अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 7
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त
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अ॑न्त॒रेमे नभ॑सी॒ घोषो॑ अस्तु॒ पृथ॑क्ते ध्व॒नयो॑ यन्तु॒ शीभ॑म्। अ॒भि क्र॑न्द स्त॒नयो॒त्पिपा॑नः श्लोक॒कृन्मि॑त्र॒तूर्या॑य स्व॒र्धी ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्त॒रा । इ॒मे इति॑ । नभ॑सी॒ इति॑ । घोष॑: । अ॒स्तु॒ । पृथ॑क् । ते॒ । ध्व॒नय॑: । य॒न्तु॒ । शीभ॑म् । अ॒भि । क्र॒न्द॒। स्त॒नय॑ । उ॒त्ऽपिपा॑न: । श्लो॒क॒ऽकृत् । मि॒त्र॒ऽतूर्या॑य । सु॒ऽअ॒र्धी ॥२०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तरेमे नभसी घोषो अस्तु पृथक्ते ध्वनयो यन्तु शीभम्। अभि क्रन्द स्तनयोत्पिपानः श्लोककृन्मित्रतूर्याय स्वर्धी ॥
स्वर रहित पद पाठअन्तरा । इमे इति । नभसी इति । घोष: । अस्तु । पृथक् । ते । ध्वनय: । यन्तु । शीभम् । अभि । क्रन्द। स्तनय । उत्ऽपिपान: । श्लोकऽकृत् । मित्रऽतूर्याय । सुऽअर्धी ॥२०.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
संग्राम में जय का उपदेश।
पदार्थ
(इमे) इन (नभसी) सूर्य और पृथिवी के (अन्तरा) बीच (घोषः) तेरा शब्द (अस्तु) होवे, (ते) तेरी (ध्वनयः) ध्वनें (शीभम्) शीघ्र (पृथक्) नाना रूप से (यन्तु) जावें। (उत्पिपानः) ऊपर चढ़ता हुआ, (श्लोककृत्) बड़ाई करनेवाला, (स्वर्धी) बड़ी वृद्धिवाला तू (मित्रतूर्याय) मित्रों के वेग के लिये (अभि) चारों ओर (क्रन्द) शब्द कर और (स्तनय) गड़-गड़ाकर गर्ज ॥७॥
भावार्थ
योधा पुरुष दुन्दुभि आदि बाजों की ध्वनि से शत्रुओं को जीत कर कीर्ति पावें ॥७॥
टिप्पणी
७−(अन्तरा) मध्ये (इमे) प्रत्यक्षे (नभसी) द्यावापृथिव्यौ−निघ० ३।३०। (घोषः) ध्वनिः (अस्तु) भवतु (पृथक्) नानारूपेण (ते) तव (ध्वनयः) शब्दाः (यन्तु) गच्छन्तु (शीभम्) शीभृ कत्थने−घञ्। क्षिप्रम्−निघ० २।१५। (अभि) (क्रन्द) शब्दं कुरु (स्तनय) बहु गर्ज (उत्पिपानः) पि गतौ−यङि शानचि छान्दसं रूपम्। उत्पेपीयमानः। अत्यर्थमुद्गच्छन् (श्लोककृत्) स्तुतिकर्ता। श्लोको वाङ्नाम−निघ० १।११। (मित्रतूर्याय) मित्र+तूरी गतित्वरणहिंसनयोः−ण्यत्। मित्राणां वेगकरणाय (स्वर्धी) सु+ऋधु वृद्धौ−णिनि। सुष्ठु वृद्धिशीलः ॥
विषय
उत्पिपान: श्लोककृत्
पदार्थ
१. हे युद्धवाद्य ! (इमे नभसी अन्तरा) = इन चुलोक व पृथिवीलोक के बीच में (घोषः अस्तु) = तेरा घोष गूंज उठे [नभश्च पृथिवी चैव तुमुलो व्यनुनादयन्]। (ते ध्वनयः पृथक् शीर्भ यन्तु) = तेरी ध्वनियों चारों दिशाओं में शीघ्र फैलें। २. (उत्पिपानः) = खूब ऊँचा उठता हुआ-बढ़ता हुआ तू (श्लोककृत्) = हमारे सैनिकों का यश बढ़ानेवाला हो, (मित्रतूर्याय) = मित्र-सैन्यों की त्वरा से युक्त गति के लिए होता हुआ [तुरी गती] (स्वर्धी) = उत्तम ऋद्धिवाला तू (अभिक्रन्द) = चारों ओर आह्वान कर, स्तनय-खूब गर्जना करनेवाला हो।
भावार्थ
युद्धवाद्य का शब्द आकाश व पृथिवी को अनुनादित कर दे। बढ़ता हुआ यह शब्द राष्ट्र-सैन्यों की यशोवृद्धि का कारण बने।
भाषार्थ
