Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 187 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 187/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - ओषधयः छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    त्वे पि॑तो म॒हानां॑ दे॒वानां॒ मनो॑ हि॒तम्। अका॑रि॒ चारु॑ के॒तुना॒ तवाहि॒मव॑सावधीत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वे । पि॒तो॒ इति॑ । म॒हाना॑म् । दे॒वाना॑म् । मनः॑ । हि॒तम् । अका॑रि । चारु॑ । के॒तुना॑ । तव॑ । अहि॑म् । अव॑सा । अ॒व॒धी॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वे पितो महानां देवानां मनो हितम्। अकारि चारु केतुना तवाहिमवसावधीत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वे। पितो इति। महानाम्। देवानाम्। मनः। हितम्। अकारि। चारु। केतुना। तव। अहिम्। अवसा। अवधीत् ॥ १.१८७.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 187; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    पितो यस्यान्नव्यापिनस्तवावसा सूर्योऽहिमवधीत् तस्य तव केतुना यच्चार्वकारि तन्महानां देवानां मनस्त्वे हितमस्ति ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (त्वे) त्वयि (पितो) अन्नव्यापिन् पालकेश्वर (महानाम्) महतां पूज्यानाम् (देवानाम्) विदुषाम् (मनः) (हितम्) धृतं प्रसन्नं वा (अकारि) क्रियते (चारु) श्रेष्ठतरम् (केतुना) विज्ञानेन (तव) तस्य। अत्र व्यत्ययः। (अहिम्) मेघम् (अवसा) (अवधीत्) हन्ति ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    यद्यन्नं न भुज्येत तर्हि कस्यापि मनो न हृष्येत मनसोऽन्नमयत्वात् तस्माद्यस्योत्पत्तये मेघो निमित्तमस्ति तदन्नं सुष्ठु संस्कृत्य भोक्तव्यम् ॥ ६ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (पितो) अन्नव्यापी पालना करनेवाले ईश्वर ! (तव) जिस आपकी (अवसा) रक्षा आदि से सूर्य (अहिम) मेघ को (अवधीत्) हन्ता है उन आपके (केतुना) विज्ञान से जो (चारु) श्रेष्ठतर (अकारि) किया जाता है वह (महानाम्) महात्मा पूज्य (देवानाम्) विद्वानों का (मनः) मन (त्वे) आप में (हितम्) धरा है वा प्रसन्न है ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    यदि अन्न भोजन न किया जाय तो किसी का मन आनन्दित न हो क्योंकि मन अन्नमय है। इस कारण जिसकी उत्पत्ति के लिये मेघ निमित्त है, उस अन्न को सुन्दरता से बनाकर भोजन करना चाहिये ॥ ६ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अन्नमयं हि [सौम्य] मनः

    पदार्थ

    १. हे (पितो) = अन्न (त्वे) = तुझमें (महानाम्) = महिमाशाली (देवानाम्) = देवों का (मनः) = मन (हितम्) रखा हुआ है, अर्थात् अन्न के सेवन से दिव्य मन प्राप्त होता है। 'जैसा अन्न वैसा मन'–इस उक्ति-के अनुसार भोजन से ही मन बनता है। सात्त्विक भोजनों के सेवन से दिव्य मन प्राप्त होता है। आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः - आहार की शुद्धि से अन्तःकरण की भी शुद्धि होती है । २. इस अन्न के द्वारा (चारु अकारि) = अत्यन्त सुन्दर अन्तःकरण का निर्माण होता है । हे अन्न ! (तव) = तेरे (केतुना) = ज्ञान से तथा (अवसा) = रक्षण से तेरा सेवन करनेवाला (अहिम्) = वासनारूप अहि को (अवधीत्) = नष्ट करता है। अन्न से बुद्धि का निर्माण होता है यह अन्न ज्ञान प्राप्ति में सहायक होता है यह अन्न शरीर को नीरोग बनाता है। नीरोगता व ज्ञान के संगत हो- (मिल) जाने पर वासना स्वतः समाप्त हो जाती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सात्त्विक अन्न से दिव्य मन प्राप्त होता है। नीरोगता व ज्ञान की वृद्धि होकर वासना का विनाश होता है ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अन्नवत् पालक प्रभु की उपासना।

    भावार्थ

    हे ( पितो ) अन्न के समान पालक ! परमेश्वर ! जिस प्रकार (देवानां मनः त्वे हितम्) ग्राह्य विषयों का प्रकाश करने वाली इन्द्रियों का ‘मन’ अर्थात् ज्ञान कराने वाला साधन अन्तःकरण या समस्त बल इस अन्न में स्थित है इसी के आधार पर वह पुष्ट होता है और जिस प्रकार अन्न के (केतुना चारु अकारि) विज्ञानप्रद शक्ति से मन देह भर में सञ्चरण शील होता है, और जिस प्रकार अन्न के (अवसा) तृप्ति करने वाले गुण से यह जीव (अहिम्) सर्प के समान मूर्छित करने वाले, अमिट भूख प्यास को नाश करता है उसी प्रकार हे परमेश्वर ! (त्वे) तुझमें ही (महानां) बड़े २ (देवानां) प्रकाशमान लोकों का (मनः) स्तम्भनबल और ज्ञान (हितम्) धरा है। (केतुना) तेरेही ज्ञान से यह जगत् (चारु) सुन्दर, गतिमान् (अकारि) बना है। (तव अवसा) तेरी शक्ति से ही सूर्य (अहिम अवधीत्) मेघ को छिन्न भिन्न करता है, तेरेही दिये ज्ञान से जीव अज्ञान का नाश करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्य ऋषिः॥ ओषधयो देवता॥ छन्दः- १ उष्णिक् । ६, ७ भुरिगुष्णिक् । २, ८ निचृद गायत्री । ४ विराट् गयात्री । ९, १० गायत्री च । ३, ५ निचृदनुष्टुप् । ११ स्वराडनुष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जर अन्न न खाल्ले तर कुणाचेही मन आनंदी राहणार नाही. कारण मन अन्नमय आहे. ज्याच्या उत्पत्तीस मेघ कारणीभूत आहेत ते अन्न चांगल्या प्रकारे संस्कारित करून खावे. ॥ ६ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O spirit and power of existence, food of life, in you and with you abides the mind of great nobilities and divinities. By virtue of your power and presence great works are done. By your energy and rays of light the sun breaks the cloud and pours forth the rains.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God ! you give knowledge about the meals and protect the world. It is by your protective power that the sun uncovers the clouds and it is through your knowledge that the pure and delighted mind of the great enlightened persons is always devoted to you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    NA

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If the meals are not taken properly, nobody's mind can remain delighted, because the mind gets the power from the meals. Therefore the food whose origin is in the cloud (rains) should be properly cooked and then eaten.

    Foot Notes

    (केतुना) विज्ञानेन केतुरिति प्रज्ञानाम । (N.G. 3-9) किती –संज्ञाने। By special knowledge. (अहिम्) मेघम् | अहिरिति मेघनाम (N.G. 1-10) = Cloud.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top