ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 53/ मन्त्र 8
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - पूषा
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यां पू॑षन्ब्रह्म॒चोद॑नी॒मारां॒ बिभ॑र्ष्याघृणे। तया॑ समस्य॒ हृद॑य॒मा रि॑ख किकि॒रा कृ॑णु ॥८॥
स्वर सहित पद पाठयाम् । पू॒ष॒न् । ब्र॒ह्म॒ऽचोद॑नीम् । आरा॑म् । बिभ॑र्षि । आ॒घृ॒णे॒ । तया॑ । स॒म॒स्य॒ । हृद॑यम् । आ । रि॒ख॒ । कि॒कि॒रा । कृ॒णु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यां पूषन्ब्रह्मचोदनीमारां बिभर्ष्याघृणे। तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ॥८॥
स्वर रहित पद पाठयाम्। पूषन्। ब्रह्मऽचोदनीम्। आराम्। बिभर्षि। आघृणे। तया। समस्य। हृदयम्। आ। रिख। किकिरा। कृणु ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 53; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विदुषा कथं कस्मै प्रेरणा कार्येत्याह ॥
अन्वयः
हे पूषन्नाघृणे ! त्वं यां ब्रह्मचोदनीमारां बिभर्षि तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ॥८॥
पदार्थः
(याम्) (पूषन्) पुष्टिकर्त्तः (ब्रह्मचोदनीम्) विद्याधनप्राप्तये प्रेरिकाम् (आराम्) काष्ठविभाजिकाम् (बिभर्षि) (आघृणे) सर्वतो न्यायप्रकाशिन् (तया) (समस्य) तुल्यस्य (हृदयम्) (आ) (रिख) लिख (किकिरा) विकीर्णानि (कृणु) ॥८॥
भावार्थः
हे राजँस्त्वं विद्याधनप्राप्तिप्रेरणामिव राजनीतिं धर येन सर्वेषां न्यायव्यवस्था स्यात् ॥८॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर विद्वान् को कैसे किसके लिये प्रेरणा करनी योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (पूषन्) पुष्टि करनेवाले (आघृणे) सब ओर से न्याय के प्रकाश करनेवाले ! आप (याम्) जिस (ब्रह्मचोदनीम्) विद्या और धन की प्राप्ति के लिये प्रेरणा करने तथा काष्ठ के विभाग करनेवाली आरी को (बिभर्षि) धारण करते हो (तया) उससे (समस्य) तुल्य के समान अर्थात् जो सब में बुद्धिवाला है उसके (हृदयम्) हृदय को (आ, रिख) अच्छे प्रकार लिखो और (किकिरा) उत्तम गुणों को विकीर्ण (कृणु) करो फैलाओ ॥८॥
भावार्थ
हे राजन् ! आप विद्या और धन की प्राप्ति की प्रेरणा के समान राजनीति को धारण करो, जिससे सब की न्यायव्यवस्था हो ॥८॥
विषय
चाकवत् वाणी का प्रयोग ।
भावार्थ
हे (पूपन् ) निर्बलों का पक्ष पोषण करने हारे ! हे ( आघृणे ) सब प्रकार तेजस्विन् ! समस्त ज्ञानों के प्रकाशक विद्वन् ! तू (यां) जिस ( ब्रह्म-चोदनीम् ) ब्रह्म विद्या और धन की ओर प्रेरित करने वाली ( आराम् ) चोब या आरा शस्त्री के तुल्य सद्-असद् विवेक करने वाली बुद्धि या वाणी को ( बिभर्षि ) धारण करता है ( तया) उससे ( समस्य हृदयम् ) सबके दिलों को (आ रिख) अंकित कर और ( किकिरा कृणु ) अपने उत्तम विचारों को सर्वत्र विस्तारित कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ पूषा देवता ॥ छन्दः १, ३, ४, ६, ७, १० गायत्री । २, ५, ९ निचृद्गायत्री । ८ निचृदनुष्टुप् ।। दशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
ब्रह्मचोदनी आरा
पदार्थ
