अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 12
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त
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अ॑च्युत॒च्युत्स॒मदो॒ गमि॑ष्ठो॒ मृधो॒ जेता॑ पुरए॒तायो॒ध्यः। इन्द्रे॑ण गु॒प्तो वि॒दथा॑ निचिक्यद्धृ॒द्द्योत॑नो द्विष॒तां या॑हि॒ शीभ॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒च्यु॒त॒ऽच्युत् । स॒ऽमद॑: । गमि॑ष्ठ: । मृध॑: । जेता॑ । पु॒र॒:ऽए॒ता । अ॒यो॒ध्य: । इन्द्रे॑ण । गु॒प्त: । वि॒दथा॑ । नि॒ऽचिक्य॑त । हृ॒त्ऽद्योत॑न: । द्वि॒ष॒ताम् । या॒हि॒ । शीभ॑म् ॥२०.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्युतच्युत्समदो गमिष्ठो मृधो जेता पुरएतायोध्यः। इन्द्रेण गुप्तो विदथा निचिक्यद्धृद्द्योतनो द्विषतां याहि शीभम् ॥
स्वर रहित पद पाठअच्युतऽच्युत् । सऽमद: । गमिष्ठ: । मृध: । जेता । पुर:ऽएता । अयोध्य: । इन्द्रेण । गुप्त: । विदथा । निऽचिक्यत । हृत्ऽद्योतन: । द्विषताम् । याहि । शीभम् ॥२०.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
संग्राम में जय का उपदेश।
पदार्थ
(अच्युतच्युत्) न गिरे हुओं [शत्रुओं] को गिरानेवाला, (समदः) हर्षसहित (गमिष्ठः) अतिशय गतिवाला, (मृधः) संग्रामों को (जेता) जीतनेवाला, (पुरएता) आगे-आगे चलनेवाला, (अयोध्यः) न रुकने योग्य, (इन्द्रेण) ऐश्वर्यवान् सेनापति से (गुप्तः) रक्षा किया गया, (विदथा=०−थानि) जानने योग्य कर्मों को (निचिक्यत्) जानता हुआ, (द्विषताम्) वैरियों के (हृद्द्योतनः) निश्चय करके हृदयों को जलानेवाला तू (शीभम्) शीघ्र (याहि) प्राप्त हो ॥१२॥
भावार्थ
सेनापति की आज्ञा से दुन्दुभि बजते ही समस्त सेना दल शत्रुओं पर टूट पड़े ॥१२॥
टिप्पणी
१२−(अच्युतच्युत्) च्युङ् गतौ−क्त+च्युङ्−क्विप्, तुक् च। अनधःपतितानां शत्रूणामधः पातयिता (समदः) सहर्षः (गमिष्ठः) गन्तृ−इष्ठन्। अतिशयेन गतिवान् (मृधः) मृध हिंसायाम्−क्विप्, संग्रामान्−निघ० २।१७। (जेता) जयशीलः (पुरएता) अग्रगामी (अयोध्यः) केनापि योद्धुमशक्यः। अबाध्यः (इन्द्रेण) ऐश्वर्यवता सेनापतिना (गुप्तः) रक्षितः (विदथा) अ० १।१३।४। शेर्लोपः। वेदितव्यानि कर्माणि (निचिक्यत्) कि ज्ञाने जुहो०−शतृ। निश्चयेन जानन् (हृद्द्योतनः) द्युत−दीप्तौ−ल्युट्। द्योतते ज्वलतिकर्मा−निघ० १।१६। हृदयानां तापकः (द्विषताम्) द्वेषं कुर्वताम् (याहि) गच्छ (शीभम्) म० ७। शीघ्रम् ॥
विषय
अच्युतच्युत्
पदार्थ
१. हे युद्धवाद्य । तू (अच्युतच्युत्) = दृढ़ शत्रुओं के भी पैर उखाड़ देनेवाला है, (समदः गमिष्ठा:) = हर्षयुक्त हुआ तू शत्रुओं के प्रति जानेवाला-उनपर आक्रमण करनेवाला है, (मृधः जेता) = संग्रामों का विजय करनेवाला (पुरः एता) = आगे बढ़नेवाला व (अयोध्यः) = युद्ध न करने योग्य है-तुझे जीतना किसी के लिए भी सम्भव नहीं। २. (इन्द्रेण) = शत्रुओं के विद्रावक सेनानी से तू (गुप्तः) = सुरक्षित हुआ है, (विदथा निचिक्यत्) = ज्ञातव्य कर्मों को जानता हुआ, अर्थात् योद्धाओं को उनके कर्तव्यकर्मों में प्रेरित करता हुआ तू (द्विषताम्) = शत्रुओं के हृद्द्योतन:-[द्योतते ज्वलतिकर्मा-१.१६] हदयों को सन्राप्त करनेवाला है, (शीभं याहि) = तू शीघ्रता से शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाला हो। तू बज उठ और योद्धा शत्रु पर आक्रमण करनेवाले हों।
भावार्थ
यह युद्धवाद्य दृढ़ शत्रुओं को भी परास्त करनेवाला है-शत्रुओं के हृदय को सन्तप्त करनेवाला है। यह योद्धाओं को शत्रुसैन्य पर आक्रमण के लिए प्रेरित करता है।
भाषार्थ
(अच्युतच्युत) च्युत न होनेवाले [ शत्रु सेनानी] को च्युत करने वाला, (समदः) मोद-प्रमोदवाला, (गमिष्ठः) शत्रु की ओर जानेवाला, (मृधः जेता) संग्राम का जीतनेवाला, (पुर एता ) आगे-आगे जानेवाला, (अयोध्य:) जिसके साथ युद्ध नहीं किया जा सकता, (इन्द्रेण गुप्तः) सम्राट् द्वारा सुरक्षित, (विदथा नीचिक्यत्) शत्रु की गोष्ठियों का जाननेवाला, (द्विषताम्) द्वेषियों के (हृदद्योतनः ) हृदयों को शोकाग्नि द्वारा जलानेवाला तू (शोभम् ) शीघ्र (याहि) संग्रामभूमि में जा।
