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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 68

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 68/ मन्त्र 6
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-६८

    उ॒त नः॑ सु॒भगाँ॑ अ॒रिर्वो॒चेयु॑र्दस्म कृ॒ष्टयः॑। स्यामेदिन्द्र॑स्य॒ शर्म॑णि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । न॒: । सु॒ऽभगा॑न् । अ॒रि: । वो॒चेयु॑: । द॒स्म॒ । कृ॒ष्टय॑: ॥ स्याम॑: । इत् । इन्द्र॑स्य । शर्म॑णि ॥६८.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत नः सुभगाँ अरिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टयः। स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । न: । सुऽभगान् । अरि: । वोचेयु: । दस्म । कृष्टय: ॥ स्याम: । इत् । इन्द्रस्य । शर्मणि ॥६८.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 68; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (दस्म) हे दर्शनीय ! [परमात्मा] (अरिः=अरयः) प्रेरण करनेवाले [वा वैरी] (कृष्टयः) मनुष्य (उत) भी (नः) हमको (सुभगान्) बड़े ऐश्वर्यवाला (वोचेयुः) कहें, [तो भी] (इन्द्रस्य) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] की (इत्) ही (शर्मणि) शरण में (स्याम) हम रहें ॥६॥

    भावार्थ - चाहे मनुष्य ऐसे बड़े हो जावें कि बड़े-बड़े लोग और वैरी लोग भी उन्हें बड़ा जानें, तो भी वे अभिमान छोड़कर परमेश्वर की शरण में रहकर उन्नति करें ॥६॥

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