अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 13
अ॒ग्नौ सूर्ये॑ च॒न्द्रम॑सि मात॒रिश्व॑न्ब्रह्मचा॒र्यप्सु स॒मिध॒मा द॑धाति। तासा॑म॒र्चींषि॒ पृथ॑ग॒भ्रे च॑रन्ति॒ तासा॒माज्यं॒ पुरु॑षो व॒र्षमापः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नौ । सूर्ये॑ । च॒न्द्रम॑सि । मा॒त॒रिश्व॑न् । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । अ॒प्सुऽसु । स॒म्ऽइध॑म् । आ । द॒धा॒ति॒ । तासा॑म् । अ॒र्चीषि॑ । पृथ॑क् । अ॒भ्रे । च॒र॒न्ति॒ । तासा॑म् । आज्य॑म् । पुरु॑ष: । व॒र्षम् । आप॑: ॥७.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नौ सूर्ये चन्द्रमसि मातरिश्वन्ब्रह्मचार्यप्सु समिधमा दधाति। तासामर्चींषि पृथगभ्रे चरन्ति तासामाज्यं पुरुषो वर्षमापः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नौ । सूर्ये । चन्द्रमसि । मातरिश्वन् । ब्रह्मऽचारी । अप्सुऽसु । सम्ऽइधम् । आ । दधाति । तासाम् । अर्चीषि । पृथक् । अभ्रे । चरन्ति । तासाम् । आज्यम् । पुरुष: । वर्षम् । आप: ॥७.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।
पदार्थ
(ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (अग्नौ) अग्नि में, (सूर्ये) सूर्य में, (चन्द्रमसि) चन्द्रमा में, (मातरिश्वन्) आकाश में चलनेवाले पवन में और (अप्सु) जलधाराओं में (समिधम्) समिधा [प्रकाशसाधन] को (आ दधाति) सब प्रकार से धरता है। (तासाम्) उन [जलधाराओं] की (अर्चींषि) ज्वालाएँ (पृथक्) नाना प्रकार से (अभ्रे) मेघ में (चरन्ति) चलती हैं, (तासाम्) उन [जलधाराओं] का (आज्यम्) घृत [सार पदार्थ] (पुरुषः) पुरुष, (वर्षम्) वृष्टि और (आपः) सब प्रजाएँ हैं ॥१३॥
भावार्थ
ब्रह्मचारी अपने विद्याबल से अग्नि, सूर्य आदि के तत्त्वों को जान लेता है और उस जल का भी ज्ञान प्राप्त करता है, जो बिजुली के संसर्ग से वृष्टि होकर मनुष्य, जल, और सब प्राणी आदि की सृष्टि का कारण होता है ॥१३॥
टिप्पणी
१३−(अग्नौ) पार्थिवतापे (सूर्ये) आदित्ये (चन्द्रमसि) चन्द्रलोके (मातरिश्वन्) अ० ५।१०।८। विभक्तेर्लुक्। मातरि मानकर्तरि आकाशे गमनशीले वायौ (ब्रह्मचारी) म० १ (अप्सु) जलधारासु (समिधम्) प्रकाशसाधनम् (आ दधाति) सम्यग् धरति (तासाम्) अपाम् (अर्चींषि) तेजांसि (पृथक्) नानारूपेण (अभ्रे) जलधारके मेघे (चरन्ति) (तासाम्) (आज्यम्) घृतम्। सारपदार्थम् (पुरुषः) (वर्षम्) वृष्टिजलम् (आपः) आप्ताः प्रजाः-दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।२७ ॥
विषय
सर्वमहान् 'ब्रह्मचारी' प्रभु
पदार्थ
१. सदा ज्ञान के साथ विचरनेवाले प्रभु सर्वमहान् ‘ब्रह्मचारी हैं। ये (ब्रह्मचारी) = ज्ञानस्वरूप में विचरनेवाले प्रभु (अग्नौ सूर्ये चन्द्रमसि मातरिश्वन् अप्सु) = अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, वायु व जलों में (समिधम्) = दीप्ति को (आदधाति) = स्थापित करता है। अग्नि में तेज, सूर्य-चन्द्रमा में प्रभा, वायु में जीवन-शक्ति व प्रवाह तथा जलों में रस प्रभु ही तो स्थापित करते हैं। २. (तासाम्) = इन जल आदि की (अर्चीषि) = दीतियाँ (पृथक्) = अलग-अलग (अभ्रेचरन्ति) = उदकपूर्ण मेघ में विचरण करती हैं। (तासाम्) = इन जल आदि में स्थापित दीसियों का ही कार्यरूप (आज्यं पुरुषो वर्षम् आप:) = आज्य, पुरुष, वृष्टि व जल हैं। 'आग्य' का अर्थ घृत है। इसके साधनभूत गौ आदि की समृद्धि होती है। गौवों के ठीक होने पर उत्तम सन्तान की समृद्धि 'पुरुष' शब्द से कही जा सकती है। इन मेषों से समय पर ('वर्षम्') = वृष्टि होती है और उससे 'आप', अर्थात् बापी, कूप-तड़ाग आदि की समृद्धि होती है।
भावार्थ