टिप्पणी
[मृधः संग्रामनाम (निघं० २।१७)।]
विषय
दुन्दुभि या युद्धवीर राजा का वर्णन।
भावार्थ
हे राजन् ! (अच्युत च्युत्) न चूकने वाले, स्थिर, दृढ़ शत्रुओं के भी पैर उखाड़ देने, उनको विचलित करने वाला होकर, तू (स-मदः) सहर्ष (गमिष्ठः) यात्रा करने में सब से बढ़ा चढ़ा है। इसलिये तू (मृधः जेता) शत्रुओं का विजयी और (अयोध्यः) दुर्योधन होकर (पुरः एता) सामने मैदान में निकल आ। तू (इन्द्रेण गुप्तः) इन्द्र अर्थात् सेनापति से सुरक्षित (विदधा) समस्त जानने योग्य कर्मों को (नि-चिक्यत्) भली प्रकार जानता हुआ, (द्विषतां हृत्-द्योतनः) शत्रुओं के हृदयों को चौंकाने वाला होकर (शीभम्) शीघ्रता से (याहि) युद्ध यात्रा कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। वानस्पत्यो दुन्दुभिर्देवता। सपत्न सेनापराजयाय देवसेना विजयाय च दुन्दुभिस्तुतिः। १ जगती, २-१२ त्रिष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Clarion call for War and Victory
Meaning
Shaker of the unshaken, joyous, most dynamic, winner of battles, leading pioneer, unchallengeable, protected favourite of Indra, the ruler, well versed in yajnic programmes, breaker of the courage and morale of adversaries, O leading voice of the nation, pray come forthwith and guide us to our goals through the battle ranks of life. Note: This Sukta is not a song of war¬ mongering, it is a song of struggle and exhortation to realise our aims of higher living with freedom at individual as well as collective living within the laws of natural and social dynamics. Life is a struggle, and to rise we have to fight against our limitations, weaknesses and negativities, which, added to external pressures, are our enemies. We must challenge these with self-confidence for victory, and this challenging struggle for victory is the theme.
Translation
Overthrower of unoverthrown, always ready to join the battle, conqueror of foes, moving in forefront, irresistible, protected by the resplendent Lord, knowing well the skills of war, burning hearts of our malicious enemies, (O drum), may you move (towards them) quickly.
Translation
This war-drum is the shaker of things unshaken, readiest comer to battles, conquer Or of enemies, runner before the army, resistless, guarded by the mighty king, the means of knowing battle warnings and the breaker of the hearts of foe-men. Let it quickly go.
Translation
O King, the shaker of the unshaken foes, readiest comer to battles, conqueror of foes, resistless leader, guarded by the Commander-in-chief, knower of the secrets of warfare, breaker of the hearts of those who hate us, go quickly to the war-front.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(अच्युतच्युत्) च्युङ् गतौ−क्त+च्युङ्−क्विप्, तुक् च। अनधःपतितानां शत्रूणामधः पातयिता (समदः) सहर्षः (गमिष्ठः) गन्तृ−इष्ठन्। अतिशयेन गतिवान् (मृधः) मृध हिंसायाम्−क्विप्, संग्रामान्−निघ० २।१७। (जेता) जयशीलः (पुरएता) अग्रगामी (अयोध्यः) केनापि योद्धुमशक्यः। अबाध्यः (इन्द्रेण) ऐश्वर्यवता सेनापतिना (गुप्तः) रक्षितः (विदथा) अ० १।१३।४। शेर्लोपः। वेदितव्यानि कर्माणि (निचिक्यत्) कि ज्ञाने जुहो०−शतृ। निश्चयेन जानन् (हृद्द्योतनः) द्युत−दीप्तौ−ल्युट्। द्योतते ज्वलतिकर्मा−निघ० १।१६। हृदयानां तापकः (द्विषताम्) द्वेषं कुर्वताम् (याहि) गच्छ (शीभम्) म० ७। शीघ्रम् ॥
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