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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः छन्दः - जगती सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त
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    उ॒च्चैर्घो॑षो दुन्दु॒भिः स॑त्वना॒यन्वा॑नस्प॒त्यः संभृ॑त उ॒स्रिया॑भिः। वाचं॑ क्षुणुवा॒नो द॒मय॑न्त्स॒पत्ना॑न्त्सिं॒ह इ॑व जे॒ष्यन्न॒भि तं॑स्तनीहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒च्चै:ऽघो॑ष: । दु॒न्दु॒भि: । स॒त्व॒ना॒ऽयन् । वा॒न॒स्प॒त्य: । सम्ऽभृ॑त: । उ॒स्रिया॑भि: । वाच॑म् । क्षु॒णु॒वा॒न: । द॒मय॑न् । स॒ऽपत्ना॑न् । सिं॒ह:ऽइ॑व । जे॒ष्यन् । अ॒भि । तं॒स्त॒नी॒हि॒ ॥२०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उच्चैर्घोषो दुन्दुभिः सत्वनायन्वानस्पत्यः संभृत उस्रियाभिः। वाचं क्षुणुवानो दमयन्त्सपत्नान्त्सिंह इव जेष्यन्नभि तंस्तनीहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उच्चै:ऽघोष: । दुन्दुभि: । सत्वनाऽयन् । वानस्पत्य: । सम्ऽभृत: । उस्रियाभि: । वाचम् । क्षुणुवान: । दमयन् । सऽपत्नान् । सिंह:ऽइव । जेष्यन् । अभि । तंस्तनीहि ॥२०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    संग्राम में जय का उपदेश।

    पदार्थ

    (उच्चैर्घोषः) ऊँचा शब्द करनेवाला, (सत्वनायन्) पराक्रमियों के समान आचरण करनेवाला, (वानस्पत्यः) सेवनीयों के पालकों [सेनापति आदिकों] से प्राप्त हुआ, (उस्रियाभिः) वस्तियों की रक्षक सेनाओं से (संभृतः) यथावत् रक्खा गया, (वाचम्) शब्द (क्षुणुवानः) करता हुआ (सपत्नान्) वैरियों को (दमयन्) दबाता हुआ, (दुन्दुभिः) दुन्दुभि [ढोल वा नगारा] तू (सिंहः इव) सिंह के समान (जेष्यन्) जीत चाहता हुआ (अभि) सब ओर (तंस्तनीहि) गरजता रहे ॥१॥

    भावार्थ

    सेनापति लोग दुन्दुभि आदि मारू बाजे बजा कर शत्रुओं को जीतें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(उच्चैर्घोषः) उच्चध्वनिः (दुन्दुभिः) दुन्दु इति शब्देन भाति, भा−कि। वाद्यविशेषः। बृहड्ढक्का (सत्वनायन्) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु−क्वनिप्। दस्य तः। सत्वा पराक्रमी पुरुषः। कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा० ३।१।११। इति सत्वन्−क्यङ्, शतृ, सत्वन शब्दस्य अकारान्तता छान्दसी। पराक्रमीवाचरन् (वानस्पत्यः) अ० ३।६।६। वनस्पति−ण्य। वनस्पतिभ्यः सेव्यानां पालकेभ्यः सेनापतिभ्य आगतः (संभृतः) सम्यग्धृतः (उस्रियाभिः) अ० ३।८।१। वसति यत्र, वस−रक्, टाप्। उस्रा वसतिः। राष्ट्रावारपाराद्घखौ। पा० ४।२।९३। इति घ। वसति रक्षिकाभिः सेनाभिः (वाचम्) ध्वनिम् (क्षुणुवानः) टुक्षु शब्दे−स्वादिः, शानच्। शब्दायमानः (दमयन्) अभिभवन् (सपत्नान्) शत्रून् (सिंहः इव) (जेष्यन्) जेतुमिच्छन् (अभि) सर्वतः (तंस्तनीहि) स्तन गर्जने यङ्लुकि छान्दसो लोट्। तंस्तनीहि। भृशं गर्ज ॥

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    विषय

    उच्चैर्घोषः दुन्दुभिः

    पदार्थ

    १. (सत्वनायन्) = सैनिकों में बल प्राप्त कराता हुआ (उच्चैः घोषः) = ऊँचे शब्दवाला (दुन्दुभि:) = युद्धवाद्य (वानस्पत्यः) = वनस्पति [काष्ठ] का बना हुआ है, यह (उस्त्रियामिः संभृत:) = चमड़े से मढ़ा हुआ है। २. (वाचं क्षुणुवान:) = शब्द करता हुआ (सपत्नान् दमयन्) = शत्रुओं को दबाता हुआ समीप भविष्य में (सिंहः इव जेष्यन्) = सिंह की भाँति शत्रुओं को विजित करता हुआ (अभितस्तनीहि) = गर्जना कर।

    भावार्थ

    शत्रुओं का आक्रमण होने पर राष्ट्र में युद्धवाद्य बज उठे। यह अपने ऊँचे शब्द से सैनिकों में बल व उत्साह का सञ्चार करे तथा शत्रुओं के दिलों को दहला दे।

