Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 36
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
    0

    यः श्रमा॒त्तप॑सो जा॒तो लो॒कान्त्सर्वा॑न्त्समान॒शे। सोमं॒ यश्च॒क्रे केव॑लं॒ तस्मै॑ ज्ये॒ष्ठाय॒ ब्रह्म॑णे॒ नमः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । श्रमा॑त् । तप॑स: । जा॒त: । लो॒कान् । सर्वा॑न् । स॒म्ऽआ॒न॒शे । सोम॑म् । य: । च॒क्रे । केव॑लम् । तस्मै॑ । ज्ये॒ष्ठाय॑ । ब्रह्म॑णे । नम॑: ॥७.३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः श्रमात्तपसो जातो लोकान्त्सर्वान्त्समानशे। सोमं यश्चक्रे केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । श्रमात् । तपस: । जात: । लोकान् । सर्वान् । सम्ऽआनशे । सोमम् । य: । चक्रे । केवलम् । तस्मै । ज्येष्ठाय । ब्रह्मणे । नम: ॥७.३६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 36
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो [परमेश्वर] (श्रमात्) [अपने] श्रम [प्रयत्न] से और (तपसः) तप [सामर्थ्य] से (जातः) प्रसिद्ध होकर (सर्वान् लोकान्) सब लोकों में (समानशे) पूरा-पूरा व्यापा। (यः) जिसने (सोमम्) ऐश्वर्य को (केवलम्) केवल [अपना ही] (चक्रे) बनाया, (तस्मै) उस (ज्येष्ठाय) ज्येष्ठ [सब से बड़े वा सब से श्रेष्ठ] (ब्रह्मणे) ब्रह्मा [परमात्मा] को (नमः) नमस्कार है ॥३६॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा परम पुरुषार्थी, परम पराक्रमी और परम ऐश्वर्यवान् होकर सब जगत् का अधिष्ठाता है, उस को हम सबका नमस्कार है ॥३६॥

    टिप्पणी

    ३६−(यः) परमेश्वरः (श्रमात्) परिश्रमात्। प्रयत्नात् (तपसः) सामर्थ्यात् (जातः) प्रादुर्भूतः सन् (लोकान्) (सर्वान्) (समानशे) सम्यग् व्याप (सोमम्) ऐश्वर्यम् (यः) (चक्रे) रचितवान् (केवलम्) सेवनीयम्। आत्मीयम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    शब्दार्थ = ( यः ) = जो परमेश्वर  ( श्रमात् ) = अपने श्रम अर्थात् प्रयत्न से और ( तपसः ) = अपने ज्ञान वा सामर्थ्य से  ( जातः ) = प्रसिद्ध होकर  ( सर्वान् लोकान् ) = सब लोकों में  ( समानशे ) = सम्यक् व्याप रहा है।  ( यः  ) = जिसने  ( सोमम् ) = ऐश्वर्य को  ( केवलम् ) = अपना ही  ( चक्रे ) =  बनाया  ( तस्मै ज्येष्ठाय ) = उस सबसे श्रेष्ठ वा बड़े  ( ब्रह्मणे नम: ) = परमात्मा को हमारा नमस्कार है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = परमात्मा परम पुरुषार्थी, पराक्रमी और परमैश्वर्यवान् हुआ सब जगत् का अधिष्ठाता है। कई लोग जो परमात्मा को निष्क्रिय अर्थात् कुछ कर्त्ताधर्ता नहीं है, ऐसा मानते हैं। उनको इन मन्त्रों की तरफ ध्यान देना चाहिए, जो स्पष्ट कह रहे हैं कि परमात्मा बड़ा पुरुषार्थी, पराक्रमी, बड़ा बलवान् और परमैश्वर्यवान् होकर सब जगत् को बनाता है। परमात्मा अपने बल से ही अनन्त ब्रह्माण्डों को बनाते, पालते, पोषते और प्रलय काल में प्रलय भी कर देते हैं, ऐसे समर्थ प्रभु को बारम्बार हमारा प्रणाम है ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    श्रमात, तपसः [जातः]

