अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 32
ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
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यस्य॒ भूमिः॑ प्र॒मान्तरि॑क्षमु॒तोदर॑म्। दिवं॒ यश्च॒क्रे मू॒र्धानं॒ तस्मै॑ ज्ये॒ष्ठाय॒ ब्रह्म॑णे॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । भूमि॑: । प्र॒ऽमा । अ॒न्तरि॑क्षम् । उ॒त । उ॒दर॑म् । दिव॑म् । य: । च॒क्रे । मू॒र्धान॑म् । तस्मै॑ । ज्ये॒ष्ठाय॑ । ब्रह्म॑णे । नम॑: ॥७.३२॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम्। दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । भूमि: । प्रऽमा । अन्तरिक्षम् । उत । उदरम् । दिवम् । य: । चक्रे । मूर्धानम् । तस्मै । ज्येष्ठाय । ब्रह्मणे । नम: ॥७.३२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (6)
विषय
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थ
(भूमिः) भूमि (यस्य) जिस [परमेश्वर] के (प्रमा) पादमूल [के समान] (उत) और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष [पृथिवी और सूर्य के बीच का आकाश] (उदरम्) उदर [समान] है। (दिवम्) सूर्य को (यः) जिसने (मूर्धानम्) मस्तक [समान] (चक्रे) रचा, (तस्मै) उस (ज्येष्ठाय) ज्येष्ठ [सब से बड़े वा सब से श्रेष्ठ] (ब्रह्मणे) ब्रह्म [परमात्मा] को (नमः) नमस्कार है ॥३२॥
भावार्थ
जैसे जीवात्मा शरीर के सब अङ्गों में व्यापक है, वैसे ही परमात्मा जगत् के सब लोकों में निरन्तर व्यापक है, उसको हम सदा मस्तक झुकाते हैं ॥३२॥ मन्त्र ३२-३४ महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृ० ४ में व्याख्यात हैं ॥
टिप्पणी
३२−(यस्य) परमात्मनः (भूमिः) (प्रमा) पादमूलं यथा (अन्तरिक्षम्) (उत) अपि (उदरम्) उदरतुल्यम् (दिवम्) प्रकाशमयं सूर्यम् (यः) (चक्रे) रचितवान् (मूर्धानम्) शिरोवत् (तस्मै) (ज्येष्ठाय) म० १७। वृद्धतमाय। सर्वोत्कृष्टाय (ब्रह्मणे) बृंहेर्नोऽच्च। उ० ४।१४६। बृहि वृद्धौ−मनिन्, नस्य अकारः रत्वम्। वेदस्तत्त्वं तपो ब्रह्म ब्रह्मा विप्रः प्रजापतिः-इत्यमरः २३।११४। बृंहति वर्धत इति ब्रह्म ब्रह्मा वा। सर्वमहते परमेश्वराय (नमः) सत्कारः ॥
विषय
ईश्वरविषयः
व्याख्यान
( यस्य भूमिः प्रमा ) जिस परमेश्वर के होने और ज्ञान में भूमि जो पृथिवी आदि पदार्थ हैं सो प्रमा अर्थात् यथार्थज्ञान की सिद्धि होने का दृष्टान्त है तथा जिसने अपनी सृष्टि में पृथिवी को पादस्थानी रचा है, ( अन्तरिक्षमुतोदरम् ) अन्तरिक्ष जो पृथिवी और सूर्य के बीच में आकाश है सो जिसने उदरस्थानी किया है, ( दिवं यश्चक्रे मूर्धानम् ) और जिसने अपनी सृष्टि में दिव अर्थात् प्रकाश करनेवाले पदार्थों को सबके ऊपर मस्तकस्थानी किया है, अर्थात् जो पृथिवी से लेके सूर्यलोकपर्यन्त सब जगत् को रच के उसमें व्यापक होके, जगत् के सब अवयवों में पूर्ण होके सब को धारण कर रहा है, ( तस्मै ) उस परब्रह्म को हमारा अत्यन्त नमस्कार हो।
पदार्थ
शब्दार्थ = ( यस्य ) = जिस परमेश्वर के ( भूमि: ) = पृथिवी आदि पदार्थ ( प्रमा ) = यथार्थ ज्ञान की सिद्धि होने में साधन हैं तथा जिसके भूमि पाद के समान है। ( उत ) = और ( अन्तरिक्षम् ) = जो सूर्य और पृथिवी के बीच का मध्य आकाश है ( उदरम् ) = उदर स्थानीय है । ( दिवम् ) = द्युलोक को ( य: चक्रे मूर्धानम् ) = जिस परमात्मा ने मस्तक स्थानीय बनाया है । ( तस्मै ) = उस ( ज्येष्ठाय ) = बड़े ( ब्रह्मणे नमः ) = परमात्मा को हमारा नमस्कार हो ।
