अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 36
सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
यः श्रमा॒त्तप॑सो जा॒तो लो॒कान्त्सर्वा॑न्त्समान॒शे। सोमं॒ यश्च॒क्रे केव॑लं॒ तस्मै॑ ज्ये॒ष्ठाय॒ ब्रह्म॑णे॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । श्रमा॑त् । तप॑स: । जा॒त: । लो॒कान् । सर्वा॑न् । स॒म्ऽआ॒न॒शे । सोम॑म् । य: । च॒क्रे । केव॑लम् । तस्मै॑ । ज्ये॒ष्ठाय॑ । ब्रह्म॑णे । नम॑: ॥७.३६॥
स्वर रहित मन्त्र
यः श्रमात्तपसो जातो लोकान्त्सर्वान्त्समानशे। सोमं यश्चक्रे केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । श्रमात् । तपस: । जात: । लोकान् । सर्वान् । सम्ऽआनशे । सोमम् । य: । चक्रे । केवलम् । तस्मै । ज्येष्ठाय । ब्रह्मणे । नम: ॥७.३६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 36
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( यः ) = जो परमेश्वर ( श्रमात् ) = अपने श्रम अर्थात् प्रयत्न से और ( तपसः ) = अपने ज्ञान वा सामर्थ्य से ( जातः ) = प्रसिद्ध होकर ( सर्वान् लोकान् ) = सब लोकों में ( समानशे ) = सम्यक् व्याप रहा है। ( यः ) = जिसने ( सोमम् ) = ऐश्वर्य को ( केवलम् ) = अपना ही ( चक्रे ) = बनाया ( तस्मै ज्येष्ठाय ) = उस सबसे श्रेष्ठ वा बड़े ( ब्रह्मणे नम: ) = परमात्मा को हमारा नमस्कार है ।
भावार्थ -
भावार्थ = परमात्मा परम पुरुषार्थी, पराक्रमी और परमैश्वर्यवान् हुआ सब जगत् का अधिष्ठाता है। कई लोग जो परमात्मा को निष्क्रिय अर्थात् कुछ कर्त्ताधर्ता नहीं है, ऐसा मानते हैं। उनको इन मन्त्रों की तरफ ध्यान देना चाहिए, जो स्पष्ट कह रहे हैं कि परमात्मा बड़ा पुरुषार्थी, पराक्रमी, बड़ा बलवान् और परमैश्वर्यवान् होकर सब जगत् को बनाता है। परमात्मा अपने बल से ही अनन्त ब्रह्माण्डों को बनाते, पालते, पोषते और प्रलय काल में प्रलय भी कर देते हैं, ऐसे समर्थ प्रभु को बारम्बार हमारा प्रणाम है ।
इस भाष्य को एडिट करें