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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 14
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मचारी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
    1

    आ॑चा॒र्यो मृ॒त्युर्वरु॑णः॒ सोम॒ ओष॑धयः॒ पयः॑। जी॒मूता॑ आस॒न्त्सत्वा॑न॒स्तैरि॒दं स्वराभृ॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽचा॒र्य᳡: । मृ॒त्यु: । वरु॑ण: । सोम॑: । ओष॑धय: । पय॑: । जी॒मूता॑: । आ॒स॒न् । सत्वा॑न: । तै: । इ॒दम् । स्व᳡: । आऽभृ॑तम् ॥७.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आचार्यो मृत्युर्वरुणः सोम ओषधयः पयः। जीमूता आसन्त्सत्वानस्तैरिदं स्वराभृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽचार्य: । मृत्यु: । वरुण: । सोम: । ओषधय: । पय: । जीमूता: । आसन् । सत्वान: । तै: । इदम् । स्व: । आऽभृतम् ॥७.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मचर्य के महत्त्व का उपदेश।

    पदार्थ

    (आचार्यः) आचार्य (मृत्युः) मृत्यु [रूप] (वरुणः) जल [रूप], (सोमः) चन्द्र [ओषधयः] ओषधें [अन्न आदि रूप] और (पयः) दूध [रूप] हुआ है। (जीमूताः) अनावृष्टि जीतनेवाले, मेघ [उसके लिये] (सत्वानः) गतिशील वीर [रूप] (आसन्) हुए हैं, (तैः) उन के द्वारा (इदम्) यह (स्वः) मोक्षसुख (आभृतम्) लाया गया है ॥१४॥

    भावार्थ

    आचार्य, साङ्गोपाङ्ग और सरहस्य वेदों का पढ़ानेवाला पुरुष, दोषों के नाश करने को मृत्युरूप और सद्गुणों के बढ़ाने को जल, चन्द्र आदि रूप होकर संसार में मेघों के समान सुख बढ़ाता है ॥१४॥

    टिप्पणी

    १४−(आचार्यः) म० १। साङ्गोपाङ्गरहस्यवेदाध्यापकः (मृत्युः) मृत्युरूपः (वरुणः) जलरूपः (सोमः) चन्द्ररूपः (पयः) दुग्धरूपः (जीमूताः) जेर्मूट् चोदात्तः। उ० ३।९१। जि जये-क्त, मूडागमो धातोर्दीर्घश्च। जयन्त्यनावृष्टिं ये। मेघाः (आसन्) (सत्वानः) अ० ५।२०।८। षद्लृ गतौ-क्वनिप्। गतिशीलाः। वीररूपाः (तैः) मेघैः (इदम्) उपस्थितम् (स्वः) सुखम् (आहृतम्) आहृतम्। प्राप्तम् ॥

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    विषय

    आचार्य; मृत्युः, सत्वानः, जीमूताः

    पदार्थ

    १. (आचार्य:) = आचार्य (मृत्युः) = मृत्यु है। गर्भ में धारण करके द्वितीय जन्म देने के कारण और इसप्रकार उपनीत ब्रह्मचारी को द्विज बनाने के कारण आचार्य मृत्यु है। (वरुण) = पाप से निवारित करनेवाला यह आचार्य वरुण है। (सोमः) = चन्द्र के समान आहादमय व शान्त वृत्तिवाला होने से सोम है। (ओषधयः) = दोषदहन शक्ति का आधान करनेवाला [उष दाहे] आचार्य ओषधयः' है। (पय:) = दोषदहन द्वारा शक्ति का आप्यायन करने से आचार्य 'पयः' है। २. इस आचार्य के (सत्वान:) = समीप सदनशील ये विद्यार्थी (जीमूताः आसन्) = [जीवनं भूतं बद्धं येष] जीवन-शक्ति से परिपूर्ण हुए। (तै:) = उन आचार्यों के समीप रहकर जीवन को अपने में बाँधनेवाले ब्रह्मचारियों से (इदं स्व: आभूतम्) = यह सुख, प्रकाश व तेज धारण किया गया है।

    भावार्थ

    आचार्य को विद्यार्थी को नवीन जीवन देने से 'मृत्यु' नाम दिया गया है और विद्यार्थी नवजीवन को अपने में बद्ध करने के कारण 'जीमूत' कहलाया है। ब्रह्मचारी अपने आचार्य के जीवन व ज्ञान से 'प्रकाश व तेज' धारण करते हैं।

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    भाषार्थ

    (आचार्यः मृत्यु) आचार्य मृत्यु रूप है, (वरुणः) वरुणरूप है, (सोमः ओषधयः पयः) सोम, ओषधि तथा जल अथवा दुग्धरूप है। (सत्वानः) आचार्य में विद्यमान ये शक्तियां (जीमूताः) मेघरूप (आसन) होती हैं, (तैः) उन शक्तियों द्वारा (इदं स्वः) यह सुख (आभृतम्) प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    [ब्रह्मचारी के जीवन को स्वर्गीय अर्थात् सुखमय बनाने के लिए आचार्य के भिन्न-भिन्न स्वरूपों का वर्णन मन्त्र में हुआ है। आचार्य मृत्यु है, उत्पत्ति काल से बालक पशु समान तथा शुद्रवृत्तिक१ होते हैं, आचार्य उसके पशुत्व और शूद्रत्व का विनाश कर उन्हें विद्वान् तथा द्विजन्मा बताता है, अतः आचार्य मृत्युरूप है। वह उन्हें पापकर्म से निवारित करता है, अतः वरुणरूप है। सत्कर्मों में प्रेरित करता, अतः सोमरूप है, "षू प्रेरणे"। रोगोपचार करता है, अतः ओषधिरूप है। सुखों तथा सदुपदेशों की वर्षा करता है, अतः मेघरूप है। स्वभाव से जलसमान शीतल, तथा दुग्धादि अन्न प्रदान द्वारा मातृरूप२ है।] [१. जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते। २. तं रात्रीस्तिस्रः उदरे बिभर्ति (मन्त्र ३)।]

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    विषय

    ब्रह्मचारी के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (आचार्यः) आचार्य, (मृत्युः) मृत्यु, (वरुणः) वरुण, (सोमः) सोम, (ओषधयः) ओषधियें और (पयः) जल, (जीमूताः) मेघ ये सब पदार्थ (सत्वानः) बल सम्पन्न हैं। (तैः) इन्होंने ही (इदं स्वः) यह तेजोमय स्वः ब्रह्माण्ड लोक (आभृतम्) धारण किया है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘पर्जन्यो’ (तृ०) ‘जीमूतासन्’ (च०) ‘स्वराभरम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मचारी देवता। १ पुरोतिजागतविराड् गर्भा, २ पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट् शक्वरी, ६ शाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, ७ विराड्गर्भा, ८ पुरोतिजागताविराड् जगती, ९ बार्हतगर्भा, १० भुरिक्, ११ जगती, १२ शाकरगर्भा चतुष्पदा विराड् अतिजगती, १३ जगती, १५ पुरस्ताज्ज्योतिः, १४, १६-२२ अनुष्टुप्, २३ पुरो बार्हतातिजागतगर्भा, २५ आर्ची उष्गिग्, २६ मध्ये ज्योतिरुष्णग्गर्भा। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmacharya

    Meaning

    The Acharya is Mrtyu, Yama, who leads the Brahmachari from the natural phase of the first birth to the second, enlightened phase of life. The Acharya is Varuna, saves him from evil and negativity. The Acharya is Soma, harbinger of peace and inspiration. The Acharya is medicinal herbs and milk and water, i.e., harbinger of health, saviour from disease, and giver of food for energy. His living virtues are the clouds whence all peace and happiness is received from the showers.

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    Translation

    The teacher (was) death, Varuna, Soma, the herbs, milk; the thunder-clouds were warriors; by them (was) this heaven (svar) brought.

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    Translation

    God ordains everything for the good of the creatures, rain, moonlight, death etc. according, as the universe, in His Omni-science, needs. The Preceptor also should assume a similar role in discharging his duty towards those under him, sometimes putting down evil with the severity of death, sometimes imparting peace and dealing leniently like the cool and charming moon, as circumstances demand.

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    Translation

    A teacher punishes the student for his faults, as death punishes men, he consoles the pupil like water, assuages him like Moon, acts as his benefactor like herbs, and stimulator of his spiritual force like butter. The noble qualities of the teacher work like clouds, through which this resplendent world is sustained.

    Footnote

    Just as clouds satisfy the thirsty ground with water, so does the teacher satisfy the craving of the pupil for knowledge with his learning.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(आचार्यः) म० १। साङ्गोपाङ्गरहस्यवेदाध्यापकः (मृत्युः) मृत्युरूपः (वरुणः) जलरूपः (सोमः) चन्द्ररूपः (पयः) दुग्धरूपः (जीमूताः) जेर्मूट् चोदात्तः। उ० ३।९१। जि जये-क्त, मूडागमो धातोर्दीर्घश्च। जयन्त्यनावृष्टिं ये। मेघाः (आसन्) (सत्वानः) अ० ५।२०।८। षद्लृ गतौ-क्वनिप्। गतिशीलाः। वीररूपाः (तैः) मेघैः (इदम्) उपस्थितम् (स्वः) सुखम् (आहृतम्) आहृतम्। प्राप्तम् ॥

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