भावार्थ
भावार्थ = हमारे पूज्य गौतमादिक ऋषियों ने अनुमान लिखा है - 'क्षित्यङ्कुरादिकं कर्त्तृजन्यं, कार्यत्वात्, घटवत् ।' पृथिवी और पृथिवी के बीच वृक्षादिक जितने उत्पत्तिमान् पदार्थ हैं, ये सब किसी कर्ता से उत्पन्न हुए हैं, कार्य होने से, घट की तरह। जैसे घट को कुम्हार बनाता है वैसे सारे संसार का निमित्त कारण परमात्मा है। उसी भगवान् का बनाया हुआ अन्तरिक्ष लोक उदर स्थानीय है । उसी परमात्मा ने मस्तक रूप द्युलोक को बनाया है। ऐसे महान् ईश्वर को हमारा नमस्कार है ।
विषय
प्रभु का विराट् देह
पदार्थ
१. (यस्य) = जिसका (भूमिः) = यह पृथिवी (प्रमा) = पादमूल के समान है-पाँव का प्रमाण है, (उत) = और (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष (उदरम्) = उदर है, (य: दिवं मूर्धानं चक्रे) = जिसने झुलोक को अपना मूर्धा [मस्तक] बनाया है। (यस्य) = जिसके (सूर्य:) = सूर्य (च) = और (पुनर्णवः चन्द्रमा:) = फिर फिर नया होनेवाला यह चन्द्र (चक्षुः) = आँख है। (य: अग्निं आस्यं चक्रे) = जिसने अग्नि को अपना मुख बनाया है। (यस्य वात: प्राणापानौ) = जिसके बायु ही प्राणापान हैं। (अङ्गिरसः चक्षुः अभवन्) = [अङ्गिरसं मन्यन्ते अङ्गानां यद्रस:-छां० १.२.१०] अङ्गरस ही उसकी आँख हुए। (दिश: य: प्रज्ञानी: चक्रे) = दिशाओं को जिसने प्रकृष्ट ज्ञान का साधन [श्रोत्र] बनाया। २. (तस्मै) = उस (ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः) = ज्येष्ठ ब्रह्म के लिए हम नतमस्तक होते हैं। प्रभु के लिए सूर्योदय से पूर्व सूर्योदय से ही क्या, उषाकाल से भी पूर्व उठकर प्रणाम करना चाहिए। यह प्रभु-नमन ही सब गुणों को धारण के योग्य बनाएगा।
भावार्थ
यह ब्रह्माण्ड उस सर्वाधार प्रभु का देह है। इस ब्रह्माण्ड को वे ही धारण कर रहे हैं। इसके अङ्गों में उस प्रभु की महिमा को देखने का प्रयत्न करना चाहिए। इस महिमा को देखता हुआ साधक उस प्रभु के प्रति नतमस्तक होता है।
भाषार्थ
(भूमिः) भूमि (यस्प) जिस का (प्रमा) यथार्थज्ञान का साधन पादस्थानी है [यजु० ३१।१३], (उत) और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (उदरम्) उदरस्थानी है। (यः) जिस ने (मूर्धानम्) मूर्धा को (दिवम्) द्युलोक (चक्रे) किया है, (तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे) उस सर्वोत्कृष्ट ब्रह्म के लिये (नमः) नमस्कार हो।
मन्त्रार्थ
(यस्य प्रमा भूमिः) जिस सर्वाधार परमात्मा की पादस्थानीय पृथिवी है (उत-उदरम्-अन्तरिक्षम् ) और अन्तरिक्ष उदरपेट के समान है- (यः-मूर्धानं दिवं चक्रे) जिस परमात्मा ने द्यौ:-लोक को मूर्धा किया है बनाया है (तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः) उस ज्येष्ठ ब्रह्म के लिये नम्री भाव है ॥३२॥
टिप्पणी
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष
ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
इंग्लिश (4)
Subject
Skambha Sukta
Meaning
Skambha, whose one measure of foot-step is the earth, the middle space, his belly, and who has created the heaven of light as his forehead, to that Supreme Brahma, homage of worship and submission!
