अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 33
सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - पराविराडनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
यस्य॒ सूर्य॒श्चक्षु॑श्च॒न्द्रमा॑श्च॒ पुन॑र्णवः। अ॒ग्निं यश्च॒क्र आ॒स्यं तस्मै॑ ज्ये॒ष्ठाय॒ ब्रह्म॑णे॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । सूर्य॑: । चक्षु॑: । च॒न्द्रमा॑: । च॒ । पुन॑:ऽनव: । अ॒ग्निम् । य: । च॒क्रे । आ॒स्य᳡म् । तस्मै॑ । ज्ये॒ष्ठाय॑ । ब्रह्म॑णे । नम॑: ॥७.३३॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः। अग्निं यश्चक्र आस्यं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । सूर्य: । चक्षु: । चन्द्रमा: । च । पुन:ऽनव: । अग्निम् । य: । चक्रे । आस्यम् । तस्मै । ज्येष्ठाय । ब्रह्मणे । नम: ॥७.३३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 33
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( पुनर्णव: ) = सृष्टि के आदि में बारम्बार नवीन होनेवाला सूर्य और चन्द्रमा ( यस्य ) = जिस परमात्मा के ( चक्षुः ) = नेत्र समान हैं ( य: ) = जिस भगवान् ने ( अग्निम् ) = अग्नि को ( आस्यम् ) = मुख समान ( चक्रे ) = रचा है। ( तस्मै ज्येष्ठाय ) = उस सबसे बड़े वा सबसे श्रेष्ठ ( ब्रह्मणे नम: ) = परमात्मा को हमारा नमस्कार है।
भावार्थ -
भावार्थ = यहाँ सूर्य और चांद को जो वेद भगवान् ने परमात्मा की आँख बताया है, इसका यह अर्थ कभी नहीं कि वह जीव के तुल्य चर्ममय आँखोंवाला है, किन्तु जीव की आँखें जैसे जीव के अधीन हैं ऐसे ही परमात्मा के सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, दिशा उपदिशा आदि अधीन हैं इस कहने से यह तात्पर्य है। यदि कोई आग्रह से परमेश्वर को साकार मानता हुआ सूर्य चाँद उसकी आँखें बनावे तो अमावस की रात्री में न सूर्य है न चाँद है, इसलिए उपर्युक्त कथन ही सच्चा है।
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