(इमे नभसी) इन दोनों द्युलोक और पृथिवी लोक के (अन्तः) भीतर (घोषः) विजयघोष (अस्तु) हो, (ते ) तेरी (पृथक् ) पृथक् अर्थात् नानाविध (ध्वनयः) ध्वनियाँ (शोभम् ) शीघ्र (यन्तु) प्रवृत्त हों। (अभिक्रन्द) हे दुन्दुभि ! तू क्रन्दन कर, (स्तनय) गर्जना कर, (उत् पिपानः) शत्रु का शोषण करता हुआ, या स्वजनों की रक्षा करता हुआ, (श्लोककृत्) निज विजय के यश को बढ़ाता हुआ, (स्वर्धी) निज सैनिकों की ऋद्धि करनेवाला (मित्रतूर्याय) मित्र राजाओं [की सहायता] द्वारा शत्रुओं के विनाशार्थ।
टिप्पणी
[पृथक् =नानाविध ध्वनियाँ (मन्त्र ६)। शीभम् क्षिप्रनाम (निघं० २।१५), विजय होने पर विजय की ध्वनियों तत्काल होनी चाहिए। उत्पिपानः=उत्+पै, शोषणे (भ्वादिः) अथवा पा रक्षणे। श्लोक=यश, कीर्ति । स्वर्धी: = उत्तम ऋशि करनेवाला ।]
विषय
दुन्दुभि या युद्धवीर राजा का वर्णन।
भावार्थ
हे दुन्दुभे ! विजय के नक्कारे ! (इमे नभसी अन्तः) इन दोनों द्यौ और पृथिवी, ज़मीन और आस्मान के बीच में (ते घोषः अस्तु) तेरा विजय-घोष हो। (ते ध्वनयः) तेरी आवाज़ें (पृथक्), अलग २ नाना दिशाओं में (शीभम् यन्तु) शीघ्रता से फैल जावें, तू (उत्पिपानः) बढ़ २ कर (श्लोककृत) यश को बढ़ाने वाला (मित्र सूर्याय) अपने मित्र राजाओं की भेरी के लिये (स्वर्धी) उत्तम रीति से सुसम्पन्न या स्पर्धालु होकर (स्तनय) गर्जना कर और (अभिक्रन्द) खूब आवाज़ कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। वानस्पत्यो दुन्दुभिर्देवता। सपत्न सेनापराजयाय देवसेना विजयाय च दुन्दुभिस्तुतिः। १ जगती, २-१२ त्रिष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Clarion call for War and Victory
Meaning
Let the boom of the drum rise from earth to heaven and let the words and waves of your command instantly ring in the middle spaces. Roar and thunder, rising, resounding, celebrated and advancing for the destruction of enemy forces.
Translation
May there be loud noise between these two firmaments. May your sounds spread quickly in all directions. Growing in vehemence and earning glory, may you roar and thunder, so that the victory for friends may be achieved (assured).
Translation
Let the roar of this war-drum be loud between the earth and heaven, let its swift voice spread out in all the directions, let it neigh at enemies and thunder being louder, admirable and engaged in quickening the courage of allies.
Translation
Loud be thy roar between the earth and heaven swift let thy sounds go forth in all directions. Ye, full of significance; singing praises, roar and thunder, and act as a good ally for the conquest of friends.
Footnote
‘Thy, ye' refer to the war-drum.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(अन्तरा) मध्ये (इमे) प्रत्यक्षे (नभसी) द्यावापृथिव्यौ−निघ० ३।३०। (घोषः) ध्वनिः (अस्तु) भवतु (पृथक्) नानारूपेण (ते) तव (ध्वनयः) शब्दाः (यन्तु) गच्छन्तु (शीभम्) शीभृ कत्थने−घञ्। क्षिप्रम्−निघ० २।१५। (अभि) (क्रन्द) शब्दं कुरु (स्तनय) बहु गर्ज (उत्पिपानः) पि गतौ−यङि शानचि छान्दसं रूपम्। उत्पेपीयमानः। अत्यर्थमुद्गच्छन् (श्लोककृत्) स्तुतिकर्ता। श्लोको वाङ्नाम−निघ० १।११। (मित्रतूर्याय) मित्र+तूरी गतित्वरणहिंसनयोः−ण्यत्। मित्राणां वेगकरणाय (स्वर्धी) सु+ऋधु वृद्धौ−णिनि। सुष्ठु वृद्धिशीलः ॥
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