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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 6/ मन्त्र 26
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - विराट् बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    प्र॒जाप॑तेश्च॒वै स प॑रमे॒ष्ठिन॑श्च पि॒तुश्च॑ पिताम॒हस्य॑ च प्रि॒यं धाम॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒जाऽप॑ते: । च॒ । वै । स: । प॒र॒मे॒ऽस्थीन॑:। च॒ । पि॒तु: । च॒ । पि॒ता॒म॒हस्य॑ । च॒ । प्रि॒यम् । धाम॑ । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥६.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रजापतेश्चवै स परमेष्ठिनश्च पितुश्च पितामहस्य च प्रियं धाम भवति य एवं वेद॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रजाऽपते: । च । वै । स: । परमेऽस्थीन:। च । पितु: । च । पितामहस्य । च । प्रियम् । धाम । भवति । य: । एवम् । वेद ॥६.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 26

    पदार्थ -
    (सः) वह [विद्वान्]पुरुष (वै) निश्चय करके (प्रजापतेः) प्रजापालक [राजा] का (च च) और (परमेष्ठिनः)परमेष्ठी [बड़ी स्थितिवाले आचार्य वा संन्यासी] का (च) और (पितुः) बाप का (च)और (पितामहस्य) दादा का (प्रियम्) प्रिय (धाम) धाम [घर] (भवति) होता है, (यः) जो [विद्वान्] (एवम्) ऐसे [व्रात्य परमात्मा] को (वेद) जानता है ॥२६॥

    भावार्थ - जो विद्वान् पुरुषगहरे विचार से यह देखते हैं कि संसार में सब लोग परब्रह्म परमात्मा की आज्ञामानने से बड़े हुए हैं, वे ही ईश्वर की आज्ञा में रहकर उन्नति करते और आनन्दभोगते हैं ॥२४-२६॥

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