Translation
The earth is whose base (foot or prama), the midspace whose belly, and who has made the sky his head, to him, the Eldest Lord supreme, let our homage be.
Translation
Our homage to that eternal Supreme Being whose base is this earth and bally this air and who made this sky for His head.
Translation
Be reverence paid to Him, that Highest God, Whose base is Earth, His belly atmosphere, Who made the sky to be His head.
Footnote
(32, 33) The language is metaphorical.
संस्कृत (2)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३२−(यस्य) परमात्मनः (भूमिः) (प्रमा) पादमूलं यथा (अन्तरिक्षम्) (उत) अपि (उदरम्) उदरतुल्यम् (दिवम्) प्रकाशमयं सूर्यम् (यः) (चक्रे) रचितवान् (मूर्धानम्) शिरोवत् (तस्मै) (ज्येष्ठाय) म० १७। वृद्धतमाय। सर्वोत्कृष्टाय (ब्रह्मणे) बृंहेर्नोऽच्च। उ० ४।१४६। बृहि वृद्धौ−मनिन्, नस्य अकारः रत्वम्। वेदस्तत्त्वं तपो ब्रह्म ब्रह्मा विप्रः प्रजापतिः-इत्यमरः २३।११४। बृंहति वर्धत इति ब्रह्म ब्रह्मा वा। सर्वमहते परमेश्वराय (नमः) सत्कारः ॥
विषयः
ईश्वरविषयः
व्याख्यानम्
( यस्य भूमिः प्रमा ) यस्य भूमिः प्रमा यथार्थविज्ञानसाधनं पादाविवास्ति, ( अन्तरिक्षम् उत उदरम् ) अन्तरिक्षं यस्योदरतुल्यमस्ति, [दिवं यश्चक्रे मूर्द्धानम्] यश्च सर्वस्मादूर्ध्वं सूर्यरश्मिप्रकाशमयमाकाशं दिवं मूर्धानं शिरोवच्चक्रे कृतवानस्ति, तस्मै ( ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ) ।
मराठी (1)
व्याख्यान
भाषार्थ : (यस्य भूमि: प्रमा.) ज्या परमेश्वराचे अस्तित्व असल्यामुळे व त्याच्या ज्ञानात भूमी इत्यादी पदार्थ असल्यामुळे प्रमा. अर्थात यथार्थ ज्ञानाची सिद्धी होते, हा दृष्टान्त आहे, ज्याने या सृष्टीत पृथ्वीला पादस्थानी ठेवलेले आहे (अन्तरिक्षमुतोदस्म्), पृथ्वी व सूर्याच्या मध्ये अंतरिक्ष-आकाशाला उदरस्थानी ठेवलेले आहे (दिवं यश्चक्रे मूधनिम्) व दिव अर्थात प्रकाश देणाऱ्या सर्व पदार्थांना वर मस्तकस्थानी ठेवलेले आहे व जो पृथ्वीपासून सूर्यलोकापर्यंत सर्व जग निर्माण करून त्यात व्यापक असून, जगाच्या सर्व अवयवांत पूर्ण भरलेला आहे व सर्वांना धारण करत आहे (तस्मै) त्या परब्रह्माला आम्ही नमस्कार करतो. ॥२॥
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