    पदार्थ

    १. (य:) = जो प्रभु (श्रमात्) = श्रम से व (तपस:) = तप से (जात:) = प्रादुर्भत होते हैं-जिन्हें श्रम व तप के द्वारा ही हृदयदेश में देखा जा सकता है। वे प्रभु (सर्वान् लोकान् समानशे) = सब लोकों को व्याप्त किये हुए हैं। (य:) = जिन प्रभु ने (सोमम्) = सोमशक्ति के पुञ्ज बननेवाले जीव को वीर्यरक्षा द्वारा ज्ञानदीस जीव को-(केवलं चक्रे) = [क वल्] आनन्द में विचरण करनेवाला, अर्थात् मुक्त किया है। (तस्मै) = उस ज्योष्ठाय (ब्रह्मणे) = ज्येष्ठ ब्रह्म के लिए (नमः) = हम प्रणाम करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु-दर्शन श्रम व तप से होता है। वैसे वे प्रभु सर्वत्र व्याप्त हो रहे हैं। ब्रह्मचर्य द्वारा सोम [वीर्य] का पुञ्ज बननेवाले साधक को प्रभु आनन्द में विचरनेवाला करते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (यः) जो (श्रमात्) परिश्रम से, (तपसः) और तपोमय जीवन से (जातः) प्रकट होता है, [जो] (सर्वान् लोकान्) सब लोकों में (समानशे) सम्यक्-व्याप्त है। (यः) जिसने (सोमम्) चन्द्रमा को (केवलम्) सेवनीय (चक्रे) किया है, रचा है (तस्मै) उस (ज्येष्ठाय ब्रह्मणे) सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म के लिये (नमः) नमस्कार हो।

    टिप्पणी

    [केवलम् = केवृ सेवने (भ्वादिः)]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्रार्थ

    (यः-श्रमात् तपसः-जातः ) जो सर्वाधार परमात्मा स्वाभाविक कर्म से और ज्ञानमय तप से प्रसिद्ध हुआ "तस्य ज्ञानमयं तपः" (सर्वान् लोकान् समानशे) सारे लोकों को व्याप्त करता है (यः केवलं सोमं चक्रे) जिसने सब ओषधियों में केवल श्रेष्ठ सोम को बनाया है ॥३६॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    Who manifested from the heat and effort of his thought and will, who manifests in the devotee’s awareness through yogic effort of relentless practice and continuous discipline of austerity, who pervades all worlds of existence with his omnipresence, who has created, wholly and solely, Soma, only Soma, peace and joy, to that Supreme Brahma, homage of worship and adoration in total submission!

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Who, coming into existence from the toil of the penance, pervades all the worlds completely; who has made the devotional bliss (Somam) all his own, to that Eldest Lord supreme let our homage be.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Our homage to that eternal Supreme Being who is pervading all the worlds being manifest from His active toil and who makes only Soma, the creative power his nature.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Homage to Him, that Highest God, Who through His Fervour and Power, pervaded all the worlds completely, and granted salvation to the soul alone.

    Footnote

    Salvation: His proximity,

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३६−(यः) परमेश्वरः (श्रमात्) परिश्रमात्। प्रयत्नात् (तपसः) सामर्थ्यात् (जातः) प्रादुर्भूतः सन् (लोकान्) (सर्वान्) (समानशे) सम्यग् व्याप (सोमम्) ऐश्वर्यम् (यः) (चक्रे) रचितवान् (केवलम्) सेवनीयम्। आत्मीयम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    পদার্থ

     

    য়ঃ শ্রমাৎ তপসো জাতো লোকান্ত্সর্বান্ত্সমানশে।

    সোমং য়শ্চক্রে কেবলং তস্মৈ জ্যেষ্ঠায় ব্রহ্মণে নমঃ ।।৪১।।

    (অথর্ব ১০।৭।৩৬)

    পদার্থঃ (য়ঃ) যে পরমেশ্বর (শ্রমাৎ) নিজ শ্রম অর্থাৎ প্রযত্ন দ্বারা এবং (তপসঃ) নিজ জ্ঞান দ্বারা (জাতঃ) প্রসিদ্ধ হয়ে (সর্বান্ লোকান্) সমস্ত লোক-লোকান্তরে (সমানশে) সমানভাবে ব্যাপ্ত রয়েছেন, (য়ঃ) যিনি (সোমম্) ঐশ্বর্যসমূহকে (কেবলম্) নিজ সামর্থ্য থেকেই (চক্রে) সৃজন করেছেন, (তস্মৈ) সেই (জ্যেষ্ঠায়) সকলের চেয়ে জ্যেষ্ঠ (ব্রহ্মণে নমঃ) পরমাত্মাকে আমাদের নমস্কার।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ পরমাত্মা পরম পুরুষার্থী, পরাক্রমী ও পরমৈশ্বর্যবানরূপে সমস্ত জগতের অধিষ্ঠাতা। কিছু ব্যক্তি যারা পরমাত্মাকে নিষ্ক্রিয় অর্থাৎ ধর্তা, কর্তারূপে মান্য করে না, তাদের এই মন্ত্রে নজর দেয়া উচিত।  যেখানে স্পষ্ট করে বলা হচ্ছে, পরমাত্মাই সমস্ত জগতের সৃজনকর্তা। পরমাত্মা নিজ বলেই জগতের সৃষ্টি, পালন, পোষণ ও প্রলয়কালে ধ্বংস করেন, সেই সামর্থ্যবান ঈশ্বরকে আমাদের বারংবার প্রণাম ।।৪১।।

     

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top