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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त
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    वृषे॑व यू॒थे सह॑सा विदा॒नो ग॒व्यन्न॒भि रु॑व संधनाजित्। शु॒चा वि॑ध्य॒ हृद॑यं॒ परे॑षां हि॒त्वा ग्रामा॒न्प्रच्यु॑ता यन्तु॒ शत्र॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ऽइव । यू॒थे । सह॑सा । वि॒दा॒न: । ग॒व्यन् । अ॒भि । रु॒व॒ । सं॒ध॒न॒ऽजि॒त् । शु॒चा । वि॒ध्य॒ । हृद॑यम् । परे॑षाम् । हि॒त्वा । ग्रामा॑न् । प्रऽच्यु॑ता: । य॒न्तु॒ । शत्र॑व: ॥२०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषेव यूथे सहसा विदानो गव्यन्नभि रुव संधनाजित्। शुचा विध्य हृदयं परेषां हित्वा ग्रामान्प्रच्युता यन्तु शत्रवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषाऽइव । यूथे । सहसा । विदान: । गव्यन् । अभि । रुव । संधनऽजित् । शुचा । विध्य । हृदयम् । परेषाम् । हित्वा । ग्रामान् । प्रऽच्युता: । यन्तु । शत्रव: ॥२०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    संग्राम में जय का उपदेश।

    पदार्थ

    (वृषा इव) बैल के समान (यूथे) अपने झुण्ड में (सहसा) बल से (विदानः) जाना गया, (गव्यन्) भूमि चाहता हुआ (संधनाजित्) यथावत् धन जीतनेवाला तू (अभि) चारों ओर (रुव) गरज। (परेषाम्) वैरियों का (हृदयम्) हृदय (शुचा) शोक से (विध्य) छेद डाल (प्रच्युताः) गिरे हुए (शत्रवः) वैरी (ग्रामान्) अपने गाँवों को (हित्वा) छोड़ कर (यन्तु) चले जावें ॥३॥

    भावार्थ

    पराक्रमी योधा लोग संग्राम में वैरियों को जीत कर उनका धन और राज्य छीन लें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(वृषा) बलीवर्दः (इव) यथा (यूथे) तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। उ० २।१२। इति यु मिश्रणामिश्रणयोः। थक्। सजातीयसमूहे (सहसा) बलेन (विदानः) विद ज्ञाने−शानच् क्तार्थे। विदितः (गव्यन्) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इति गो−क्यच्। गां भूमिमिच्छन् (अभि) (रुव) गर्ज (संधनाजित्) छान्दसो दीर्घः। सम्यग्धनानां जेता (शुचा) शोकेन (विध्य) छिन्धि (हृदयम्) अन्तःकरणम् (परेषाम्) शत्रूणाम् (हित्वा) ओहाक् त्यागे। (त्यक्त्वा (ग्रामान्) निवासदेशान् (प्रच्युताः) पराजिताः (यन्तु) गच्छन्तु (शत्रवः) वैरिणः ॥

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    विषय

    सन्धनाजित्

    पदार्थ

    १. (युथे) = गौओं के झण्ड में (वृषा इव) = शक्तिशाली सांड के समान (सहसा विदान:) = बल से जाना गया-बल के कारण प्रसिद्ध-अपने सैनिकों में बल का सञ्बार करनेवाला यह युद्धवाद्य (गव्यन् इव) = [गो-भूमि] राष्ट्र-भूमि की कामना करनेवाला-सा है-राष्ट्रभूमि की यह रक्षा करनेवाला है, (सन्धनाजित्) = शत्रु-धनों का विजय करनेवाला है। २. हे युद्धवाद्य! तू (अभिरुव) = चारों ओर शब्द करनेवाला हो, (परेषाम्) = शत्रुओं के (हृदयम्) = हृदय को (शुचा विध्य) = शोक के द्वारा विद्ध करनेवाला हो। (शत्रवः) = शत्रु (ग्रामान् हित्वा) = अपने ग्रामों को छोड़कर (प्रच्युताः यन्तु) = पराजित हुए-हुए-स्थान-भ्रष्ट हुए-हुए भाग जाएँ।

    भावार्थ

    युद्धवाद्य का शब्द शत्रु-पराजय द्वारा राष्ट्र-भूमि की रक्षा करनेवाला हो। यह धनों का विजय करे और शत्रु स्थान-भ्रष्ट हुए-हुए भाग खड़े हों।