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    भाषार्थ

    (वानस्पत्यः) वनस्पति अर्थात् काष्ठ-निर्मित, (उस्रियाभिः) गौ के चर्म तथा आँतों और स्नायुओं द्वारा (संभृतः) परिपोषित, (उच्चै: घोषः) ऊँची आवाजवाला (दुन्दुभिः) ढोल है, (सत्वनायन्१) बली सैन्यदल के साथ युद्ध में जाता हुआ (वाचम्) वाणी या आवाज को (क्षुणुवानः) करता हुआ, (सपत्नान्) शत्रुओं का (दमयन्) दमन करता हुआ, (जेष्यन्) विजय प्राप्त करता हुआ, (सिंहः इव) सिंह के सदृश (तंस्तनीहि) गर्ज (स्तनयित्नुवत्)

    टिप्पणी

    [उस्रा गोनाम (निघं० २।११), उस्रिया: तदवयवाः। सत्वनायन्= सत्व (बल +णीञ्) (प्रापणे)। णिच् + शतृ। अथवा 'सत्वना अयन्'=बल के साथ आता हुआ। क्षुणुवानः-टुक्षु शब्दे (अदादिः)।] [१. युद्धस्थली में ढोल की विशेष प्रकार की आवाज से योद्धाओं में जोश पैदा हो जाता है, यह ही सत्त्व है।]

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    विषय

    दुन्दुभि या युद्धवीर राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    नगारे के दृष्टान्त से राजा को विजय करने का उपदेश करते हैं। जिस प्रकार (वानस्पत्यः) वनस्पति, काठ का बना हुआ (उच्चैर्घोषः) ऊंचे २ आवाज़ वाला (उस्त्रियाभिः संभृतः) चमड़ों से मढ़ा हुआ (दुन्दुभिः) बड़ा नगारा (सत्वना-यन्) बलवान् शूरवीर के समान गर्जता है और शत्रुओं के दिल दहलाता है, उसी प्रकार हे राजन् ! तू (वानस्पत्यः) वन अर्थात् सेवा करने हारा, उपभोग्य प्रजाओं के पालकों में से सेनापति पद पर प्राप्त होकर (उस्त्रियाभिः) वास करने वाली प्रजाओं से कर आदि द्वारा (संभृतः) परिपुष्ट होकर नगारे के समान (ऊच्चैः घोषः) ऊंचे २ विजय की घोषणा करता हुआ, (सत्वनायन्) बलवान् शूर-वीर के समान, (वाचं क्षुणुवानः) अपनी आज्ञाएं देता हुआ, और (स-पत्नान् दमयन्) शत्रुओं को दमन करता हुआ (सिंह इव) शेर के समान (जेष्यन्) विजय चाहता हुआ (अभि तंस्तनी हि) खूब घोर गर्जना कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। वानस्पत्यो दुन्दुभिर्देवता। सपत्न सेनापराजयाय देवसेना विजयाय च दुन्दुभिस्तुतिः। १ जगती, २-१२ त्रिष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Clarion call for War and Victory

    Meaning

    The booming war drum made with wood and headed with skin roars like a warrior. O heroic warrior, proclaiming dire conflict of battle, challenging adversaries, waxing victorious as a lion, keep on thundering on way to victory with hope and ambition.

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    Subject

    Wood-carved War-drum

    Translation

    Carved out of wood and held tight with leather Straps, loudnoised is the war-drum (dundubhi), augmentor of strength; whetting your voice, subduing the rivals, seeking victory, may you roar all around like a lion.

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    Translation

    Let this war-drum formed of wood, muffled with leather, loud in its play roar at the foe-men like a lion whetting its courage and expecting victory.

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    Translation

    May the loud War-drum, playing the part of a hero, bequeathed by the commanders, preserved by the armies, whetting its voice and vanquishing opponents, roar at them like a lion fain to conquer.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(उच्चैर्घोषः) उच्चध्वनिः (दुन्दुभिः) दुन्दु इति शब्देन भाति, भा−कि। वाद्यविशेषः। बृहड्ढक्का (सत्वनायन्) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु−क्वनिप्। दस्य तः। सत्वा पराक्रमी पुरुषः। कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा० ३।१।११। इति सत्वन्−क्यङ्, शतृ, सत्वन शब्दस्य अकारान्तता छान्दसी। पराक्रमीवाचरन् (वानस्पत्यः) अ० ३।६।६। वनस्पति−ण्य। वनस्पतिभ्यः सेव्यानां पालकेभ्यः सेनापतिभ्य आगतः (संभृतः) सम्यग्धृतः (उस्रियाभिः) अ० ३।८।१। वसति यत्र, वस−रक्, टाप्। उस्रा वसतिः। राष्ट्रावारपाराद्घखौ। पा० ४।२।९३। इति घ। वसति रक्षिकाभिः सेनाभिः (वाचम्) ध्वनिम् (क्षुणुवानः) टुक्षु शब्दे−स्वादिः, शानच्। शब्दायमानः (दमयन्) अभिभवन् (सपत्नान्) शत्रून् (सिंहः इव) (जेष्यन्) जेतुमिच्छन् (अभि) सर्वतः (तंस्तनीहि) स्तन गर्जने यङ्लुकि छान्दसो लोट्। तंस्तनीहि। भृशं गर्ज ॥

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