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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 6/ मन्त्र 25
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    तं प्र॒जाप॑तिश्चपरमे॒ष्ठी च॑ पि॒ता च॑ पिताम॒हश्चा॑नु॒व्यचलन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । प्र॒जाऽप॑ति: । च॒ । प॒र॒मे॒ऽस्थी । च॒ । पि॒ता । च॒ । पि॒ता॒म॒ह: । च॒ । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलन् ॥६.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं प्रजापतिश्चपरमेष्ठी च पिता च पितामहश्चानुव्यचलन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । प्रजाऽपति: । च । परमेऽस्थी । च । पिता । च । पितामह: । च । अनुऽव्यचलन् ॥६.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 25

    पदार्थ -
    (प्रजापतिः) प्रजापालक [राजा] (च च) और (परमेष्ठी) परमेष्ठी [बड़े पदवाला आचार्य वा सन्यासी] (च) और (पिता) बाप (च) और (पितामहः) दादा (तम्) उस [व्रात्य परमात्मा] के (अनुव्यचलन्)पीछे विचरे ॥२५॥

    भावार्थ - जो विद्वान् पुरुषगहरे विचार से यह देखते हैं कि संसार में सब लोग परब्रह्म परमात्मा की आज्ञामानने से बड़े हुए हैं, वे ही ईश्वर की आज्ञा में रहकर उन्नति करते और आनन्दभोगते हैं ॥२४-२६॥

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