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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 53/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - पूषा छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    परि॑ तृन्धि पणी॒नामार॑या॒ हृद॑या कवे। अथे॑म॒स्मभ्यं॑ रन्धय ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । तृ॒न्धि॒ । प॒णी॒नाम् । आर॑या । हृद॑या । क॒वे॒ । अथ॑ । ई॒म् । अ॒स्मभ्य॑म् । र॒न्ध॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि तृन्धि पणीनामारया हृदया कवे। अथेमस्मभ्यं रन्धय ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि। तृन्धि। पणीनाम्। आरया। हृदया। कवे। अथ। ईम्। अस्मभ्यम्। रन्धय ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 53; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्नृपेण के पीडनीया इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे कवे ! त्वमारया पणीनां हृदया परि तृन्धि। अथाऽस्मभ्यमीं दुष्टान् रन्धयाऽस्मभ्यं सुखं देहि ॥५॥

    पदार्थः

    (परि) सर्वतः (तृन्धि) हिन्धि (पणीनाम्) द्यूतादिव्यवहारकर्त्तॄणां (आरया) प्रतोदेन (हृदया) हृदयानि (कवे) विद्वन् राजन् (अथ) (ईम्) सर्वतः (अस्मभ्यम्) (रन्धय) ॥५॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! त्वं येऽपूतशासनकर्त्तारः कितवाश्च स्वराज्ये स्युस्तान् सम्यग्दण्डय सतो न्यायमार्गे वर्त्तमाना वयं सुखिनः स्याम ॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर राजा से कौन पीड़ा देने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (कवे) विद्वन् राजन् ! आप (आरया) उत्तम कोड़ा से (पणीनाम्) द्यूत आदि व्यवहार करनेवाले पुरुषों के (हृदया) हृदयों को (परि, तृन्धि) सब ओर से मारो (अथ) इसके अनन्तर (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (ईम्) सब ओर से दुष्टों को (रन्धय) पीड़ित करो और हमारे लिये सुख देओ ॥५॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! आप जो अपवित्र शिक्षा देनेवाले और छली पुरुष अपने राज्य में हों, उनको अच्छे प्रकार दण्डो, जिससे न्यायमार्ग के बीच हम लोग सुखी हों ॥५॥

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    भावार्थ

    हे ( कवे ) क्रान्तदर्शिन् ! मेधाविन् ! दूरदर्शिन् ! आप ( पणीनाम् ) द्यूतादि व्यवहार करने वाले दुष्ट जनों के ( हृदया) हृदयों को (आरया ) आरा से जैसे काष्ठों को चीरा जाता है वा पैनी चोब से जैसे पशुओं को उद्विग्न करके ठीक रास्ते से चलाया जाता है उसी प्रकार (आरया) सब प्रकार की शिक्षा और ‘आर्ति’ अर्थात् पीड़ा, दण्डादि की व्यवस्था द्वारा ( परि तृन्धि ) परिपीड़ित कर ( अथ ) और इस प्रकार ( ईम् ) उनको ( अस्मभ्यम् ) हमारे हित के लिये ( रन्धय ) वश कर और दण्डित कर । इति सप्तदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः १, ३, ४, ६, ७, १० गायत्री । २, ५, ९ निचृद्गायत्री । ८ निचृदनुष्टुप् ।। दशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    ज्ञानवाणीरूप आरा से कठोर मन को चोट पहुँचाना

    पदार्थ

    [१] हे (कवे) = क्रान्तप्रज्ञ विद्वन्! (पणीनाम्) = धनलुब्ध वणिजों के (हृदया) = हृदयों को (आरया परितृन्धि) = [ आरा प्रतोदः] आरे से चीर-सा डाल। इन्हें इस प्रकार ज्ञानोपदेश कर कि इन्हें हृदयों में वह ज्ञान की वाणी चुभ-सी जाये। उससे इनके हृदय इस प्रकार जागरित से हो उठें जैसे कि अंकुश से हाथी चेतन हो उठता है। [२] (अथ) = अब (ईम्) = निश्चय से इन्हें (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (रन्धय) = वशीभूत करिये, ये अपने मनों को कठोर कर ही न पायें और दें ही ।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञानी पुरुष ज्ञान की वाणीरूप आरा से पणियों के हृदय को इस प्रकार हिंसित करें कि वह भी दान की ओर झुक ही जायें।

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    मन्त्रार्थ

    (अर्यः) 'अरे' शत्रु के (अधानि) पाप, तथा (वनुषाम्-अरातयः) हिंसकों के "वनुष्यति हिंसाकर्मा” (निरु० ५।२) न देने-शोषणभाव (मा-अभि-आतपन्ति) मुझे अभितापित करते उकसाते हैं (इन्द्रावरुणा युवं हि) हे सेनानायक और सेनाध्यक्ष! तुम दोनों ही (उभयस्य वस्वः-राजथः) दोनों वसुऐश्वर्य के प्रजाधन और राज्यधन के राजा हो (अद्य हम) अब तो (पायें दिवि) पर ऊँचे में होनेवाले ज्ञानप्रकाश में (नः-अवतम्) हमारी रक्षा करो ॥५॥

    विशेष

    ऋषि:- भरद्वाजः (अन्नादि का धारणकर्त्ता व्यापारी कृषक) देवता- पूषा (आधिदैविक क्षेत्र) में सूर्य- 'अथ यद् रश्मिपोषं पुष्यति तत् पूषा भवति' (निरु० १२।१६) आधिभौतिक क्षेत्र में पशुखाद्ययातायातमन्त्री "पूषा वै पशूनामीष्टे” (शत० १३|३|८|२), "पूषा वै पथीनामधिपतिः” (शत० १३।४।१।४४)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्यांच्या अंगी अपवित्रता व कपट असेल असे पुरुष आपल्या राज्यात असतील तर त्यांना चांगल्या प्रकारे दंड द्या. ज्यामुळे न्यायमार्गात राहून आम्ही सुखी व्हावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O lord of vision and creativity, smite the hearts of the callous niggards with a goad, and subdue them to correction and maturity for the sake of us all.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Whom should be a king punish-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned king! punish the gamblers with whips for the happiness of good persons. Slay the wicked and make us all delighted.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king! punish the wicked administrators and gamblers in your state, so that, we, who are treading upon the path of justice, may enjoy happiness.

    Foot Notes

    (तृन्धि) हिन्धी । (उ) तुदिर् — हिसाऽनादरयाः (रुधा०) । अत्रोभयार्थं ग्रहणम् । = Punish, slay. (आरया) प्रतोदेन |= With wipe.

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