प्रभु ने 'अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु व जलों' में समिध् [तेज] को स्थापित किया है। इन सबकी दीप्तियों मेघ में एकत्र होती हैं। उनसे गवादि पशुओं, पुरुषों, वृष्टि व जलों की वृद्धि होती है।
भाषार्थ
(ब्रह्मचारी) ब्रह्म और वेद विद्या में विचरने वाला, (सूर्य) सूर्य के निमित्त (चन्द्रमसि) चन्द्रमा के निमित्त (मातरिश्वन्) अन्तरिक्ष में फैली हुई वायु के निमित्त, (अप्सु) जलों के निमित्त, (अग्नौ) अग्नि में (समिधम्) समिधा का (आ दधाति) आधान करता है। (तासाम्) उन समिधाओं की (अर्चींषि) ज्वालाएं (पृथक्) पृथक्-पृथक् (अभ्रे) मेघ के निमित्त या मेघ में (चरन्ति) गति करती हैं। (तासाम्) उन ज्वालाओं का परिणाम है; - (आज्यम्) घृतादि पदार्थ, (पुरुषः) पुरुषादि प्राणी, (वर्षम्) वर्षा, (आपः) तथा नदी आदि के जल।
टिप्पणी
[मन्त्र में "अग्नौ" में अधिकरण सप्तमी है, और शेष पदों में निमित्त सप्तमी। “समिधम्" में जात्येकवचन है, समिधम् = समिधाएं। इसीलिए "तासाम्" में बहुवचन है। सूर्यादि साधन हैं वर्षा के। यज्ञोत्त्थ धूम इन साधनों में मिल कर वर्षा का कारण बनता है१। वेदानुसार सब बालकों और बालिकाओं के लिए ब्रह्मचर्याश्रम की विधि से शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक है। पृथिवी के सब बालक बालिकाएं करोड़ों की संख्या में हैं। प्रत्येक बालक और बालिका अग्निहोत्र यदि प्रात-सायं करे तो यज्ञोत्थ धूम की कितनी मात्रा प्रतिदिन अन्तरिक्ष में जायेगी इसकी कल्पना की जा सकती है२। यह धूम वर्षा का कारण बनता है। वर्षा से आज्यादि अन्न की उत्पत्ति, अन्न अन्नरस और वीर्य, और वीर्य से पुरुषादि की उत्पत्ति होती है]।[१. धूम्र ज्योतिः (सूर्य, चान्द, विद्युत्), सलिल (पानी) और मरुत् (वायु) इन का सन्निपात अर्थात् मेल ही तो मेघ है। इन्हीं का वर्णन मन्त्र १३ में हुआ है। २. गृहस्थियों और वानप्रस्थियों के अग्निहोत्र भी यज्ञोत्त्थ धूम के अतिरिक्त कारण हैं।]
विषय
ब्रह्मचारी के कर्तव्य।
भावार्थ
(ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (अग्नौ सूर्ये चन्द्रमसि मातरिश्वन् अप्सु) अग्नि में, सूर्य में, चन्द्रमा में, वायु में और जलों में (समिधम्) अपने देदीप्यमान तेज को (आ दधाति) धारण करता है। (तासाम्) अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, वायु और जल इनके (अर्चीषि) अपने अपने तेज (पृथक्) अलग अलग (अभ्रे) आकाश में (चरन्ति) दृष्टिगोचर होते हैं (तासाम्) उनके ही सामर्थ्य से (आज्यम्) दूध, घी, अन्न आदि पदार्थ उत्पन्न होते हैं और (पुरुष) पुरुष आदि जीव उत्पन्न होते हैं (वर्षम्) काल पर वर्षा होती और (आपः) यथेष्ठ कूप तड़ागादि जल की सुविधा होती है। जिस प्रकार परमेश्वर अपने तेज को अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु, जल आदि में डालता है और उससे नाना सृष्टि के पदार्थ उत्पन्न होते हैं इसी प्रकार ब्रह्मचारी पुरुष भी अपना सामर्थ्य इन तेजस्वी पदार्थों पर प्रयोग करे तो उनके प्रयोग से देश में अन्न, दुग्ध, पशु पुरुष और वर्षा जल आदि का सब सुख उत्पन्न हो। अर्थात् इन सब तत्वों को उत्पादक फलप्रद बनाने के लिये तपस्वी ब्रह्मचारी की आवश्यकता है।
टिप्पणी
(च०) ‘आज्यं पुरीषम् वर्षमापः’ इति लुडविग्कामितः पाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
