ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 187/ मन्त्र 4
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - ओषधयः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
तव॒ त्ये पि॑तो॒ रसा॒ रजां॒स्यनु॒ विष्ठि॑ताः। दि॒वि वाता॑ इव श्रि॒ताः ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । त्ये । पि॒तो॒ इति॑ । रसाः॑ । रजां॑सि । अनु॑ । विऽस्थि॑ताः । दि॒वि । वाताः॑ऽइव । शृइ॒ताः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तव त्ये पितो रसा रजांस्यनु विष्ठिताः। दिवि वाता इव श्रिताः ॥
स्वर रहित पद पाठतव। त्ये। पितो इति। रसाः। रजांसि। अनु। विऽस्थिताः। दिवि। वाताःऽइव। श्रिताः ॥ १.१८७.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 187; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे पितो तव तस्यान्नस्य मध्ये ये रसा दिवि वाताइव श्रितास्त्ये रजांस्यनु विष्ठिता भवन्ति ॥ ४ ॥
पदार्थः
(तव) तस्य (त्ये) ते (पितो) अन्नव्यापिन् परमात्मन् (रसाः) स्वाद्वन्नादिषड्विधाः (रजांसि) लोकान् (अनु) (विष्ठिताः) विशेषेण स्थिताः (दिवि) अन्तरिक्षे (वाताइव) (श्रिताः) आश्रिताः सेवमानाः ॥ ४ ॥
भावार्थः
अस्मिन् संसारे परमात्मव्यवस्थया लोकलोकान्तरे भूमिजलपवनानुकूला रसादयो भवन्ति नहि सर्वे सार्वत्रिका इति भावः ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (पितो) अन्नव्यापिन् परमात्मन् ! (तव) उस अन्न के बीच जो (रसाः) स्वादु खट्टा मीठा तीखा चरपरा आदि छः प्रकार के रस (दिवि) अन्तरिक्ष में (वाताइव) पवनों के समान (श्रिताः) आश्रय को प्राप्त हो रहे हैं (त्ये) वे (रजांसि) लोकलोकान्तरों को (अनु, विष्ठिताः) पीछे प्रविष्ट होते हैं ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस संसार में परमात्मा की व्यवस्था से लोकलोकान्तरों में भूमि, जल और पवन के अनुकूल रसादि पदार्थ होते हैं किन्तु सब पदार्थ सब जगह प्राप्त नहीं हो सकते ॥ ४ ॥
विषय
जीवनप्रद अन्न-रस
पदार्थ
१. हे (पितो) = रक्षक अन्न (तव) = तेरे (त्ये) = वे (रसाः) = रस (रजांसि अनुविष्ठिताः) = इस शरीर के सब अङ्ग-प्रत्यङ्गों में क्रमशः विशेष रूप से स्थित होते हैं । अन्न के ही मध्य अंश से मांस, अस्थि आदि धातुओं का निर्माण होता है । इसके ही सूक्ष्म अंश से बुद्धि का निर्माण होता है। 'रजांसि' शब्द लोकवाचक होता हुआ यहाँ शरीर के सब अङ्गों का प्रतिपादक है । २. ये रस इस प्रकार इन अङ्गों में स्थित होते हैं (इव) = जैसे कि (दिवि) = सारे आकाश में (वाताः श्रिताः) = वायुएँ स्थित होती हैं। ये वायुएँ जीवन का कारण हैं। वायुओं के बिना आकाश मृत-सा प्रतीत होता है। इसी प्रकार इन अन्नों के बिना सब अङ्ग मृत से हो जाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ – अन्नों के रस ही अङ्ग-प्रत्यङ्गों में जीवन का संचार करते हैं ।
विषय
अन्नवत् पालक प्रभु की उपासना।
भावार्थ
हे (पितो) अन्न के समान सर्वपालक ! अन्न के नाना प्रकार मधुर आदि रस जिस प्रकार सब पदार्थों में विद्यमान हैं और जिस प्रकार (दिवि वाताः इव) आकाश में वायु स्थित हैं उसी भकार (रजांसि अनु) समस्त लोकों में (तव) तेरे (त्ये) वे नाना प्रकार के अद्भुत २ (रसाः) रस, बल और आनन्द धाराएं (वि स्थिताः) विविध रूपों में स्थित हैं और (श्रिताः) उनमें शोभा रूप से विद्यमान हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्य ऋषिः॥ ओषधयो देवता॥ छन्दः- १ उष्णिक् । ६, ७ भुरिगुष्णिक् । २, ८ निचृद गायत्री । ४ विराट् गयात्री । ९, १० गायत्री च । ३, ५ निचृदनुष्टुप् । ११ स्वराडनुष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या जगात परमेश्वराच्या व्यवस्थेनुसार लोकलोकान्तरात भूमी, जल व वायूच्या अनुकूल रस इत्यादी पदार्थ असतात परंतु सर्व पदार्थ सर्व स्थानी प्राप्त होऊ शकत नाहीत. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Lord pervasive of food and nourishment of life, the taste, the pleasure, and the ecstasy of the experience of your presence is replete in the living worlds like the waves of energy and the winds and the air in the sky and the heavens.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
God creates favorable air, water, lands etc.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God! you exist in the meals. The flavors of the meals are diffused through the varying lands, and regions, as the winds are spread throughout the sky.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
NA
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
In this world, according to the order established by God, the saps of various herbs and plants grow and are spread in the different regions agreeable with the earth, water and air etc. They are not the same kind everywhere.
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