अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 32
सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
यस्य॒ भूमिः॑ प्र॒मान्तरि॑क्षमु॒तोदर॑म्। दिवं॒ यश्च॒क्रे मू॒र्धानं॒ तस्मै॑ ज्ये॒ष्ठाय॒ ब्रह्म॑णे॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । भूमि॑: । प्र॒ऽमा । अ॒न्तरि॑क्षम् । उ॒त । उ॒दर॑म् । दिव॑म् । य: । च॒क्रे । मू॒र्धान॑म् । तस्मै॑ । ज्ये॒ष्ठाय॑ । ब्रह्म॑णे । नम॑: ॥७.३२॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्। दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । भूमि: । प्रऽमा । अन्तरिक्षम् । उत । उदरम् । दिवम् । य: । चक्रे । मूर्धानम् । तस्मै । ज्येष्ठाय । ब्रह्मणे । नम: ॥७.३२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 32
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( यस्य ) = जिस परमेश्वर के ( भूमि: ) = पृथिवी आदि पदार्थ ( प्रमा ) = यथार्थ ज्ञान की सिद्धि होने में साधन हैं तथा जिसके भूमि पाद के समान है। ( उत ) = और ( अन्तरिक्षम् ) = जो सूर्य और पृथिवी के बीच का मध्य आकाश है ( उदरम् ) = उदर स्थानीय है । ( दिवम् ) = द्युलोक को ( य: चक्रे मूर्धानम् ) = जिस परमात्मा ने मस्तक स्थानीय बनाया है । ( तस्मै ) = उस ( ज्येष्ठाय ) = बड़े ( ब्रह्मणे नमः ) = परमात्मा को हमारा नमस्कार हो ।
भावार्थ -
भावार्थ = हमारे पूज्य गौतमादिक ऋषियों ने अनुमान लिखा है - 'क्षित्यङ्कुरादिकं कर्त्तृजन्यं, कार्यत्वात्, घटवत् ।' पृथिवी और पृथिवी के बीच वृक्षादिक जितने उत्पत्तिमान् पदार्थ हैं, ये सब किसी कर्ता से उत्पन्न हुए हैं, कार्य होने से, घट की तरह। जैसे घट को कुम्हार बनाता है वैसे सारे संसार का निमित्त कारण परमात्मा है। उसी भगवान् का बनाया हुआ अन्तरिक्ष लोक उदर स्थानीय है । उसी परमात्मा ने मस्तक रूप द्युलोक को बनाया है। ऐसे महान् ईश्वर को हमारा नमस्कार है ।
इस भाष्य को एडिट करें