अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 68/ मन्त्र 1
सु॑रूपकृ॒त्नुमू॒तये॑ सु॒दुघा॑मिव गो॒दुहे॑। जु॑हू॒मसि॒ द्यवि॑द्यवि ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒रू॒प॒ऽकृ॒त्नुम् । ऊ॒तये॑ । सु॒दुघाम्ऽइव । गो॒ऽदुहे॑ ॥ जु॒हू॒मसि॑ । द्यवि॑ऽद्यवि ॥६८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव गोदुहे। जुहूमसि द्यविद्यवि ॥
स्वर रहित पद पाठसुरूपऽकृत्नुम् । ऊतये । सुदुघाम्ऽइव । गोऽदुहे ॥ जुहूमसि । द्यविऽद्यवि ॥६८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 68; मन्त्र » 1
विषय - मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ -
(सुरूपकृत्नुम्) सुन्दर स्वभावों के बनानेवाले [राजा] को (ऊतये) रक्षा के लिये (द्यविद्यवि) दिन-दिन (जुहूमसि) हम बुलाते हैं, (इव) जैसे (सुदुघाम्) बड़ी दुधेल गौ को (गोदुहे) गौ दोहनेवाले के लिये ॥१॥
भावार्थ - जैसे दुधेल गौ को दूध दोहने के लिये प्रीति से बुलाते हैं, वैसे ही प्रजागण विद्या आदि शुभ गुणों के बढ़ानेवाले राजा का आश्रय लेकर उन्नति करें ॥१॥
टिप्पणी -
मन्त्र १-३ आचुके हैं-अ० २०।७।१-३ ॥ १-३−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।७।१-३ ॥