अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 33
ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - पराविराडनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
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यस्य॒ सूर्य॒श्चक्षु॑श्च॒न्द्रमा॑श्च॒ पुन॑र्णवः। अ॒ग्निं यश्च॒क्र आ॒स्यं तस्मै॑ ज्ये॒ष्ठाय॒ ब्रह्म॑णे॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । सूर्य॑: । चक्षु॑: । च॒न्द्रमा॑: । च॒ । पुन॑:ऽनव: । अ॒ग्निम् । य: । च॒क्रे । आ॒स्य᳡म् । तस्मै॑ । ज्ये॒ष्ठाय॑ । ब्रह्म॑णे । नम॑: ॥७.३३॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः। अग्निं यश्चक्र आस्यं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । सूर्य: । चक्षु: । चन्द्रमा: । च । पुन:ऽनव: । अग्निम् । य: । चक्रे । आस्यम् । तस्मै । ज्येष्ठाय । ब्रह्मणे । नम: ॥७.३३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (6)
विषय
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थ
(पुनर्णवः) [सृष्टि के आदि में] बारंबार नवीन होनेवाला (सूर्यः) सूर्य (च) और (चन्द्रमाः) चन्द्रमा (यस्य) जिसके (चक्षुः) नेत्र [समान] हैं। (यः) जिसने (अग्निम्) अग्नि को (आस्यम्) मुख [समान] (चक्रे) रचा है, (तस्मै) उस (ज्येष्ठाय) ज्येष्ठ [सब से बड़े वा सब से श्रेष्ठ] (ब्रह्मणे) ब्रह्मा [परमात्मा] को (नमः) नमस्कार है ॥३३॥
भावार्थ
परमात्मा सूर्य चन्द्र आदि पदार्थों को सृष्टि के आदि में रचकर सब में व्यापक है ॥३३॥ ऋग्वेद−म० १०। सू० १९०। मन्त्र ३ में वर्णन है−(सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्) सूर्य और चन्द्रमा को धाता ने पहिले के समान रचा ॥
टिप्पणी
३३−(यस्य) (सूर्यः) (चक्षुः) नेत्रतुल्यः (चन्द्रमाः) (च) (पुनर्णवः) पुनः पुनः सर्गादौ नवीनः सृष्टः (अग्निम्) (यः) (चक्रे) कृतवान् (आस्यम्) मुखतुल्यम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
ईश्वरविषयः
व्याख्यान
( यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः ) और जिसने नेत्रस्थानी सूर्य और चन्द्रमा को किया है, जो कल्प-कल्प के आदि में सूर्य और चन्द्रमादि पदार्थों को वारंवार नये-नये रचता है, ( अग्निं यश्चक्र आस्यम् ) और जिसने मुखस्थानी अग्नि को उत्पन्न किया है, ( तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ) उसी ब्रह्म को हम लोगों का नमस्कार हो।
पदार्थ
शब्दार्थ = ( पुनर्णव: ) = सृष्टि के आदि में बारम्बार नवीन होनेवाला सूर्य और चन्द्रमा ( यस्य ) = जिस परमात्मा के ( चक्षुः ) = नेत्र समान हैं ( य: ) = जिस भगवान् ने ( अग्निम् ) = अग्नि को ( आस्यम् ) = मुख समान ( चक्रे ) = रचा है। ( तस्मै ज्येष्ठाय ) = उस सबसे बड़े वा सबसे श्रेष्ठ ( ब्रह्मणे नम: ) = परमात्मा को हमारा नमस्कार है।
भावार्थ
भावार्थ = यहाँ सूर्य और चांद को जो वेद भगवान् ने परमात्मा की आँख बताया है, इसका यह अर्थ कभी नहीं कि वह जीव के तुल्य चर्ममय आँखोंवाला है, किन्तु जीव की आँखें जैसे जीव के अधीन हैं ऐसे ही परमात्मा के सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, दिशा उपदिशा आदि अधीन हैं इस कहने से यह तात्पर्य है। यदि कोई आग्रह से परमेश्वर को साकार मानता हुआ सूर्य चाँद उसकी आँखें बनावे तो अमावस की रात्री में न सूर्य है न चाँद है, इसलिए उपर्युक्त कथन ही सच्चा है।
विषय
प्रभु का विराट् देह
पदार्थ