[१] हे (आघृणे) = समन्तात् दीप्तिवाले (पूषन्) = पोषक प्रभो ! (याम्) = जिस (ब्रह्मचोदनीम्) = ज्ञान को प्रेरित करनेवाली (आरा) = चाबुक को (बिभर्षि) = आप धारण करते हैं। (तया) = उस ज्ञान प्रेरिका आरा से (समस्य) = सब कृपणों के (हृदयम्) = हृदयों को आरिख अवदीर्ण करिये, उनकी कठोरता को नष्ट करिये। [२] (किकिरा कृणु) = इस ज्ञान की वाणी से इनके हृदयों को अवकीर्ण व शिथिल कर डालिये। ये न देने के कठोर वृत्ति को नष्ट कर कोमल हृदयोंवाले बनकर दान में प्रवृत्त हों।
भावार्थ
भावार्थ- अदाता कृपण जनों के हृदय भी ज्ञान की वाणियों से प्रेरित होकर दानवृत्तिवाले बन जायें ।
मन्त्रार्थ
(दाशराज्ञे विश्वतः परिमत्ताय) शत्रुभूत दश राजाओं के इस प्रतिरोधी प्रतिरोध करने वाले सब ओर से घिरे हुए (सुदासे) सुदास-कल्याणदान-सुन्दर सुख प्रदाता राजा के लिए (इन्द्रावरुणौ-प्रशिक्षतम्) सेनानायक ओर सेनाध्यक्ष ने बल दिया "शिक्षति दानकर्मा" (निघं० ३।२०) (यत्र) जहां (श्वित्यञ्चः) पवित्र भावना को प्राप्त (कपर्दिनः) ब्रह्मचारी जन (धीवन्तः) कृतबुद्धि विद्वान् (तृत्सव:) पाप विनाशक (नमसा धिया) अपने वज्र "नमो वज्रनाम" (निघं० २।६) और कर्म से (असयन्त) संग्राम में सहारा का आचरण करते हैं "संयति परिचरणकर्मा" (निघं० ३।५।)॥८॥
विशेष
ऋषि:- भरद्वाजः (अन्नादि का धारणकर्त्ता व्यापारी कृषक) देवता- पूषा (आधिदैविक क्षेत्र) में सूर्य- 'अथ यद् रश्मिपोषं पुष्यति तत् पूषा भवति' (निरु० १२।१६) आधिभौतिक क्षेत्र में पशुखाद्ययातायातमन्त्री "पूषा वै पशूनामीष्टे” (शत० १३|३|८|२), "पूषा वै पथीनामधिपतिः” (शत० १३।४।१।४४)
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! तू विद्या व धन प्राप्त व्हावे अशी प्रेरणा देणारी राजनीती कर. ज्यामुळे सर्वांना व्यवस्थित न्याय मिळावा. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Pusha, lord of light and grace, giver of food and growth for life, you command that analytical intellect which discriminates between truth and untruth and inspires the mind to have the vision of divinity. With that inspiring intelligence, imprint the settled mind with holiness and let it expand with ideas.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should an enlightened person urge upon others-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O nourisher, and enlightened person ! the policy which urges upon others the attainment of knowledge and wealth is like a saw, that uphold the heart of people like you and spread good virtues far and near.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king ! like upholding the attainments of Vidya (knowledge) and wealth, uphold policy so that all may have a just administration.
Foot Notes
(आराम्) काष्ठविभाजिकाम् । = Cutter of wood, saw. (ब्रह्मचोदनीम्) विद्याधनप्राप्त्ये प्रेरिकाम् । ब्रह्मनेति धननाम (NG 2, 10) वेदो ब्रह्म (J. U. Br. 4, 25, 3) विद-ज्ञाने (अदा.) चुद-संचोदने (चुरा.) प्रेरणा (इत्यर्थः)। = Urging upon all to acquire knowledge and wealth.
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