Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 187 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 187/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - ओषधयः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    तव॒ त्ये पि॑तो॒ दद॑त॒स्तव॑ स्वादिष्ठ॒ ते पि॑तो। प्र स्वा॒द्मानो॒ रसा॑नां तुवि॒ग्रीवा॑ इवेरते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑ । त्ये । पि॒तो॒ इति॑ । दद॑तः । तव॑ । स्वा॒दि॒ष्ठ॒ । ते । पि॒तो॒ इति॑ । प्र । स्वा॒द्मानः॑ । रसा॑नाम् । तु॒वि॒ग्रीवाः॑ऽइव । ई॒र॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव त्ये पितो ददतस्तव स्वादिष्ठ ते पितो। प्र स्वाद्मानो रसानां तुविग्रीवा इवेरते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तव। त्ये। पितो इति। ददतः। तव। स्वादिष्ठ। ते। पितो इति। प्र। स्वाद्मानः। रसानाम्। तुविग्रीवाःऽइव। ईरते ॥ १.१८७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 187; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे पितो ददतस्तव त्ये पूर्वोक्ता रसाः सन्ति। हे स्वादिष्ठ पितो तव ते रसा रसानां मध्ये स्वाद्मानस्तुविग्रीवाइव प्रेरते जीवानां प्रीतिं जनयन्ति ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (तव) (त्ये) ते (पितो) अन्नव्यापिन् पालकेश्वर (ददतः) (तव) (स्वादिष्ठ) अतिशयेन स्वादितः (ते) तस्य (पितो) (प्र) (स्वाद्मानः) स्वादिष्ठाः (रसानाम्) मधुरादीनाम् (तुविग्रीवाइव) तुवि बलिष्ठा ग्रीवा येषान्ते (ईरते) प्राप्नुयुः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    सर्वपदार्थव्यापकः परमात्मैव सर्वेभ्योऽन्नादिपदार्थान् प्रयच्छत तत्कृता एव पदार्थाः स्वगुणानुकूलाः केचित् स्वादिष्ठाः केचिच्च स्वादुतरास्सन्तीति सर्वैर्वेदितव्यम् ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (पितो) अन्नव्यापी पालक परमात्मन् ! (ददतः) देते हुए (तव) आपके जो अन्न वा (त्ये) वे पूर्वोक्त रस हैं। हे (स्वादिष्ठ) अतीव स्वादुयुक्त (पितो) पालक अन्नव्यापक परमात्मन् (तव) आपके उस अन्न के सहित (ते) वे रस (रसानाम्) मधुरादि रसों के बीच (स्वाद्मानः) अतीवस्वादु (तुविग्रीवाइव) जिनका प्रबल गला उन जीवों के समान (प्रेरते) प्रेरणा देते अर्थात् जीवों को प्रीति उत्पन्न कराते हैं ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    सब पदार्थों में व्याप्त परमात्मा ही सभों के लिये अन्नादि पदार्थों को अच्छे प्रकार देता है और उसके किये हुए ही पदार्थ अपने गुणों के अनुकूल कोई अतीव स्वादु और कोई अतीव स्वादुतर हैं, यह सबको जानना चाहिये ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    देकर, बचे हुए को खाना

    पदार्थ

    १. हे (पितो) = रक्षक अन्न ! (त्ये) = वे व्यक्ति जो कि (तव ददत:) = तेरा दान करते हैं, दानपूर्वक बचे हुए को ही खाते हैं, यज्ञशेष [अमृत] का सेवन करते हैं और २. हे (स्वादिष्ठ पितो) = स्वादुतम अन्न ! (तव) = तेरे (रसानाम्) = रसों का (प्रस्वाद्मान:) = प्रकृष्ट स्वाद लेनेवाले, तेरे रसों का प्रसन्नतापूर्वक सेवन करनेवाले (तुविग्रीवा इव ईरते) = प्रवृद्ध गर्दनवालों के समान गति करते हैं । दुर्बलता में गर्दन झुक-सी जाती है । इन अन्न-रसों के सेवन से शक्ति की उत्पत्ति होती है और गर्दन झुकती नहीं।

    भावार्थ

    भावार्थ – अन्न को हविरूप करके ही खाना चाहिए। देकर बचे हुए को खाना ही ठीक है। 'केवलाघो भवति केवलादी' – अकेला खानेवाला पाप खाता है। यज्ञावशिष्ट एवं सुस्वादु अन्न से शक्तिशाली बनकर हम सीधी गर्दन से गति करनेवाले होते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अन्नवत् पालक प्रभु की उपासना।

    भावार्थ

    हे ( पितो ) सर्वपालक प्रभो ! ( ददतः तव ) तेरे प्रदान करते हुए ( त्ये ) वे नाना रस (ते) तेरेही अलौकिक स्वरूप हैं । हे (स्वादिष्ट) सब से अधिक स्वादु, अन्तःकरण से जानने योग्य ! हे (पितो) पालक ! (रसानां स्वाद्मानः) रसों का स्वाद लेने वाले (तुविग्रीवाः) प्रबल गर्दन वाले होकर, उसको उत्सुकता से ऊपर उठाए हुए वे मानो (प्र ईरते) तेरी नित्य स्तुति किया करते, तेरे रसों का वर्णन करते, गर्दन उठा ‘उद् ग्रीव’ होकर, मानो तेरे रसों का ग्रहण करते हैं । इति पष्ठो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्य ऋषिः॥ ओषधयो देवता॥ छन्दः- १ उष्णिक् । ६, ७ भुरिगुष्णिक् । २, ८ निचृद गायत्री । ४ विराट् गयात्री । ९, १० गायत्री च । ३, ५ निचृदनुष्टुप् । ११ स्वराडनुष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व पदार्थात व्याप्त परमात्माच सर्वांसाठी अन्न इत्यादी पदार्थ चांगल्या प्रकारे देतो व त्याने दिलेले पदार्थ आपापल्या गुणानुकूल असतात त्यात एखादा मधुर तर एखादा अत्यंत मधुरतर असतो हे सर्वांनी जाणले पाहिजे. ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O spirit of life pervasive in food and drink and all other nutriments, you are the giver, you are the most delicious and inspiring. All those who taste of the pleasure and inspiration of your gifts of juices and vital essences move around with rightful pride, holding their head high and proclaiming their existence with self- confidence.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God! you are master of the meals and thus protect all. You are the sweetest and the best. O Giver of enjoyment ! all different saps are your gifts. You are the Greatest Donor. Your saps are present in different plants and herbs etc. and they have raised their power, create love and delight among the living beings.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    NA

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is Omnipresent God that gives food and other materials to all beings. The substances created by Him are delicious, more delicious and most delicious (It is all His glory that they manifest.)

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top