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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 53/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - पूषा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अदि॑त्सन्तं चिदाघृणे॒ पूष॒न्दाना॑य चोदय। प॒णेश्चि॒द्वि म्र॑दा॒ मनः॑ ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अदि॑त्सन्तम् । चि॒त् । आ॒घृ॒णे॒ । पूष॑न् । दाना॑य । चो॒द॒य॒ । प॒णेः । चि॒त् । वि । म्र॒द॒ । मनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदित्सन्तं चिदाघृणे पूषन्दानाय चोदय। पणेश्चिद्वि म्रदा मनः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदित्सन्तम्। चित्। आघृणे। पूषन्। दानाय। चोदय। पणेः। चित्। वि। म्रद। मनः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 53; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वान् कस्मै किं प्रेरयेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे आघृणे पूषँस्त्वमदित्सन्तं चिदपि दातारं दानाय चोदय चिदपि दातारं स्वस्य मनश्च चोदय पणेश्चिन्मनो वि म्रदा ॥३॥

    पदार्थः

    (अदित्सन्तम्) दातुमनिच्छन्तम् (चित्) अपि (आघृणे) समन्तात् प्रकाशात्मन् (पूषन्) पुष्टिकर विद्वन् (दानाय) (चोदय) प्रेरय (पणेः) द्यूतकर्त्तुः (चित्) अपि (वि) विशेषेण (म्रदा) दण्डय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मनः) अन्तःकरणम् ॥३॥

    भावार्थः

    हे अध्यापकोपदेशकौ राजन्वा ! विद्यादिशुभगुणस्य प्रवृत्तयेऽदातॄनपि दानकरणाय प्रेरय द्यूतकर्तॄंश्च पाखण्डिनो हिन्धि ॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर विद्वान् जन किसके लिये क्या प्रेरणा करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (आघृणे) सब ओर से प्रकाशात्मन् (पूषन्) पुष्टि करनेवाले विद्वन् ! आप (अदित्सन्तम्) देने की अनिच्छा करते हुए (चित्) भी देनेवाले को (दानाय) देने के लिये (चोदय) प्रेरणा देओ (चित्) फिर भी देनेवालो को और अपने (मनः) मन को भी प्रेरणा देओ और (पणेः) जुआ खेलनेवाले के भी अन्तःकरण को (वि, म्रदा) विशेषता से मर्दो अर्थात् दण्ड देओ ॥३॥

    भावार्थ

    हे अध्यापक, उपदेशक वा राजन् ! विद्यादि शुभगुणों की प्रवृत्ति के लिये न देनेवालों को भी दान करने के लिये प्रेरणा देओ और जुआ खेलनेवाले पाखण्डियों को मारो अर्थात् ताड़ना देओ ॥३॥

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    विषय

    उसके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (आ घृणे) सर्वत्र प्रकाशित ! हे तेजस्विन् ! हे ( पूषन् ) निर्बलों के पक्षपोषक ! तू ( अदित्सन्तं चित् ) न देना चाहने वाले पुरुष को (दानाय) देने के लिये ( चोदय ) प्रेरित कर । ( पणेः चित् ) व्यवहारकुशल, वणिग्जन, वा द्यूतादि व्यवहार करने वाले वा स्तुतिशील जन के भी ( मनः ) मन को ( वि म्रद ) विशेष रूप से मृदु कर । वह भी कंजूस न होकर दयाशील कोमल हृदय रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः १, ३, ४, ६, ७, १० गायत्री । २, ५, ९ निचृद्गायत्री । ८ निचृदनुष्टुप् ।। दशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    दानप्रवृत्ति का जागरण

    पदार्थ

    [१] हे (आघृणे) = सर्वतो दीप्तिमन् ! (पूषन्) = पोषक प्रभो ! (अदित्सन्तं चित्) = न देने की कामनावाले को (दानाय) = दान के लिये (चोदय) = प्रेरित करिये । [२] (पणे: चिद्) = धनलुब्ध वणिक् के समान कृपण वृत्तिवाले पुरुष के (मनः) = मन को भी (विम्रदा) = मृदु करिये, वह भी आधार देने योग्य व्यक्तियों की स्थिति को देखकर दान की वृत्तिवाला बने ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ऐसा ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करायें कि अधिक से अधिक कृपण वृत्तिवाला पुरुष भी दयार्द्र मनवाला बने और दानवृत्ति को अपनाये ।

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    मन्त्रार्थ

    (भूम्याः-अन्ताः) जब राष्ट्रभूमि के समीपी भाग (ध्वसिराः समदृक्षत) पर सैनिकों या शत्रुओं से ध्वस्त-नष्टभ्रष्ट किए हुए दिखलाई पडते हों (घोषः-दिवि-आरुहत्) पर सैनिकों का पदघोष या शत्रुघोष आकाश में उठ रहा हो रहा हो (अरातयः) शत्रुसैनिकजन (जनानां माम्-उपास्थुः) प्रजाजनों के और मेरे पास पहुंचे हों, तब (हवनभूता-इन्द्रावरुणा अवसा-अर्वाक् आगतम्) हे हमारे वचन को सुनने वाले सेनानायक और सेनाध्यक्ष तुम रक्षा के हेतु हमारी ओर आओ ॥३॥

    विशेष

    ऋषि:- भरद्वाजः (अन्नादि का धारणकर्त्ता व्यापारी कृषक) देवता- पूषा (आधिदैविक क्षेत्र) में सूर्य- 'अथ यद् रश्मिपोषं पुष्यति तत् पूषा भवति' (निरु० १२।१६) आधिभौतिक क्षेत्र में पशुखाद्ययातायातमन्त्री "पूषा वै पशूनामीष्टे” (शत० १३|३|८|२), "पूषा वै पथीनामधिपतिः” (शत० १३।४।१।४४)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे अध्यापक, उपदेशक किंवा राजा ! विद्या इत्यादी शुभ गुणात प्रवृत्त व्हावे यासाठी दान न देणाऱ्या लोकांनाही दान देण्याची प्रेरणा द्या व द्यूत खेळणाऱ्या ढोंगी लोकांना दंड द्या. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Pusha, generous lord of light and grace, motivate the non-giver to give in charity and soften the heart of even the mean and miserly.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a learned man urge upon others to do—is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened nourisher ! urge to give even him, who does not want to give, urge yourself and change the heart—mind of a gambler (miser).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers or king ! urge even the miserly persons to give liberally for the promotion of knowledge and other good causes. Punish gamblers (misers) and hypocrites.

    Foot Notes

    (आधुणे) समन्तात् प्रकाशात्मन् । आघु-क्षरण-दीप्तयो: (जुहो.) अत्र दीप्त्यर्थः । = Enlightened from all sides. (पणे:) धूतकर्क्तु: । पण-व्यवहारे स्तुतौ च (भ्वा.) अत्र द्यूतभ्यवहारार्थः। = Of a gambler miser. (म्रदा) दण्डय | अत्र द्वय चोतस्तिङ इति दीर्घः । म्रव-मर्दने (भ्वा०)। = Punish, change.

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