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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 13
    ऋषिः - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
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    अश्रू॑णि॒ कृप॑माणस्य॒ यानि॑ जी॒तस्य॑ वावृ॒तुः। तं वै ब्र॑ह्मज्य ते दे॒वा अ॒पां भा॒गम॑धारयन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्रू॑णि । कृप॑माणस्य । यानि॑ । जी॒तस्य॑ । व॒वृ॒तु: । तम् । वै । ब्र॒ह्म॒ऽज्य॒ । ते॒ । दे॒वा: । अ॒पाम् । भा॒गम् । अ॒धा॒र॒य॒न् ॥१९.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्रूणि कृपमाणस्य यानि जीतस्य वावृतुः। तं वै ब्रह्मज्य ते देवा अपां भागमधारयन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्रूणि । कृपमाणस्य । यानि । जीतस्य । ववृतु: । तम् । वै । ब्रह्मऽज्य । ते । देवा: । अपाम् । भागम् । अधारयन् ॥१९.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 19; मन्त्र » 13
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    हिन्दी (4)

    विषय

    नास्तिक के तिरस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (कृपमाणस्य) दुःख पाते हुए, (जीतस्य) हारे हुए पुरुष के (यानि) जो (अश्रूणि) आँसू (ववृतुः) बहे हैं ! (ब्रह्मज्य) हे ब्राह्मण को हानि पहुँचानेवाले ! (देवाः) महात्माओं ने (ते) तेरे लिये (तम् वै) वही (अपाम्) जल का (भागम्) भाग (अधारयन्) ठहराया है ॥१३॥

    भावार्थ

    ईश्वर की आज्ञा भङ्ग करनेवाला पुरुष वेदवेत्ताओं द्वारा दण्ड पाकर सदा रोता रहता है ॥१३॥

    टिप्पणी

    १३−(अश्रूणि) अश्र्वादयश्च−उ० ५।२९। इति अशू व्याप्तौ−डुन्, रुट् च। नेत्रजलबिन्दवः (कृपमाणस्य) कृप दौर्बल्ये-शानच्। दुर्बलीक्रियमाणस्य (यानि) (जीतस्य) अभिभूतस्य (वावृतुः) वृतु वर्तने−लिट् परस्मैपदित्वं दीर्घत्वं च छान्दसम्। ववृतिरे वर्तमाना बभूवुः (तम्) तादृशं (अपाम्) जलानाम् (भागम्) भजनीयमंशम् (अधारयन्) अस्थापयन्। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    'कृपमाणा जीता' प्रजा के अश्रु

    पदार्थ

    १. (कृपमाणस्य) = [कृप दौर्बल्ये] दुर्बलीक्रियमाण-भूखा रखकर पीड़ित किये जाते हुए (जीतस्य) = पराभूत व्यक्ति के (यानि अश्रुणि) = जो आँसू (वावृतुः) = प्रवृत्त होते हैं, हे (ब्रह्मज्य) = राष्ट्र में ज्ञान को क्षीण करनेवाले राजन्! (देवा:) = देवों ने (तम् अपां भागम्) = उस जल के भाग को [अश्रुजलों को] (वै) = निश्चय से (ते अधारयन्) = तेरे लिए धारण किया है, तेरे लिए सुरक्षित रक्खा है।

    भावार्थ

    राष्ट्र में ज्ञानक्षय के द्वारा प्रजापीड़क राजा को उन पीड़ित, पराभूत प्रजाओं के अवजलों को स्वयं पीना पड़ता है। वह सब अत्याचार अन्ततः राजा को स्वयं सहन करना पड़ता है।

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    भाषार्थ

    (कृपमाणस्य) कृपा के पात्र बने, (जीतस्य) जीवनहानि पहुँचाये गये [ब्राह्मण के] (यानि अश्रूणि) जो आँसू (वावृतुः) प्रवृत्त हुए हैं, (ब्रह्मज्य) ब्राह्मण के जीवन को हानि पहुँचानेवाले हे राजन् ! (वै) निश्चय से ( तम् अपां भागम्) उस अश्रुरूप जल-भाग को (ते) तेरे लिए (देवा:) दिव्य, न्यायाधीशों ने (अधारयत्) निर्धारित किया है [तुझे भी रोदन-दण्ड दिया है]।

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    विषय

    ब्रह्मगवी का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ब्रह्मज्य ! ब्राह्मण के नाश करने वाले ! (यानि) जो (अश्रूणि) आंसू (कृपमाणस्य) कलपते हुए (जीतस्य) दुःखित पुरुष के (वावृतुः) निकलते हैं (देवाः) विद्वान् लोग (तं अपां भाग वै) उस जल भाग को (ते अधारयन्) तेरे लिये भी बतलाते है। अर्थात् ब्रह्मघाती पुरुष को इतना कष्ट देना चाहिये जिससे कि कलपे और रोता रहे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मयाभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। २ विराट् पुरस्ताद् बृहती। ७ उपरिष्टाद् बृहती। १-३-६, ७-१५ अनुष्टुभः। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Gavi

    Meaning

    O violator and oppressor of Brahmana, those tears of the poor, helpless, broken man that flow incessantly, that flow, the Devas have ordained as your share of the drink in life.

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    Translation

    The tears of the person being wronged, which flow when he is defeated, O scather of intellectuals, are your share of water, that the bounties of Nature have fixed.

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    Translation

    O oppressor of the Brahman! the learned persons destine as your share of water those tears which are wept by the man who suffers coercoin.

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    Translation

    O Oppressor of learned persons! tears shed by the man who suffers wrong and defeat, these are the share of water which the sages have destined to be thine.

    Footnote

    An oppressor of learned persons deserves to be given for drinking the water derived from the tears of a distressed by way of punishment.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(अश्रूणि) अश्र्वादयश्च−उ० ५।२९। इति अशू व्याप्तौ−डुन्, रुट् च। नेत्रजलबिन्दवः (कृपमाणस्य) कृप दौर्बल्ये-शानच्। दुर्बलीक्रियमाणस्य (यानि) (जीतस्य) अभिभूतस्य (वावृतुः) वृतु वर्तने−लिट् परस्मैपदित्वं दीर्घत्वं च छान्दसम्। ववृतिरे वर्तमाना बभूवुः (तम्) तादृशं (अपाम्) जलानाम् (भागम्) भजनीयमंशम् (अधारयन्) अस्थापयन्। अन्यद् गतम् ॥

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