर्देश करते हैं। (वैत-हव्याः) दान योग्य पदार्थों को भी स्वयं खा जाने वाले असुर लोग (न उत् इव) नं केवल (अति-मात्रम्) बहुत अधिक (अवर्धन्त) बलशाली, उन्नत हो जाते हैं, प्रत्युत (दिवम्) स्वर्ग-लोक को भी (अस्पृशन्) छू लेते हैं, (सृञ्जयाः) वे प्राप्त शत्रुओं के विजयकारी होकर भी (भृगुं) समस्त पापों के भून डालने वाले, अग्नि-स्वरूप ब्राह्मण का (हिंसित्वा) विनाश करके (परा अभवन्) अन्त में पराजय को ही प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मयाभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। २ विराट् पुरस्ताद् बृहती। ७ उपरिष्टाद् बृहती। १-३-६, ७-१५ अनुष्टुभः। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahma Gavi
Meaning
Having conquered all adversaries, the Asuras, natural men, rise too high, so high they almost touch the skies. Yet even being the sole victors, they hurt, violate and desecrate Bhrgu, brilliant Brahmana dedicated to Divinity, and themselves consume the food and fragrances meant for yajna. Thankless, guilty of hubris, they fall self-defeated.
Subject
Brahma-Gavi
Translation
The conquerors by aggression grew exceedingly strong. As if, they touched even the sky. Having done harm to the shining intellectual (bhrgu), the misappropriators of sacrificial offerings suffered defeat.
Translation
The sacrilegious persons not only flourish exceedingly but touch the zenith in their undertakings and celebrate victory on their foes. But inflicting injury to Bhrigu, the learned who is deprived of all evils and possesses the wealth of austerity and spirituality, such persons sustain the jolt of overthrow and fall.
Translation
Vanquishers of foes, robbers of the foodstuffs of sages, not only wax exceeding strong, but even having attained to great eminence are finally over thrown, when they wrong a learned scholar.
Footnote
"Bhrigu, Srinjayas, Vitahavya are not Proper Nouns, as Griffith considers. Bhrigu means, a learned scholar "Srinjayas means the vanquishers of foes. "Vitahavyas' means persons who rob the sages of their foodstuffs.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अतिमात्रम्) अत्यर्थम् (अवर्धन्त) वृद्धिं गताः (न) इति न (उत्) ऊर्ध्वम् (इव) यथा (दिवम्) सूर्यलोकम् (अस्पृशन्) स्पृष्टवन्तः (भृगुम्) अ० २।५।३। परिपक्वज्ञानम्। ऋषिम् (हिंसित्वा) दुःखयित्वा (सृञ्जयाः) सृ गतौ−क्विप्, तुक् च। संज्ञायां भृतॄवृजि०। पा० ३।२।४६। इति सृत्+जि जये−खच्, पूर्वपदस्य मुम्। अन्त्यतकारलोपश्च। प्राप्तानां शत्रूणां जेतारः−यथा दयानन्दभाष्ये, ऋ० ४।१५।४। (वैतहव्याः) अ० ५।१८।१०। भक्षितदेवयोग्यान्नाः (पराभवन्) पराजिता अभवन् ॥
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