१. (यस्य) = जिसका (भूमिः) = यह पृथिवी (प्रमा) = पादमूल के समान है-पाँव का प्रमाण है, (उत) = और (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष (उदरम्) = उदर है, (य: दिवं मूर्धानं चक्रे) = जिसने झुलोक को अपना मूर्धा [मस्तक] बनाया है। (यस्य) = जिसके (सूर्य:) = सूर्य (च) = और (पुनर्णवः चन्द्रमा:) = फिर फिर नया होनेवाला यह चन्द्र (चक्षुः) = आँख है। (य: अग्निं आस्यं चक्रे) = जिसने अग्नि को अपना मुख बनाया है। (यस्य वात: प्राणापानौ) = जिसके बायु ही प्राणापान हैं। (अङ्गिरसः चक्षुः अभवन्) = [अङ्गिरसं मन्यन्ते अङ्गानां यद्रस:-छां० १.२.१०] अङ्गरस ही उसकी आँख हुए। (दिश: य: प्रज्ञानी: चक्रे) = दिशाओं को जिसने प्रकृष्ट ज्ञान का साधन [श्रोत्र] बनाया। २. (तस्मै) = उस (ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः) = ज्येष्ठ ब्रह्म के लिए हम नतमस्तक होते हैं। प्रभु के लिए सूर्योदय से पूर्व सूर्योदय से ही क्या, उषाकाल से भी पूर्व उठकर प्रणाम करना चाहिए। यह प्रभु-नमन ही सब गुणों को धारण के योग्य बनाएगा।
भावार्थ
यह ब्रह्माण्ड उस सर्वाधार प्रभु का देह है। इस ब्रह्माण्ड को वे ही धारण कर रहे हैं। इसके अङ्गों में उस प्रभु की महिमा को देखने का प्रयत्न करना चाहिए। इस महिमा को देखता हुआ साधक उस प्रभु के प्रति नतमस्तक होता है।
भाषार्थ
(सूर्यः) सूर्य (च) और (पुनर्णवः) [प्रतिमास] बार-बार नया होने वाला (चन्द्रमाः) चन्द्रमा (यस्य) जिस की (चक्षुः) आंखें हैं। (अग्निम्) अग्नि को (यः) जिस ने (आस्यम्) मुखस्थानी (चक्रे) किया है, रचा है (तस्मै) उस (ज्येष्ठाय) सर्वज्येष्ठ या सर्वोत्कृष्ट (ब्रह्मणे) ब्रह्म के लिये (नमः) नमस्कार हो।
टिप्पणी
[अग्निम्, आस्यम् = अग्नि पदार्थ को सूक्ष्मरूप में कर देती है। मुख भी भोज्य पदार्थ को चर्वित कर के उसे सूक्ष्मरूप कर देता है।]
मन्त्रार्थ
(यस्य सूर्य:-पुनर्णयः-चन्द्रमाः च चक्षुः ) जिस परमात्मा का सूर्य और पुनः पुनः नव रूप में होने वाला चन्द्रमा नेत्र आंख हैं (यः अग्निम् आस्यं चक्रे) जो अग्नि को अपना मुख करता है (तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः) पूर्ववत् ॥३३॥
टिप्पणी
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष
ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
इंग्लिश (4)
Subject
Skambha Sukta
Meaning
Whose eye is the sun and the moon ever new, who has created Agni as his mouth and speech, to that Supreme Brahma, homage of worship and submission!
Translation
Whose- eye is Sun and (also) the moon, that becomes new again; who has made the fire his mouth, to him the Eldest Lord supreme let our homage be.
Translation
Our homage to that eternal Supreme Being: whose eye is the Sun and the moon which becomes new everyday by change of phase, and who made this fire for His mouth.
Translation
Homage to Him, that Highest God, Whose eye is the Sun and the Moon who groweth young and new again. Him Who made fire for His mouth.
संस्कृत (2)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३३−(यस्य) (सूर्यः) (चक्षुः) नेत्रतुल्यः (चन्द्रमाः) (च) (पुनर्णवः) पुनः पुनः सर्गादौ नवीनः सृष्टः (अग्निम्) (यः) (चक्रे) कृतवान् (आस्यम्) मुखतुल्यम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषयः
ईश्वरविषयः
व्याख्यानम्
( यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः ) यस्य सूर्यश्चन्द्रमाश्च पुनः पुनः सर्गादौ नवीने चक्षुषी इव भवतः, [अग्निं यश्चक्र आस्यम्] योऽग्निमास्यं मुखवच्चक्रे कृतवानस्ति, तस्मै [ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः]।
मराठी (1)
व्याख्यान
भाषार्थ : (यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्र.) ज्याने नेत्रस्थानी सूर्य व चंद्र उत्पन्न केलेले आहेत, जो प्रत्येक कल्पात सूर्य-चंद्र इत्यादी पदार्थांना वारंवार निर्माण करतो (अग्निं यश्चक्र आस्यम्) ज्याने मुखस्थानी अग्नी उत्पन्न केलेला आहे. (तस्मै.) त्या ब्रह्माला आम्ही नमस्कार करतो. ॥३॥
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