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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
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    वि॒षमे॒तद्दे॒वकृ॑तं॒ राजा॒ वरु॑णोऽब्रवीत्। न ब्रा॑ह्म॒णस्य॒ गां ज॒ग्ध्वा रा॒ष्ट्रे जा॑गार॒ कश्च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒षम् । ए॒तत् । दे॒वऽकृ॑तम् । राजा॑ । वरु॑ण: । अ॒ब्र॒वी॒त् । न । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । गाम् । ज॒ग्ध्वा । रा॒ष्ट्रे । जा॒गा॒र॒ । क: । च॒न ॥१९.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विषमेतद्देवकृतं राजा वरुणोऽब्रवीत्। न ब्राह्मणस्य गां जग्ध्वा राष्ट्रे जागार कश्चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विषम् । एतत् । देवऽकृतम् । राजा । वरुण: । अब्रवीत् । न । ब्राह्मणस्य । गाम् । जग्ध्वा । राष्ट्रे । जागार । क: । चन ॥१९.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 19; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    नास्तिक के तिरस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (राजा) राजा (वरुणः) श्रेष्ठ परमात्मा ने (अब्रवीत्) कहा है “(एतत्) यह (देवकृतम्) इन्द्रियों से किया हुआ (विषम्) विष [समान पाप] है, (कश्चन) कोई भी (ब्राह्मणस्य) ब्राह्मण की (गाम्) विद्या को (जग्ध्वा) हड़पकर (राष्ट्रे) राज्य में (न) नहीं (जागार) जागता रहा है” ॥१०॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने उपदेश किया है कि जैसे विष खाने से मनुष्य अचेत हो जाता है, वैसे ही वेदविद्या के नाश से सब लोग आलसी और निरुत्साही हो जाते हैं ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(विषम्) विषं यथा (एतत्) दुष्कर्म (देवकृतम्) इन्द्रियविकारकृतम् (राजा) वरुणः श्रेष्ठः परमेश्वरः (अब्रवीत्) वेदे कथितवान् (न) निषेधे (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मवेत्तुः (गाम्) विद्याम् (जग्ध्वा) भुक्त्वा नाशयित्वा (राष्ट्रे) राज्ये (जागार) जागृ निद्राक्षये−लिटि छान्दसं रूपम्। जजागार विनिद्रो जागरूकः सावधानो बभूव (कश्चन) कश्चिदपि ॥

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    विषय

    देवकृत विष

    पदार्थ

    १. (एतत्) = यह वेदज्ञान (विषम्) = [विशेषेण स्यति, छोऽन्तकर्मणि] विशेषरूप से बुराइयों का अन्त करनेवाला है। यह प्रभु से (देवकृतम्) = देवों के लिए दिया गया है। इसे (राजा) = संसार के शासक (वरुण:) = पापों के निवारक प्रभु ने (अब्रवीत्) = कहा है। सृष्टि के प्रारम्भ में इसका उच्चारण प्रभु द्वारा होता है। यह वेदज्ञान ही ब्राह्मण की वाणी का विषय बनता है। २. (ब्राह्मणस्य) = इस ज्ञानी ब्रह्मवेत्ता की (गाम्) = वाणी को (जग्ध्वा) = खाकर, हड़पकर, अर्थात् समाप्त करके, उसपर प्रतिबन्ध लगाकर (राष्ट्रे) = राष्ट्र में (कश्चन न जागार) = कोई जागरित व जीवित नहीं रहता। धर्मज्ञान का लोप हो जाने से सब लोग आलस्य आदि दोषों के शिकार हो जाते हैं।

     

    भावार्थ

    प्रभु ने वेदज्ञान इसलिए दिया है, क्योंकि यह बुराइयों को समाप्त करनेवाला है। ब्रह्मणों द्वारा राष्ट्र में इसका प्रचार होता है। ब्राह्मण की वाणी पर प्रतिबन्ध लगाने से राष्ट्र में धर्म का लोप हो जाता है।

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    भाषार्थ

    (राजा, वरुणः, अब्रवीत्) राजा वरुण बोला कि ( एतत् ) यह [सद्धन का स्तम्भन ] (विषम् ) विषरूप है, (देवकृतम्) जोकि परमेश्वर देव द्वारा निश्चित किया गया है। (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ की (गाम) परामर्शवाणीरूपी गौ को (जग्ध्वा) खाकर [ विनष्ट कर, उपेक्षित कर ] (राष्ट्र) राष्ट्र में (कश्चन ) कोई भी राजा ] ( न जागार ) नहीं जागा, नहीं जीवित रहा।

    टिप्पणी

    [राष्ट्र पद द्वारा राष्ट्र-गति का वर्णन मन्त्र में हुआ है । वरुण राजा है साम्राज्य के किसी एक राष्ट्र का अधिपति, जिसने कि मन्त्र भावना अभिव्यक्त किया है, "इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा" (यजु:० ८/३७]।

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    विषय

    ब्रह्मगवी का वर्णन।

    भावार्थ

    (वरुणः) सबसे श्रेष्ठ (राजा) राजा (अब्रवीत्) यह उपदेश करता है कि (एतत्) यह ब्राह्मण का धन (देव-कृतं) विद्वानों के निर्णय के अनुसार (विषम्) विष ही है। (ब्राह्मणस्य) इसलिये ब्राह्मण की (गां) सम्पत्ति, भूमि, गौ, धन, वृत्ति आदि को (जग्ध्वा) हड़प कर (कः-चन) कोई भी (राष्ट्रे) राष्ट्र में (न जागार) जीवित, जागृत नहीं रह सकता है।

    टिप्पणी

    ‘न विषं विषमित्याहुर्ब्रह्मस्वं विषमुच्यते।’ विष विष नहीं, ब्राह्मण का धन विष है। इसको खाकर कोई जी नहीं सकता।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मयाभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। २ विराट् पुरस्ताद् बृहती। ७ उपरिष्टाद् बृहती। १-३-६, ७-१५ अनुष्टुभः। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Gavi

    Meaning

    The omnipotent ruler of the world, Varuna, all protector, has said and ordained thus: O man, this Brahmana’s Cow is virtual poison created by divinities for the unholy. Having eaten of this Brahmana’s Cow, no one can live and keep awake in the Rashtra.

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    Translation

    This is the poison prepared by the bounties of Nature, so has proclaimed the venerable king. Having devoured the cow of an intellectual no one wakes up in the kingdom.

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    Translation

    That (forcibly possessed) whalth, as says Supreme Being, is poison prepared by the learned men and physical forces of the nature. No one in the Kingdom attains the awakening consuming of the cow of Brahmana.

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    Translation

    Venerable God hath declared in the Vedas, the property of a Vedic scholar is a kind of poison, prepared by the sages. He who usurps that cannot remain alive in the state.

    Footnote

    The property of a Vedic scholar is sacred, and should not be touched by any one. Just as poison, if taken kills a man, so the man who usurps the property of a scholar is liableto be punished with death by a king.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(विषम्) विषं यथा (एतत्) दुष्कर्म (देवकृतम्) इन्द्रियविकारकृतम् (राजा) वरुणः श्रेष्ठः परमेश्वरः (अब्रवीत्) वेदे कथितवान् (न) निषेधे (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मवेत्तुः (गाम्) विद्याम् (जग्ध्वा) भुक्त्वा नाशयित्वा (राष्ट्रे) राज्ये (जागार) जागृ निद्राक्षये−लिटि छान्दसं रूपम्। जजागार विनिद्रो जागरूकः सावधानो बभूव (कश्चन) कश्चिदपि ॥

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