आदित्यपरक व्याख्या- (ब्रह्मचारी) आदित्य-आदि में प्रकाशित तथा आदिभूत अखण्ड अदिति नामक अग्नि से उत्पन्न प्रकाशात्मक लोक अग्निरप्यदितिरुच्यते" (निरु० ११।२३) (नौ) पार्थिव अग्नि में (सूर्ये) द्युलोकस्थ सञ्चरण शील तथा अन्य के प्रेरक पिण्ड में (चन्द्रमसि) चन्द्रमा में, (मातरिश्वन्) वायु में, विद्युत् में (सु) विविध जल प्रवाहों में (समिधम्-आदधाति) निजी ताप और प्रकाश शक्ति डालता है (तासाम् अर्चीषि) उन अनि आदि देवताओं की निज शक्तियाँ (अभ्रे चरन्ति) अभ्रियमाण-अध्रियमाण अन्तरिक्ष में स्व व्यापार करती हैं (तासाम्) उन अग्नि आदि देवताओं के समिन्धन से सम्यक् प्रदीप्त होने से फलरूप (आज्यं पुरुषः-वर्षम् आपः) घृतादि स्निग्ध वस्तु और उनका आधार गौ आदि पशु, पुत्रादिरूप देह, यथाकाल वृष्टि और जल प्रवाह सम्पन्न होते हैं । (ब्रह्मचारी ) ब्रह्मचर्य व्रतीजन (अग्नौ) अग्नि समान वाक् इन्द्रिय में "अग्निर्वाग भूत्वा मुखं प्राविशत्" "वागेवाग्नि.” (शत० १४।४।५।२) (सूर्य:) नेत्र-ज्ञानेन्द्रिय मात्र में (चन्द्रमसि) मन-अन्तःकरण मात्र में "मनश्चन्द्रमा: (जै० उ० ३।२।६) (मातरिश्वन्) प्राण वायु-समस्त प्राणों में "प्राणो मातरिश्वा" (ए० २।३८) (अप्सु) शरीरान्तर्गत व्यापन शील रस, रक्त शुक्रादि धातुओं में (समिधम्-आदधाति) निज ज्ञान व्रत संयमरूप सात्त्विक प्रकाश करने वाली, समिधा को स्थापित करता है (तासामू-अर्चषि) उन वागादि दिव्य शक्तियों की ज्योतियाँ उनकी अपनी शक्तियाँ (अ) शरीराकाश में (चरन्ति) प्रसार करती हैं व्यापार करती हैं ( तासाम्) उन वागादि दिव्य शक्तियों का फल (आज्यं पुरुष: वर्षम्-आप:) शरीर में स्निग्ध वस्तु वीर्य" रेतो वा आज्यम्" (शत० १।८।२।७) पौरुषपराक्रम, वर्ष-सम्यक रक्त सञ्चार, आपः-प्राण "प्राणा वा आपः" (तै० ३।२।५२) अर्थात् दीर्घ जीवन सम्पन्न होता है ॥१३॥
विशेष
ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmacharya
Meaning
The Brahmachari offers samits, fuel sticks, with scientific knowledge, into the fire, sun, moon, winds and currents of water and vapour. The heat, light and energy currents, in their own ways, move to and operate in the cloud, and the result of their interaction is vapours, rain, waters, ghrta and living seed, and purusha, forms of life. (This mantra points to a yajnic science of rain. For the evolution of life refer to Taittiriyopanishad, 2,1).
Translation
In the fire, in the sun, in the moon, in Matarisvan, in the waters, the Vedic student puts fuel; their gleams (arcis) go about separately in the cloud; their sacrificial butter (ajya) is man, rain, waters
Translation
(God the sustainer of the universe is) the Divine Brahmachari (who) puts heat, energy everywhere- in fire, in the Sun, in the Moon, in the atmosphere, in the waters. The spreading flames of these waters are seen in moving in the clouds in various ways and their essence appears ultimately in the form of rain, human beings and other creatures.
Translation
A Brahmchari establishes his spiritual force in fire, sun, moon, air, waters. Their respective lustres are manifest in the space. Butter, progeny, timely rain, and learned persons proceed from them.
Footnote
Butter: Butter-giving cows.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(अग्नौ) पार्थिवतापे (सूर्ये) आदित्ये (चन्द्रमसि) चन्द्रलोके (मातरिश्वन्) अ० ५।१०।८। विभक्तेर्लुक्। मातरि मानकर्तरि आकाशे गमनशीले वायौ (ब्रह्मचारी) म० १ (अप्सु) जलधारासु (समिधम्) प्रकाशसाधनम् (आ दधाति) सम्यग् धरति (तासाम्) अपाम् (अर्चींषि) तेजांसि (पृथक्) नानारूपेण (अभ्रे) जलधारके मेघे (चरन्ति) (तासाम्) (आज्यम्) घृतम्। सारपदार्थम् (पुरुषः) (वर्षम्) वृष्टिजलम् (आपः) आप्ताः प्रजाः-दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।२७ ॥
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