अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 15
ऋषिः - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
0
न व॒र्षं मै॑त्रावरु॒णं ब्र॑ह्म॒ज्यम॒भि व॑र्षति। नास्मै॒ समि॑तिः कल्पते॒ न मि॒त्रं न॑यते॒ वश॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठन । व॒र्षम् । मै॒त्रा॒व॒रु॒णम् । ब्र॒ह्म॒ऽज्यम् । अ॒भि । व॒र्ष॒ति॒ । न । अ॒स्मै॒ । सम्ऽइ॑ति: ।क॒ल्प॒ते॒ । न । मि॒त्रम् । न॒य॒ते॒ । वश॑म् ॥१९.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
न वर्षं मैत्रावरुणं ब्रह्मज्यमभि वर्षति। नास्मै समितिः कल्पते न मित्रं नयते वशम् ॥
स्वर रहित पद पाठन । वर्षम् । मैत्रावरुणम् । ब्रह्मऽज्यम् । अभि । वर्षति । न । अस्मै । सम्ऽइति: ।कल्पते । न । मित्रम् । नयते । वशम् ॥१९.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
नास्तिक के तिरस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(मैत्रावरुणम्) वायु और सूर्य से किया हुआ (वर्षम्) वर्षाजल (ब्रह्मज्यम् असि) ब्राह्मण को हानि पहुँचानेवाले पर (न) नहीं (वर्षति) वर्षता है। और (न) न (अस्मै) इसके लिये (समितिः) सभा (कल्पते) समर्थ होती है, और (न) न वह (मित्रम्) मित्र को (वशम्) अपने वश में (नयते) लाता है ॥१५॥
भावार्थ
वेदविरोधी पुरुष आधिदैविक, आधिभौतिक, और आध्यात्मिक शान्ति न पाकर सदा दुःखी रहता है ॥१५॥
टिप्पणी
१५−(न) निषेधे (वर्षम्) वृष्टिः (मैत्रावरुणम्) तेन निर्वृत्तम्। पा० ४।२।६८। इति मित्रावरुणा−अण्। मित्रावरुणाभ्यां वायुसूर्याभ्यां निर्वृत्तं निष्पादितम् (ब्रह्मज्यम्) म० ७। ब्राह्मणस्य हानिकरम् (अभि) प्रति (वर्षति) सिञ्चति (न) (अस्मै) ब्रह्मविरोधिने (समितिः) सभा (कल्पते) समर्था सफला भवति (न) (मित्रम्) सुहृदम् (नयते) प्रापयति (वशम्) अधीनत्वम् ॥
विषय
अनावृष्टि का कष्ट
पदार्थ
१. (ब्रह्मज्यम) = ज्ञानक्षय करनेवाले राजा के राष्ट्र में (मैत्रावरुणम् बर्षम्)= मित्र व वरुण सम्बन्धी वृष्टि (न अभिवर्षति) = नहीं बरसती [मित्र-वरुण-अम्लजन व उद्रजन-बे वायुएँ जिनसे जल बनता है]। इस राष्ट्र में अनावृष्टि का दुःखदायी कष्ट होता है। २. (अस्मै) = इस ब्रह्मग्य राजा के लिए (समितिः) = राष्ट्रसभा (न कल्पते) = सामर्थ्य को बढ़ानेवाली नहीं होती और यह राजा (मित्रम्) = मित्र-राष्ट्र से भी (वशं न नयते) = इच्छानुकूल कार्य नहीं कर पाता।
भावार्थ
ब्रह्मज्य राजा के राष्ट्र में अनावृष्टि आदि आधिदैविक कष्ट आते हैं, राष्ट्र ब्रह्मसभा इसके सामर्थ्य को बढ़ानेवाली नहीं होती, मित्रराष्ट्र भी इसके अनुकूल नहीं रहते।
विशेष
ब्रह्मज्य राजा के राष्ट्र की दुर्दशा का चित्रण करके संकेत दिया है कि हमें ज्ञान का आदर करते हुए ज्ञानवृद्धि द्वारा ब्रह्मा बनने का प्रयत्न करना है। यह ब्रह्मा ही अगले दो सूक्तों का ऋषि है। ब्रह्मज्य न होकर राजा ब्रह्मा होगा तो इसके राष्ट्र में सदा विजय-दुन्दुभि का नाद उठेगा -
भाषार्थ
(ब्रह्मज्यमभि) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ के जीवन को हानि पहुँचानेवाले को (अभि) लक्ष्य करके (मैत्रावरुणम् ) मित्र और वरुण सम्बन्धी (वर्षम्) सुख-वर्षा (न वर्षति) नहीं बरसती, [नहीं होती], (न) और न ( अस्मै ) इसके लिए (समितिः) अपनी राजसभा ( कल्पते ) सामर्थ्यवती होती है, (न) तथा न (मित्रम्) मित्र-राजा को ( वशम् ) वश में ( नयते) ला सकता है [स्वानुकूल कर सकता है।]
