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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 18
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
    3

    ब्र॑ह्म॒चर्ये॑ण क॒न्या॒ युवा॑नं विन्दते॒ पति॑म्। अ॑न॒ड्वान्ब्र॑ह्म॒चर्ये॒णाश्वो॑ घा॒सं जि॑गीर्षति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्र॒ह्म॒ऽचर्ये॑ण । क॒न्या᳡ । युवा॑नम् । वि॒न्द॒ते॒ । पति॑म् । अ॒न॒ड्वान् । ब्र॒ह्म॒ऽचर्ये॑ण । अश्व॑: । घा॒सम् । जि॒गी॒र्ष॒ति॒ ॥७.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्। अनड्वान्ब्रह्मचर्येणाश्वो घासं जिगीर्षति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्मऽचर्येण । कन्या । युवानम् । विन्दते । पतिम् । अनड्वान् । ब्रह्मऽचर्येण । अश्व: । घासम् । जिगीर्षति ॥७.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (6)

    विषय

    ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।

    पदार्थ

    (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य [वेदाध्ययन और इन्द्रियनिग्रह] से (कन्या) कन्या [कामनायोग्य पुत्री] (युवानम्) युवा [ब्रह्मचर्य से बलवान्] (पतिम्) पति [पालनकर्ता वा ऐश्वर्यवान् भर्ता] को (विन्दते) पाती है। (अनड्वान्) [रथ ले चलनेवाला] बैल और (अश्वः) घोड़ा (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य के साथ [नियम से ऊर्ध्वरेता होकर] (घासम्=घासेन) घास से (जिगीर्षति) सींचना [गर्भाधान करना] चाहता है ॥१८॥

    भावार्थ

    कन्या ब्रह्मचर्य से पूर्ण विदुषी और युवती होकर पूर्ण ब्रह्मचारी विद्वान् युवा पुरुष से विवाह करे, और जैसे बैल घोड़े आदि बलवान् और शीघ्रगामी पशु घास-तिनके खाकर ब्रह्मचर्यनियम से समय पर बलवान् सन्तान उत्पन्न करते हैं, वैसे ही मनुष्य पूर्ण ब्रह्मचारी, विद्वान् युवा होकर अपने सदृश कन्या से विवाह करके नियमपूर्वक बलवान्, सुशील सन्तान उत्पन्न करें ॥१८॥वैदिक यन्त्रालय अजमेर, और गवर्नमेंट बुक डिपो बम्बई के पुस्तकों में (जिगीर्षति) पद है, जिसका अर्थ [सींचना चाहता है] है, और सेवकलाल कृष्णदासवाले पुस्तक और महर्षि दयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में (जिगीषति) है, जिसका अर्थ [जीतना चाहता है] है ॥

    टिप्पणी

    १८−(ब्रह्मचर्येण) म० १७। आत्मनिग्रहवेदाध्ययनादिना (कन्या) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। कन प्रीतिद्युतिगतिषु-यक्, टाप्। कन्या कमनीया भवति क्वेयं नेतव्येति वा कमनेनानीयत इति वा कनतेर्वा स्यात्कान्तिकर्मणः-निरु० ४।१५। कमनीया। पुत्री (युवानम्) अ० ६।१।२। प्राप्तयुवावस्थाकम्। बलवन्तम् (विन्दते) लभते (पतिम्) पातेर्डतिः। उ० ४।५७। पा रक्षणे-डति। यद्वा, सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। पत ऐश्वर्ये-इन्। पालकम्। ऐश्वर्यवन्तम्। भर्तारम् (अनड्वान्) अ० ४।११।१। अनस्+वह प्रापणे-क्विप्, अनसो डश्च। रथवाहको वृषभः (ब्रह्मचर्येण) (अश्वः) शीघ्रगामी घोटकः (घासम्) घस भक्षणे-घञ्। तृतीयार्थे द्वितीया। घासेन। गवां भक्ष्यतृणभेदेन (जिगीर्षति) गृ सेचने-सन्। गर्तुं सेक्तुं निषेक्तुं गर्भाधानं कर्तुमिच्छति। जिगीषतीति वक्षे, जि जये-सन्। जेतुमिच्छति ॥

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    पदार्थ

    शब्दार्थ =  ( ब्रह्मचर्येण  ) = वेदाध्ययन और इन्द्रियदमन से  ( कन्या ) = योग्य पुत्री  ( युवानम्  पतिम् ) = ब्रह्मचर्य से बलवान् पालन पोषण करनेवाले, ऐश्वर्यवान् भर्ता को  ( विन्दते ) = प्राप्त होती है ।  ( अनड्वान् ) = रथ में चलनेवाला बैल और  ( अश्वः ) = घोड़ा  ( बह्मचर्येण ) = नियम से ऊर्ध्वरेता होकर  ( घासम् ) = तृणादिक को  ( जिगीर्षति ) = जीतना चाहता है। 

    भावार्थ

    भावार्थ = कन्या ब्रह्मचर्य से पूर्ण विदुषी और युवती हो कर पूर्ण विद्वान् युवा पुरुष से विवाह करे और जैसे बैल, घोड़े आदि बलवान् और शीघ्रगामी पशु घास, तृण खाकर ब्रह्मचर्य नियम से बलवान् सन्तान उत्पन्न करते हैं, वैसे ही मनुष्य पूर्ण युवा होकर अपने सदृश कन्या से विवाह करके नियमपूर्वक बलवान् सुशील सन्तान उत्पन्न करे ।

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    विषय

    दीप्ति, निर्दोषता, स्वास्थ्य

    पदार्थ

    १. (ब्रह्मचर्येण) = ब्रह्मचर्य के द्वारा-जितेन्द्रिय बनकर शक्तिरक्षण के द्वारा-(कन्या) = एक दीस जीवनवाली [कन् दीसी] युवति (युवानं पतिं विन्दते) = युवा पति को-रोग आदि बुराइयों से रहित व शक्ति आदि उत्तम गुणों से युक्त पति को [यु मिश्रणामिश्रणयो:] प्राप्त करती है एवं ब्रह्मचर्य के दो लाभों का यहाँ संकेत हुआ है [क] जीवन दीप्त बनता है तथा [ख] रोगादि दोषों से रहित व स्फूर्ति आदि गुणों से युक्त होता है। २. (ब्रह्मचर्येण) = ब्रह्मचर्य से ही (अनड्वान्) = [अनः वहति] गाड़ी को बैंचनेवाला बैल, तथा (अश्व:) = [मार्ग अश्नुते] मार्ग का व्यापन करनेवाला घोड़ा (घासं जिगीर्षति) = घास को निगलने की इच्छा करता है, अर्थात् ब्रह्मचर्य के अभाव में उदरयन्त्र भी शीघ्र विकृत हो जाता है और खान-पान की शक्ति भी जाती रहती है।

    भावार्थ

    ब्रह्मचर्य के दीप्ति, निर्दोषता व शरीर के अवयवों का ठीक से कार्य करते रहना ये लाभ हैं, अत: इसका महत्त्व स्पष्ट है।

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    भाषार्थ

    (कन्या) कन्या (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य धारण करने के पश्चात् (युवानम्) युवा ब्रह्मचारी को (पतिम्) पतिरूप में (विन्दते) प्राप्त करती है। (अनड्वान्) बैल तथा (अश्व) घोड़ा (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य के प्रभाव से (घासम्) घास को (जिगीर्षति) निगलना चाहता है।

    टिप्पणी

    [अनड्वान्, अश्वः= पशु भी अपना खाना तभी चाहते हैं जब उन की पाचनशक्ति ठीक हो, और पाचनशक्ति बिना ब्रह्मचर्य के ठीक नहीं रह सकती। पाचनशक्ति के बिना पशु खाना भी नहीं चाहता]।

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    विषय

    ब्रह्मचारी के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य के पालन से (कन्या) कन्या (युवानं पतिम् विन्दते) युवा पति को प्राप्त करती है। और (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य रूप इन्द्रिय संयम द्वारा ही (अनड्वान् अश्वः) गाड़ी का भार उठाने वाले बैल और घोड़ा (घासं जिगीर्षति) घास खाने में समर्थ होता है। ‘अनड्वान् पतिं विन्दते’ इति सायणाभिमतोऽन्वयश्चिन्त्यः।

    टिप्पणी

    (च०) ‘घासं जिगीषति’ इति बहुत्र। ‘जिहीर्षति’ इति पैप्प० सं०। ‘जिगीषति’ इति ह्विटन्निसम्मतः। ‘जिगीर्षति’ इति सायणाभिमतः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वैवाहिक सम्बन्ध में ब्रह्मचर्य आवश्यक है

    मन्त्रार्थ

    (ब्रह्मचर्येण कन्या) ब्रह्मचर्य व्रतरूप संयम से कान्ता दीप्त-कुमारी (युवानं पतिं विन्दते) युवा पति को प्राप्त होती है तथा (ब्रह्मचर्येण-अनड्वान् अश्वः) ब्रह्मचर्य रूप संयम से ही कुमार अनड्वान्-वृषभ की भाँति गृहस्थ भार को वहन कर सकता तथा घोडे की भांति गृहस्थ निर्वाहक बल से सम्पन्न हो सकता है। और (घासं जिगीषति ) घास अर्थात् भक्षण योग्य घास के समान भोग प्रद-भोगसाधन वीर्य धातु को अपने अन्दर पचाने की इच्छा करता है-धारण करने में समर्थ होता है । ॥१८॥

    विशेष

    ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmacharya

    Meaning

    Only by Brahmacharya does the virgin maiden find a youth as husband. Even the bull and the horse can eat and digest grass by natural Brahmacharya.

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    Translation

    By Vedic-studentship a girl wins (vid) a young husband; by Vedic studentship a draft-ox, a horse strives to gain (ji) food.

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    Translation

    A maidenliving in chastity by controlling her senses wins for her husbandship a young bachelor of similar qualifications. Even bulls, horses and beasts nourish themselves with fodder and keep their sexual appetit in control.

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    Translation

    Through self-restraint a maiden finds a youth to be her husband. Through self-restraint the ox and horse seek to get and digest fodder for themselves.

    Footnote

    In the texts published by the Vedic Yantralya, Ajmer, and Govt. Book Depot, Bombay, जिगोर्षति is given, but in Rigvede, adi bhashya bhumika by Rishi Dayanand, and in the text published by Sevak Lal, Krishan Das the word is जिगोर्षति which means willing to conquer.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८−(ब्रह्मचर्येण) म० १७। आत्मनिग्रहवेदाध्ययनादिना (कन्या) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। कन प्रीतिद्युतिगतिषु-यक्, टाप्। कन्या कमनीया भवति क्वेयं नेतव्येति वा कमनेनानीयत इति वा कनतेर्वा स्यात्कान्तिकर्मणः-निरु० ४।१५। कमनीया। पुत्री (युवानम्) अ० ६।१।२। प्राप्तयुवावस्थाकम्। बलवन्तम् (विन्दते) लभते (पतिम्) पातेर्डतिः। उ० ४।५७। पा रक्षणे-डति। यद्वा, सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। पत ऐश्वर्ये-इन्। पालकम्। ऐश्वर्यवन्तम्। भर्तारम् (अनड्वान्) अ० ४।११।१। अनस्+वह प्रापणे-क्विप्, अनसो डश्च। रथवाहको वृषभः (ब्रह्मचर्येण) (अश्वः) शीघ्रगामी घोटकः (घासम्) घस भक्षणे-घञ्। तृतीयार्थे द्वितीया। घासेन। गवां भक्ष्यतृणभेदेन (जिगीर्षति) गृ सेचने-सन्। गर्तुं सेक्तुं निषेक्तुं गर्भाधानं कर्तुमिच्छति। जिगीषतीति वक्षे, जि जये-सन्। जेतुमिच्छति ॥

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    ব্রহ্মচর্য়েণ কন্যা য়ুবানং বিন্দতে পতিম্।

    অনুড্বান্ ব্রহ্মচর্য়েণাশ্বো ঘাসং জিগীর্ষতি ।।৮৭।।

    (অথর্ব ১১।৫।১৮)

    পদার্থঃ (ব্রহ্মচর্য়েণ) বেদ অধ্যয়ন ও ইন্দ্রিয়দমন দ্বারা (কন্যা) সুযোগ্য কন্যা (যুবানম্ পতিম্) ব্রহ্মচর্য দ্বারা বলবান, পালন পোষণে সক্ষম, ঐশ্বর্যবান যুবককে (বিন্দতে) প্রাপ্ত হয়। যেমন (অনড্বান্) রথ চালনাকারী ষাঁড়, (অশ্বঃ) ঘোড়া (ব্রহ্মচর্য়েণ) নিয়ম মেনে (ঘাসম্) তৃণাদিকে (জিগীর্ষতি) কামনা করে।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ কন্যা ব্রহ্মচর্য দ্বারা পূর্ণ বিদুষী ও যুবতী হয়ে পূর্ণ বিদ্বান যুবা পুরুষকে বিবাহ করে। যেভাবে ষাঁড়, ঘোড়া আদি বলবান ও শীঘ্রগামী পশু ঘাস, তৃণ খেয়ে ব্রহ্মচর্য নিয়ম মেনে বলবান সন্তান উৎপন্ন করে; তেমনই মানুষ পূর্ণ বিদ্বান হয়ে ব্রহ্মচর্য অবলম্বন করে মৃত্যুঞ্জয়ী যুবা হয়ে সদৃশ কন্যাকে নিয়ম পূর্বক বিবাহ করে এবং বলবান সুশীল সন্তান উৎপন্ন করে ।।৮৭।।

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