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    भाषार्थ

    (यूथे) गौओं के समूह में (सहसा) बल द्वारा (विदानः) जाने गये (वृषा इव) बैल के सदृश जाना गया तू [हे दुन्दुभि !], (गव्यन्) शत्रुओं की पृथिवी को चाहता हुआ तथा (संधनाजित्) उनके धनों को जीतता हुआ (रुव) शब्द कर। (परेषाम् ) शत्रुओं के (हृदयम् ) हृदय को ( शुचा) शोक द्वारा (विध्य) बींध, (प्रच्युताः) खदेड़े हुए (शत्रवः) शत्रु (ग्रामान् हित्वा ) ग्रामों को छोड़कर (यन्तु) चले जाएँ। [गव्यन्= गौः पृथिवी नाम (निघं० १।१)। संधना=सं धनानि, उनका परस्पर मिला-धन, समग्र धन।]

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    विषय

    दुन्दुभि या युद्धवीर राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    नगारा बजाने का प्रयोजन दर्शाते हुए क्षत्रिय के कर्तव्य का उपदेश करते हैं। हे नगारे ! तू गहराते हुए सांड के समान घोर भयंकर शब्द कर और शत्रुओं के हृदय को वेध डाल, जिससे कि शत्रुगण अपने गांव छोड़ २ कर भाग जायँ। अर्थात् (यूथे वृषा इव) गौओं के रेवड़े में बड़ा सांड (गव्यन्) गौओं की कामना करता हुआ (सहसा) अपने बल से जिस प्रकार गहराता है उसी प्रकार तू शूरवीर (गव्यन्) भूमियों की कामना करता हुआ (सं- धनाजित्) समस्त धनों को विजय करके (सहसा) अपने प्रबल आघातकारी बल से (विदानः) विजय लक्ष्मी को प्राप्त करता हुआ (अभि रुव) सब तरफ़ गर्जना कर और (परेषां हृदयम्) शत्रुओं के हृदयों को (शुचा विध्य) शोक से वेध डाल जिससे (शत्रवः) शत्रु-गण (प्रच्युताः) अपने राज्य सिंहासन से भ्रष्ट होकर (ग्रामान्) अपने ग्रामों को (हित्वा) छोड़कर (यन्तु) चले जावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। वानस्पत्यो दुन्दुभिर्देवता। सपत्न सेनापराजयाय देवसेना विजयाय च दुन्दुभिस्तुतिः। १ जगती, २-१२ त्रिष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Clarion call for War and Victory

    Meaning

    O warrior, like a lustrous hero, pouncing upon the enemy hoard in full knowledge, well known ambitious for land and victory, roar as terror and advance for the conquest. Strike the heart of enemies with fear and dismay and let them flee having left their field and positions, tumbling in panic.

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    Translation

    O winner of plentiful booty arriving suddenly, like a mighty bull seeking cows, may you roar all around. May you pierce the heart of our enemies with grief. Having been dislodged may our enemies flee leaving their villages.

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    Translation

    Let this war-drums which is the mean of quick victory and known to all roar loudly like an oxen marked by strength among the cattle. Let it pierce the heart of adversaries with sorrow and let our routed enemies desert leaving their villages.

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    Translation

    Just as a bull seeking kine, is suddenly recognized among the herd of cattle, so roar thou, O War-drum (king) willing to win wealth, pierce through our adversaries hearts with sorrow, and let our routed foes desert their hamlets.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(वृषा) बलीवर्दः (इव) यथा (यूथे) तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। उ० २।१२। इति यु मिश्रणामिश्रणयोः। थक्। सजातीयसमूहे (सहसा) बलेन (विदानः) विद ज्ञाने−शानच् क्तार्थे। विदितः (गव्यन्) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इति गो−क्यच्। गां भूमिमिच्छन् (अभि) (रुव) गर्ज (संधनाजित्) छान्दसो दीर्घः। सम्यग्धनानां जेता (शुचा) शोकेन (विध्य) छिन्धि (हृदयम्) अन्तःकरणम् (परेषाम्) शत्रूणाम् (हित्वा) ओहाक् त्यागे। (त्यक्त्वा (ग्रामान्) निवासदेशान् (प्रच्युताः) पराजिताः (यन्तु) गच्छन्तु (शत्रवः) वैरिणः ॥

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