टिप्पणी
[ज्या वयोहानौ (क्र्यादिः)। मैत्रावरुणम्= मित्र है मित्र-राजा, यथा "an ally the next neighbour of king" (आप्टे), अर्थात् साथी, जोकि साथ लगे राष्ट्र का अधिपति है; और वरुण है सम्राट के साम्राज्य का अङ्गभूत राष्ट्रपति। ये दोनों जब सम्राट् के सहयोगी होते है तब साम्राज्य और इन राष्ट्रों पर जो सुख-वर्षा होती है वह ब्रह्मज्य-राजा के राज्य पर नहीं। समिति:= राजसभा (अथर्व० ८।१०।१०,११)। तथा यजु:० १२।८०) मन्त्र से प्रतीत होता है कि सूक्त १८,१९ में वर्णित ब्राह्मण, उसकी गौ, और राजा का वर्णन, राजनीतिक तत्वों के परिज्ञानार्थ हुआ है।]
विषय
ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ
(ब्रह्मज्यं) ब्रह्महत्यारे के राष्ट्र में (मैत्रावरुणं वर्षं) मित्र और वरुण अर्थात् ब्राह्मण और क्षत्रिय के सम्मिलित शासन की सुखवर्षाएं (न अमि वर्षति) नहीं बरसतीं। (अस्मै) इस ब्रह्मद्रोही की (समितिः) राष्ट्र सभा भी (न) नहीं (कल्पते) सामर्थ्यवान् होती और (मित्रं) मित्र राष्ट्र भी (वशं) उसकी इच्छा के अनुकूल (न नयते) कार्य नहीं करते। अर्थात् ब्रह्मघाती के राष्ट्र में सुख नहीं होता, उसकी राष्ट्रसभा टूट जाती है। और मित्र-राष्ट्र फूट जाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मयाभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। २ विराट् पुरस्ताद् बृहती। ७ उपरिष्टाद् बृहती। १-३-६, ७-१५ अनुष्टुभः। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahma Gavi
Meaning
The rain that Mitra and Varuna, divine sun and air, shower on all, they do not shower on the oppressor of the Brahmana. The Council of the Nation accepts him not, nor does it bring him to success. And he has no love for a friend, nor friend for him.
Translation
The rain caused by sun and ocean does not fall on (the domain of) the scather of intellectuals. The war-council (samiti) does not favour him, nor can he bring the friends under his control (win the support of his friends).
Translation
The rain produced by Mitra-Varuna, the gases known as hydrogen and oxygen does not falls upon him who oppresses the Brahmana, Neither any counsel brings him to success nor any friend enjoys his company.
Translation
In a country where learned persons are oppressed, the rain produced by the air and sun does not fall. In his country the Assembly does not function successfully, he wins no friend to do his will.
Footnote
‘He, his’ refer to an oppressor.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(न) निषेधे (वर्षम्) वृष्टिः (मैत्रावरुणम्) तेन निर्वृत्तम्। पा० ४।२।६८। इति मित्रावरुणा−अण्। मित्रावरुणाभ्यां वायुसूर्याभ्यां निर्वृत्तं निष्पादितम् (ब्रह्मज्यम्) म० ७। ब्राह्मणस्य हानिकरम् (अभि) प्रति (वर्षति) सिञ्चति (न) (अस्मै) ब्रह्मविरोधिने (समितिः) सभा (कल्पते) समर्था सफला भवति (न) (मित्रम्) सुहृदम् (नयते) प्रापयति (वशम्) अधीनत्वम् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal